Book Title: Sapta Bhashi Atmasiddhi
Author(s): Shrimad Rajchandra, Pratapkumar J Toliiya, Sumitra Tolia
Publisher: Jina Bharati Bangalore
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________________ wntenसि६ि. 1 , 2.1 मावि 4 4 25. 12 दि५५५ / 545. 7 शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम / बीजूं कहिये केटलुं, कर विचार तो पाम / / सर्वधर्ममान्य, सर्वोपकारक आत्मसिद्धि गाथा-गान की महिमा एवं प्रभाव श्री आत्मसिद्धि में आत्मा गाया है / उस में किसी धर्म की निंदा नहीं है / सर्व धर्म माननेवालों को विचार करने योग्य है / हमें भी आत्मा की पहचान करनी हो तो बारम्बार विचारणीय है / चौदह पूर्वो का सार उसमें है / हमें हमारी योग्यतानुसार चिंतन करने से बहुत ही लाभ प्राप्त हो ऐसा है। उसमें जो गहन मर्म भरा है वह तो ज्ञानीगम्य है, किसी सत्पुरूष के समागम से श्रवण कर मान्य करने योग्य है / परन्तु जितना अर्थ हमारी समझ में आए उतना समझने का पुरुषार्थ करना कर्त्तव्य है / इसलिए किसी भी धर्म को माननेवाला हो और उसके साथ आत्मसिद्धि विषयक वार्ता हो और वह सुने तो उसे रुचिकर प्रतीत हो ऐसा आत्मसिद्धि में तो महत्-महतों को मान्य करनी पड़े ऐसी बातें हैं / उससे अधिक मैं जानता हुं ऐसा कहनेवाला कुछ नहीं जानता है, उसमें गलती देखनेवाला स्वयं ही गलती करता है। श्री आत्मसिद्धि शास्त्र को यथार्थ समझनेवाला तो कोई विरला ज्ञानीपुरुष है। परन्तु गुजराती भाषा में होने से छोटे बालक, स्त्री, विद्वान कोई भी पढ़ सके, कंठस्थ कर सके, रोज बोल सके और यथाशक्ति समझ सके ऐसा है। और यदि न भी समझ सके तो भी उस ज्ञानी पुरुष के शब्द कानों में पड़े तो भी पुण्यबंधन करे ऐसा उसका प्रभाव है / इसलिए दूसरी बातों में देर नहीं लगाते हुए घर में, बाहर, काम पर या फुरसत में जहाँ भी हो वहाँ आत्मसिद्धि की किसी न किसी गाथा बोलते रहने की यदि आदत रक्खी हो तो उसका विचार करने का प्रसंग आ सके और विशेष समझा जाए और आत्मा का माहात्म्य प्रकट हो जाए / और कुछ बन न सके तो आत्मसिद्धि की गाथाओं में मन को रोकना यह हितकर है। थक न जाएँ, सौ बार, हज़ार बार एक ही एक गाथा बोली जाए तो भी हर्ज नहीं, लाख बार बोली जाए तो भी कम है। उसमें कथित आत्मा मुझे मान्य है, ज्ञानी पुरुष ने उसमें आत्मा को प्रकट प्रतिपादित किया है ऐसी श्रद्धा रख कर कमर कसकर, पुरुषार्थ कर्त्तव्य है / अधिक क्या लिखें ? पुरुषार्थ किए बिना कुछ सम्भव नहीं होता / इस लिए ऊबना नहीं, भूले वहां से फिरसे गिनना / ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः / " - प्रभुश्री लघुराजजी : “उपदेशामृत' पृ. 102 * अब यहाँ इस सप्तभाषी आत्मसिद्धि द्वारा और भाषाओं में भी उपलब्ध / Jina Bharati Vardhaman Bharati International Foundation Prabhat Complex, K. G. Road, Bangalore 560 009 0-9 ISBN No.81-901341-0-9 JainEducation International 2010-04