Book Title: Sapta Bhashi Atmasiddhi
Author(s): Shrimad Rajchandra, Pratapkumar J Toliiya, Sumitra Tolia
Publisher: Jina Bharati Bangalore

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Page 18
________________ (७) सप्तभाषी आत्मसिद्धि SAPTABHASHI ATMASIDDHI सहयोग के बिना यह सप्तभाषी स्वरूप कभी सम्भव, साकार बन ही नहीं समारोह के अवसर पर यह सप्तभाषी आत्मसिद्धि प्रथम हस्तप्रति के रूप में पाता था । पूर्वकृत भिन्नभिन्नभाषी अनुवादों को एकिवत संकलित-शुद्ध प्रस्तुत और विमोचित हो पायी थी। करना-करवाना एवं बंगला जैसे नहीं बने हुए अनुवादों को अधिकृत परमपुरुषों के योगबल एवं कृपा-करुणा से ही इस पंक्तिलेखक एवं उसके विद्वाना स अनूदित करवाना-यह सारा दादा विमलाजा का सतत प्ररणा- परिवारजनों (सुमित्रा, फाल्गुनी इत्यादि) के भाग्य में अंततोगत्वा सम्पादन - मार्गदर्शन से बन पाया । “अप्रमादयोग" की उनकी स्वयं की श्रीमद्जी प्रकाशन का यह सुअवसर आ सका। विषयक प्रेरक प्रवचनकृति से लेकर - Selected works of Srimad उपर्युक्त परमगुरुजनों के जितना ही श्रेय इस अमर कृति के सर्व समुन्नत Rajachandra- एवं अन्य अनेक श्रीमद् साहित्य आयोजनों के पीछे उनकी मूर्द्धन्य अनुवादकों को है जिनका परिचय अन्यत्र दिया गया है। उन सबको कैसी, कितनी बहुजनोपयोगी आर्ष-दृष्टि एवं महती अनुमोदनाभरी निष्ठा है भी परमगुरुओं के समांतर उपकार वन्दना सह अपार प्रतिकूलताओं के बीच यह सभी श्रीमद् अभ्यासी एवं तत्त्व जिज्ञासु जनों के लिए ज्ञातव्य है । *2* पली इस महाकृति हेतु अप्राप्य रही अर्थसहायता की अवस्था के बीच अतः श्रीमद्जी, सहजानंदघनजी, सुखलालजी, माताजी धनदेवीजी जैसी अल्प-सी भी अर्थसहायता या अन्य प्रकार से सेवा सहायता करनेवाले सभी महान आत्माओं के कार्यरत "योगबल' में दीदी विमलाजी ही बड़ा ज्ञात-अज्ञात धन्यजनों / मित्रों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन एवं विश्वभर में इस निमित्त, बड़ा माध्यम बनी है “सप्तभाषी आत्मसिद्धि" के इस प्रकाशन - महाकृति के अनुगुञ्जन की भावना सह - सम्पादन - संकलन सर्व में। और उनके माध्यम से सहजानंदघनजी की भावना अब साकार रूप धारण कर रही है। प्रतापकुमार टोलिया वर्षों के परिश्रम के पश्चात् एवं विमला दीदी के उपर्युक्त सर्व प्रकार के हम्पी, सॅन फ्रान्सिस्को, अटलान्टा, शिकागो, बेंगलोर, बोरडी श्रीमद् राजचन्द्र परम समाधि शताब्दी वर्ष, बेंगलोर १२ अप्रैल २००१ सहयोग से, हमारे - जिनभारती - वर्धमान भारती इन्टरनैशनल फाउन्डेशन के - छोटेसे हाथों द्वारा शिकागो में १९९६ में श्री आत्मसिद्धि शताब्दी *1* आत्मसिद्धि (गुजराती) के प्राक्कथन में । *2* Voyage within with Vimalaji सम्पादकीय : अंतिमा प्रतिकलताओं के बादलों से झलकती हई अनुग्रह-किरणें सर्वोपकारी श्रीमद् साहित्य गुजरात - गुजराती की सीमा लांघकर बाहर सुदूर तक फैले यह महती आवश्यकता है । इसे युगदृष्टा श्री सहजानंदघनजी एवं विदुषी विमलादीदी ने अपनी आर्ष अवलोकन-दृष्टि से देखा । इस हेतु गुजरात के श्रीमद् राजचन्द्र आश्रमों के प्रमाद-उपेक्षा-दायित्वहीनता की ओर उन दोनों ने वर्षों से अंतर्वेदनाभरा संकेत किया। इस से भी अधिक वेदना की बात तो अभी यह रही कि गुजरात तो क्या, गुजरात बाहर हंपी-कर्णाटक के, स्वयं श्री सहजानंदघनजी-संस्थापित, हमारे ही "श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम'ने भी (जिसका कि यह सम्पादक भी एक ट्रस्टी रहा) विपरित अनुभव करवाया । स्वयं श्री सहजानंदघनजी इच्छित-प्रेरितप्रारम्भित-आदेशित इस "सप्तभाषी आत्मसिद्धि" के प्रकाशन के दायित्व से, पांच पांच वर्षों के हमारे ट्रस्ट-भीतर के प्रयत्नों के बावजूद, अंततोगत्वा अभी मुकर जाना आश्रम - ट्रस्ट ने उचित समझा । हमारे आश्रम ने श्रीमद्जी के परमसमाधि शताब्दि वर्ष में इस कृति के द्वारा विश्व फलक पर आने का अवसर खोया, और दूसरी ओर से फिर अकेले इस छोटे-से सम्पादक पर उसकी स्व-निर्भर प्रवृत्ति वर्धमान-भारती - जिनभारती पर यह सारा महाबोझ आ गया। परन्तु 'एकला चलो रे' की इस प्रत्यक्ष स्थिति को 'अकेला' नहीं रहने देकर, प्रतिकूलताओं के बीच से 'परोक्ष' गुरू-कृपा, मातृ-कृपा बल-सम्बल-योगबल देकर उंगली पकड़कर अन्य विदेहलोकों से चला रही है । इस ‘परोक्ष' कृपा में भी निहित है - एक नहीं, दो दो माताओं की कृपा । एक उक्त हम्पी आश्रम की ही अधिष्ठात्री विदेहगता पू. आत्मज्ञा माताजी श्री धनदेवीजी और दूसरी जन्म से ही आत्मसिद्धि का अमृतपान करानेवाली इस देह की जन्मदात्री उपकारक माता पू. अचरतबा । इस कृति के प्रेरणादाता विदेहस्थ परमगुरूओं का एवं उक्त दोनो माताओं का अनुग्रह अन्य अनपेक्षित नूतन स्वरूपों मे उतर रहा है - विमलाजी, थोड़े से छोटे-छोटे पर भावों में बड़े नये श्रीमद् अभ्यासी एवं कुछ स्वजन-परिजनों के द्वारा । सचमुचमें सद्गुरू श्री सहजानंदघनजी का प्रतिकूलताओं में अनुकूलता देखने का आदेश यहां सार्थक हो रहा है । आशा ही नहीं, विश्वास भी है - प्रतिकूलताओं के बीच से चली ऐसी यह सृजनयात्रा परमगुरूओं के अनुग्रह से अवश्य पार उतरेगी । उनकी कृपा का यह फल उन्ही को अर्पण करते हुए अनेकशः वंदना उनके पावन चरणों में ।-प्र. •जिनभारती JINA-BHARATI. Jain Education Intemational 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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