________________
होती । ऊपर के उदाहरणों में साँप तथा रजत अध्यस्त हैं । अज्ञान के अधिष्ठान का केवल आवरण ही नहीं होता, अपितु विक्षेप भी होता है । विश्व की अनेकरूपता की व्याख्या इसी प्रकार की जा सकती है । ब्रह्म एक है, अतः अविद्या के कारण उसमें अनेक की प्रतीति होती है । अविद्या के कारण हम ब्रह्म का सच्चा स्वरूप नहीं जान पाते । हम उसे नाना रूपों में देखते हैं । बाजीगर एक मुद्रा को कई मुद्राओं में परिणत कर दिखलाता है । इस भ्रमात्मक प्रतीति का कारण जादूगर के लिये तो उसकी जादू दिखलाने की शक्ति है, किन्तु हमारे लिये उसका कारण हमारा अज्ञान है । अज्ञानवश हम एक मुद्रा को कई मुद्राओं के रूप में देखते हैं । इसी प्रकार यद्यपि ब्रह्म एक है फिर भी मायाशक्ति के कारण हमें उसके अनेक रूप दिखायी पड़ते हैं । साथ ही साथ हमारा अज्ञान भी ब्रह्म की अनेकरूपता का कारण है। हमें यदि अज्ञान न हो तो हम ब्रह्म की अनेकरूपता के भ्रम में नहीं पड़ सकते । अत: माया और अविद्या वस्तुतः एक हैं । दृष्टिभेद से दो ज्ञात होती हैं । यही कारण है कि माया को अज्ञान भी कहते हैं।
कहा जाता है कि शङ्कर विशुद्ध अद्वैत का प्रतिपादन नहीं कर सके, क्योंकि वे ईश्वर तथा माया जैसे दो तत्त्वों को मानते हैं । किन्तु शङ्कर के अनुसार माया ईश्वर की ही एक शक्ति है । जो सम्बन्ध अग्नि तथा उसकी दाहक शक्ति में है, वही सम्बन्ध ईश्वर तथा माया में है।
उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि ईश्वर मायाशक्ति से विशिष्ट है, किन्तु ऐसा कहना भी बहुत समीचीन नहीं है । यदि संसार की अनेकरूपता को सत्य माना जाय तथा ईश्वर को संसार की दृष्टि से देखा जाय तो अवश्य ही ईश्वर की प्रतीति स्रष्टा या मायावी के रूप में होगी, किन्तु जैसे ही संसार के मिथ्यात्व का ज्ञान हो जाता है, वैसे ही ईश्वर को स्रष्टा के रूप में देखना अर्थहीन हो जाता है । जो पुरुष जादूगर के खेल से भ्रम में नहीं पड़ता, उसके छल को समझता है, इसके लिये जादूगर, जादूगर नहीं है । उसके लिये उस जादूगर के पास धोखा देने की कला भी नहीं है । इसी प्रकार जो विश्व को पूर्णतया ब्रह्ममय देखता है उसके लिये ब्रह्म में माया या सृष्टिशक्ति नहीं रह जाती ।
15