Book Title: Samudrik Shastram
Author(s): Mansukhlal Hiralal
Publisher: Hiralal Hansraj Shravak

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Page 32
________________ ( () विजानीया । रत्नराज्यप्रदायकं ॥ ८० ॥ अंगु टाग्रे च या याति । ब्रूते नृपतिमुत्तमा । सा च तर्जनिकाप्राप्ता । राज्यं साम्राज्यमुत्तमं ॥ ॥ ८१ ॥ सैन्याधिप्यं धनेशत्वं । मध्यमांगुलि. गा तथा ॥ यनामिकां पुनः प्राप्ता । धनवंतं समादिशेत् || २ || ऊर्ध्वरेखा करे यस्य । वयांगुलितया खड्ड || नानासुखममासीनः । ते रत्नाने राज्य देनारो सुट थाय वे. ॥ ॥ ८० ॥ वळी ते अंगुसुत्री जनी होय तो राज्य, छाने तर्जनिकासुधी जनी होय तो साम्राज्य मले बे. ॥ ८१ ॥ वचखीसुत्री जनी हो. य तो सेनापति ने धनवान, तथा छानामिकासुधी जती होय तो पण धनवान थाय बे ॥ ८२ ॥ जेना दाथनी त्रणे यांगळीमांथी ऊर्ध्वरेखा निकळती दोय ते नानाप्रकारमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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