Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ वैदिक वाङ् मय के अभिमत पर एक दृष्टि " संस्कृति के दो प्रवाह डा० लक्ष्मणशास्त्री ने कर्म विपाक, संसार का बंधन और मोक्ष या मुक्ति- इन तीनों कल्पनाओं को वैदिक मानकर जैन और बौद्धों को वैदिकसंस्कृति की शाखा मानने का साहस किया, किन्तु सच तो यह है कि कर्मबन्धन और मुक्ति की कल्पना सर्वथा अवैदिक है । उपनिषदों के ऋषि श्रमण संस्कृति से कितने प्रभावित थे या वे स्वयं श्रमण ही थे, इस पर हमें आगे विचार करना है । जैन धर्म वैदिक धर्म के क्रियाकाण्डों के प्रति विद्रोह करने के लिए समुत्पन्न धर्म नहीं है और आर्य-धर्म के पुनरुद्धार के रूप में भी उसका उदय नहीं हुआ है । ये सारी धारणाएं सामयिक दृष्टिकोण से बनी हुई हैं । सच तो यह है कि श्रमण और वैदिक- दोनों परम्पराएं स्वतंत्र रूप से उद्भुत हैं । दोनों एक साथ रहने के कारण एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं, इसीलिए किसी ने यह कल्पना की कि श्रमण परम्परा वैदिक परम्परा से उद्भूत है और किसी ने यह कल्पना की कि वैदिक परम्परा श्रमण परम्परा से उद्भुत है । किन्तु ये दोनों परिकल्पनाएं वस्तु-स्थिति से दूर हैं । जैन और बौद्ध श्रमण परम्परा में अनेक सम्प्रदाय थे, किन्तु काल के अविरल प्रवाह में जैन और बौद्ध - ये दो बचे, शेष सब विलीन हो गए कुछ मिट गए, कुछ जैन परम्परा में मिल गए और कुछ वैदिक परम्परा में सिमट गए । दो शताब्दी पूर्व जब पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय इतिहास की खोज प्रारम्भ की तो उन्होंने बौद्ध और जैन परम्परा में अपूर्व साम्य पाया । बौद्ध धर्म अनेक देशों में फैला हुआ था । उसका साहित्य सुलभ था । विद्वानों ने उसका अध्ययन शुरू किया और बौद्ध दर्शन पर प्रचुर मात्रा में लिखा । जैन धर्म उस समय भारत से बाहर कहीं भी प्राप्त नहीं था । उसका साहित्य भी दुर्लभ था । उसका अध्ययन पर्याप्त रूप से नहीं किया जा सका। एक सीमित अध्ययन के आधार पर कुछ पश्चिमी विद्वान् त्रुटिपूर्ण faonर्षो पर पहुंचे । बुद्ध और महावीर के जीवन-दर्शन की समानता देखकर कुछ विद्व न् मानने लगे कि बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति हैं । प्रो० वेबर ने उक्त मान्यता का खण्डन किया किन्तु वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जैन धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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