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कुछ का देहपात हो जाता है, फिर भी कुछ जीवित रहते हैं । अतः पुरुष एक नहीं, अनेक हैं ।
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प्रकृति इस संसार का आदि कारण है । यह एक नित्य और जड़ वस्तु है । यह सर्वदा परिवर्तनशील है । इसका लक्ष्य पुरुष के उद्देश्य - साधन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । सत्त्व, रजस् तथा तमस् — प्रकृति के तीन गुण या उपादान हैं । सृष्टि के पहले ये तीन गुण साम्यावस्था में रहते हैं । इन्हें साधारण अर्थ में गुण नहीं समझना चाहिये । ये विशेष अर्थ में 'गुण' कहलाते हैं । जिस प्रकार कोई तिगुनी रस्सी तीन डोरियों की बनी होती है, उसी प्रकार प्रकृति तीन तरह के मौलिक तत्त्वों से बनी हुई है । संसार के विषय सुख दुःख या मोह के जनक हैं । वस्तुओं के प्रति सुख दुःख या विषाद होने के कारण हम वस्तुओं के तीन गुणों का अनुमान करते हैं । मीठे भोजन में एक ही व्यक्ति को कभी रुचि होती है, कभी अरुचि या कभी उदासीन भाव (रुचि तथा अरुचि दोनों का अभाव ) । एक ही व्यञ्जन में किसी व्यक्ति को अच्छा स्वाद मिलता है, किसी को विपरीत स्वाद मिलता है तथा किसी को कोई स्वाद नहीं मिलता । -कारण तथा कार्य में वस्तुतः ऐक्य होता है । कार्य कारण का विकसित रूप है। तिल आदि विशेष प्रकार के बीजों का विकसित रूप तैल है । संसार के सभी विषय परिणाम हैं,
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जिनके कारण सुख दुःख या विषाद का अनुभव होता है ।
हम उपर कह आये हैं कि प्रकृति, जिसका नाम प्रधान है, सांसारिक वस्तुओं का मूल कारण है । अतः सत्कार्यवादसिद्धान्त के अनुसार उसमें सुख, दुःख तथा विषाद के कारण अवश्य होंगे । सुख-दुःख तथा विषाद का कारण क्रमशः सत्त्व, रजस् तथा तमस् हैं । इस तरह प्रकृति के अन्तर्गत सत्त्व, रजस् तमस् का अस्तित्व प्रतिपादित होता है । सत्त्व प्रकाशक है, रजस् गतिशील है और कर्म कराता है, तमस् अचल तथा रणक या आवरणकारी है।
पुरुष तथा प्रकृति के संयोग (= वासना के बन्धन) से सृष्टि का प्रारम्भ होता है । प्रकृति के तीन गुणों की साम्यावस्था पुरुष का संयोग होने से नष्ट होती है ।
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