Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 5
________________ भूमिका प्रत्यक्षादि प्रमाणों के अन्तर्गत शब्द-प्रमाण को मनीषियों ने बहुत महत्त्व दिया है । व्याकरण तथा मीमांसा-दर्शन में तो इसे प्रमाण-शिरोमणि ही माना गया है, क्योंकि दोनों प्रधानतया इसी आप्तोपदेश रूप शब्द का अपने-अपने ढंग से विवेचन करते हैं । आप्त वह व्यक्ति है जो लोकानुग्रह की कामना से यथादृष्ट पदार्थ का व्याकृत ध्वनि द्वारा उल्लेख करता है । संसार के सभी मनुष्य अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग करते हुए उपर्युक्त लक्षण के अनुसार आप्त हो सकते हैं । तदनुसार इस शब्द-प्रमाण से लोक के सभी व्यवहार प्रवृत्त होते हैं । पदार्थ इन्द्रियों से सम्बद्ध हों या असम्बद्ध-उनका बोध शब्द-प्रयोग के द्वारा कराया जा सकता है । यही आगम या शब्द-प्रमाण का उद्देश्य है । शब्दनिर्देश में भाषा के अन्यतम अंग वाक्य का आश्रय लिया जाता है, जिसका बोध ( शाब्दबोध ) हो जाना शब्दप्रमाण का फल है। वैयाकरणों के भाषाविश्लेषण के अनुसार आकांक्षा, योग्यता तथा सन्निधि से युक्त पदों के समूह को वाक्य कहते हैं । ये पद पदार्थ के बोधक होते हैं और पदों की इसी बोधिका शक्ति के कारण उनका परस्पर अन्वय होता है। शाब्दबोध में एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से संसृष्ट होकर समन्वित बोध कराता है । दार्शनिक दृष्टि से केवल अखण्ड वाक्य-मात्र ही व्यवहारोपयोगी तथा सत्य भी है। किन्तु शब्दशास्त्र, भाषाबोध के उपाय के रूप में प्रकल्पित होकर अखण्ड वाक्य का विभाजन पदों में तथा पदों का वर्णों में करता है । यह सत्य है कि परमार्थतः यह विभाजन कृत्रिम तथा कल्पना-प्रसूत है तथापि इसी के मानदण्ड पर शिष्टों के प्रयोग परखे जाते हैं । वर्ण, पद तथा वाक्य इन तीनों का महत्त्व किसी शब्दशास्त्री के लिए उतना ही है, जितना जीवित शरीर के लिए प्राणों का। किन्तु आरम्भ में शब्दशास्त्र का क्षेत्र इतना व्यापक नहीं था। वर्ण का विचार शिक्षा नामक वेदाङ्ग का विषय था। पद-साधुत्व का विचार व्याकरण १. द्रष्टव्य-न्यायवार्तिक, १।१७। २. 'पदज्ञानं तु करणं द्वारं तत्र पदार्थधीः । शाब्दबोधः फलं तत्र शक्तिधी: सहकारिणी' ।—भाषापरि०, का० ८१ ३. 'शाब्दबोधे चैकपदार्थेऽपरपदार्थः संसर्गतया भासते'। -व्यु० वा०, पृ० १ ४. 'पदे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्ववयवा न च । वाक्यात्पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कश्चन' ॥ -वा०प०, १७३

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