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१. जिनवल्लभ आसिका दुर्गनिवासी चैत्यवासी श्रीजिनेश्वराचार्य के शिष्य थे।
२. श्रीअभयदेवाचार्य के पास सिद्धान्तों के अध्ययन के लिये वे गये थे, और पीछे से आचार्यश्री के पास ही उपसम्पदा ग्रहण की थी, अर्थात् अभयदेव के ही शिष्य बने थे।
३. श्रीदेवभद्राचार्यने ही इन को अभयदेवाचार्य के पट्ट पर स्थापित किया था।
अन्तरङ्ग प्रमाणों में स्वचित (जिनवल्लभरचित) 'प्रश्नोत्तरैकषष्ठिशतक काव्य' जो उपसम्पदा से पूर्व ही रचा गया था, उसमें वे श्रीजिनेश्वराचार्य को 'मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः' सम्बोधन से और आचार्य श्रीअभयदेव को 'सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुताः विश्रुताः श्रीमदभयदेवाचार्याः' सम्बोधन से व्यक्त करते हैं। इस से यह तो निश्चित हो ही जाता है कि, जिनेश्वराचार्य इनके मूल दीक्षागुरु थे, और सैद्धान्तिक (विद्यागुरु) गुरु थे आचार्य अभयदेव।
(२) इन्हीं श्रीजिनवल्लभगणिरचित सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण (सार्द्धशतक) पर बृहद्गच्छीय श्रीधनेश्वराचार्य ने सं. ११७१ में टीका की रचना की है। उसमें १५२ वें पद्य की व्याख्या करते वे लिखते हैं कि
"जिणवल्लहगणित्ति" जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसङ्ग्राहिस्थानाङ्गागोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण लिखितं कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्रेभ्यः समुद्धृत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम् ।
___ इन प्रमाणों से यह स्पष्ट प्रतीत है कि, 'जिनवल्लभगणि नवाङ्गीवृत्तिकारक आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे।' __तदुपरान्त सुविहितपक्षीय जिनेश्वराचार्य के पट्टधर आचार्यप्रवर श्रीजिनचन्द्रसूरि रचित संवेगरंगशाला को पुष्पिका "इति श्रीमज्जिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेय श्रीप्रसन्नचन्द्रसूरि समभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणि(ना) प्रतिसंस्कृता, जिनवल्लभगणिना च संवेगरङ्गशालाऽऽराधना समाप्ता" । से यह नूतनवस्तु प्रकाश में आती है कि-गुणचन्द्र गणि जो आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए, उनने संवेगरंगशाला जिसकी रचना ११२५ में हुई थी-उसका संस्कार किया और श्रीजिनवल्लभ गणिने उसका संशोधन किया। इस से भी यही सिद्ध होता है कि, वि. सं. ११२५ के पूर्व ही श्रीजिनवल्लभ ने अभयदेवाचार्य के पास उपसम्पदा ग्रहण कर ली थी।
१. "कः स्यादम्भसि वारिवायसवति ? क्व द्वीपिनं हन्त्ययं ?,
लोक:(क) प्राह हयः प्रयोगनिपुणैः कः शब्दधातुः स्मृतः ? ।
ब्रूते पालयिताऽत्र ? दुर्धरतरः क्व क्षुभ्यतोऽम्भोनिधेः ?, . . ब्रूहि श्रीजिनवल्लभस्तुतिपदं कीदृग्विधाः के सताम् ?" ॥१५९॥ "मद्गुरवो 'जिनेश्वरसूरयः"
२. 'पाके धातुरवाधिकः ? क्व भवतो भीरो: मनः प्रीतये ?, सालङ्कारविदग्धया वद कया रज्यन्ति विद्वज्जनाः ? । पाणौ कि मुरजिद्विभर्ति ? भुवि तं ध्यायन्ति वा के सदा ?, के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुताः विश्रुताः ? ॥१५८॥ "श्रीमदभयदेवाचार्यः"
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