Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ प्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्य ही शाखाएं हैं। यद्यपि सामान्य मनुष्य इन्हें वैदिक नहीं मानता। सामान्य मनुष्य की इस भ्रान्त धारणा का कारण है मूलतः इन शाखाओं के वेदविरोध की कल्पना। सच तो यह है कि जैनों और बौद्धों की तीनों अन्तिम कल्पनाएं-कर्म-विपाक, संसार का बन्धन और मोक्ष या मुक्तिअन्ततोगत्वा वैदिक ही हैं।" उन्होंने आगे लिखा है-'जैन तथा बौद्ध धर्म वेदान्त की यानी उपनिषदों की विचारधाराओं के विकसित रूप हैं।'' कविवर दिनकर ने लिखा है- 'वैदिक धर्म पूर्ण नहीं है, इसका प्रमाण उपनिषदों में ही मिलने लगा था और यद्यपि वैदिकों की प्रामाणिकता में उपनिषदों ने संदेह नहीं किया, किन्तु वैदिक धर्म के काम्य स्वर्ग को अयथेष्ट बताकर वेदों की एक प्रकार की आलोचना उपनिषदों ने ही शुरू कर दी थी। वेद सबसे अधिक महत्त्व यज्ञ को देते थे। यज्ञों की प्रधानता के कारण समाज में ब्राह्मणों का स्थान बहुत प्रमुख हो गया था। इन सारी बातों की समाज में आलोचना चलने लगी और लोगों को यह संदेह होने लगा कि मनुष्य और उसकी मुक्ति के बीच में ब्राह्मण का आना सचमुच ही ठीक नहीं है। आलोचना की इस प्रवृत्ति ने बढ़ते-बढ़ते, आखिर ईसा से ६०० वर्ष पूर्व तक आकर वैदिक धर्म के खिलाफ खुले विद्रोह को जन्म दिया जिसका सुसंगठित रूप जैन और बौद्ध धर्मों में प्रगट हुआ।" __ डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने जैन और बौद्ध धर्म का नई धार्मिक सुधारणा के रूप में अंकन किया है। उनके शब्दों में-'इस नई धार्मिक सुधारणा ने यज्ञों के रूढिवाद व समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाकर प्राचीन आर्यधर्म का पुनरुद्धार करने का प्रयत्न किया।" भमण साहित्य के अभिमत पर एक दृष्टि नियुक्ति तथा पुराण ग्रन्थों में ब्राह्मण और वेदों की उत्पत्ति जैनस्रोत से बतलाई गई है। आवश्यकनियुक्ति की व्याख्या को हम एक रूपक मानें तो उसका अर्थ जैन परम्परा का वैदिक परम्परा के साथ सामंजस्य स्थापित करना होगा और यदि उसे यथार्थ मानें तो उसका अर्थ यह होगा कि जैन परम्परा में भी ब्राह्मण, वेद और यज्ञोपवीत का स्थान रहा है। १. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १५ । २. वही, पृ० १६ । ३. संस्कृति के चार अध्याय (द्वितीय संस्करण), पृ० १०२ । ४. पाटलीपुत्र की कथा पृ. ६७-६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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