Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 7
________________ ( ३ ) व्याकरणशास्त्र के अर्थपक्षीय विवेचन का आधार है अर्थ को व्यक्त ( स्फुरित) करनेवाला स्फोटात्मक शब्द | यह परमार्थतः अखण्ड वाक्य के रूप में रहने पर भी व्याकरण में विवेचित वर्णों और पदों के रूप में शास्त्र - दृष्टि से रह सकता है । इसीलिए वर्णरूप प्रत्ययों में भी अर्थ - बोधकता स्वीकार्य है । स्फोट की अपेक्षा रखते हुए ही शब्द की शक्ति, लक्षणा तथा व्यञ्जना – इन तीन वृत्तियों का विचार व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थों में हुआ है । इसी प्रकार स्त्रीप्रत्यय, लिङ्ग, वचन, पुरुष, तिङ्, सुप, कृत्, तद्धित, समास, कारक आदि तत्त्वों की शक्तियों का भी उपर्युक्त स्फोट के अर्न्तगत विचार किया गया है, क्योंकि इनमें भी अर्थबोध की शक्ति स्वीकृत है । इनके साथ ही कतिपय विशुद्ध दार्शनिक ( Metaphysical ) समस्याओं का भी अपनी विधि से व्याकरण में विवेचन होता है; जैसे - गुण, द्रव्य, जाति, दिक्, काल इत्यादि । इस प्रकार इन्हीं विषयों का संकलन करके व्याकरण-दर्शन का स्वरूप निर्धारित होता है, जिसे विद्वानों के समाज में 'अर्थपक्ष' का व्यपदेश मिलता है । व्याकरणशास्त्र के इन विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध समस्याओं का परिणाम निकलने में शताब्दियों का समय लगा है । पाणिनि से नागेशभट्ट तक के सभी विचारक अपने-अपने ढंग से इन प्रश्नों का समाधान तथा विश्लेषण करते आये हैं । जहाँ तक शब्दपक्ष का सम्बद्ध है, पाणिनि - कात्यायन पतञ्जलि की त्रयी ने ही इसे पूर्ण कर दिया था । अतः परवर्ती विकास इनकी व्याख्या का तथा मुख्य रूप से अर्थपक्ष के विश्लेषण का इतिहास है । इसमें प्रत्येक वैयाकरणदार्शनिक का महत्त्वपूर्ण योगदान है । नव्य-न्याय के आविर्भाव के बाद व्याकरण के इस क्षेत्र में भी चिन्तन की अभिनव प्रक्रिया तथा अभिव्यञ्जना का प्रवेश हुआ । इसके फलस्वरूप व्याकरण विषयों के प्रतिपादन में क्रमशः दुरूहता तथा सूक्ष्मता आती गयी । इस प्रकार सम्पूर्ण व्याकरण शास्त्र का इतिहास एक-एक समस्या का शब्द - पक्षीय, अर्थ- पक्षीय तथा चिन्तन-प्रक्रियात्मक विचार का क्रमिक विकास प्रस्तुत करता है, जिसका अध्ययन भारतीय प्रज्ञा के विकास का रोचक परिचय देता है । आधुनिक युग में ज्ञान की प्रत्येक शाखा का पुनर्मूल्यांकन करते हुए विभिन्न विषयों के अध्ययन किये जा रहे हैं । पाश्चात्य देशों से समागत ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक दृष्टि का उपयोग करके भारतीय शास्त्रों को आधुनिक पाठक तक पहुँचाने में देशी-विदेशी विद्वानों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण I १. 'तत्र वर्णपदवाक्यभेदेन स्फोट स्त्रिधा । तत्रापि जातिव्यक्तिभेदेन पुनः षोढा । अखण्डपदस्फोटोऽखण्डवाक्यस्फोटश्चेति सङ्कलनयाष्टौ स्फोटाः । तत्र वाक्यस्फोटो मुख्यः । तस्यैव लोकेऽर्थबोधकत्वात्तेनैवार्थसमाप्तेश्च' । - प० ल० म० का आरम्भ

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