Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ [समराइन्धकहा कुछ आगे बढ़ा हुआ दिखाई देता है। इनमें ऐतिहासिक, अर्द्धऐतिहासिक, धार्मिक, लौकिक आदि कई प्रकार की कथाएँ उपलब्ध हैं। __ कथाओं के भेद -प्राकृत कथाओं के लेखकों ने विभिन्न प्रकार से कथाओं का वर्गीकरण किया है, जिनमें विषय, पात्र, भाषा और स्थापत्य के आधार पर किये गये वर्गीकरण मूख्य हैं। विषय के आधार पर आचार्य हरिभद्र ने कथाओं को चार भागों में विभाजित किया है (१) अर्थकथा, (२) कामकथा, (३) धर्मकथा और (४) संकीर्ण कथा ।' दशवकालिक में संकीर्ण कथा को मिश्रित कथा कहा गया है। पात्रों के आधार पर कथाएँ तीन भागों में विभाजित हैं-१. दिव्य, २. मानुष, ३. दिव्यमानुष । भाषा के आधार पर कथाएँ तीन प्रकार की होती हैं-(१) संस्कृत, (२) प्राकृत और (३) मिश्र। स्थापत्य के आधार पर उद्योतन सूरि ने कथाओं के पाँच भेद किये हैं१. सकलकथा, २. खण्डकथा, ३. उल्लापकथा, ४. परिहासकथा और ५. संकीर्णकथा। सकलकथा. जिसके अन्त में समस्त फलों-अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाय, ऐसी घटना का वर्णन सकलकथा में होता है । सकलकथा की शैली महाकाव्य की होती है । श्रृंगार, वीर और शान्त रसों में से किसी एक रस का प्राधान्य रहता है । यद्यपि अंग रूप में सभी रस निरूपित रहते हैं । नायक कोई अत्यन्त पुण्यात्मा, सहनशील और आदर्श चरित वाला व्यक्ति होता है । इसमें नायक के साथ प्रतिनायक का भी नियोजन रहता है तथा प्रतिनायक अपने क्रियाकलापों से सर्वदा नायक को कष्ट देता है । जन्मजन्मान्तर के संस्कार अत्यन्त सशक्त होते हैं। खण्डकथा--जिसका मुख्य इतिवृत्त रचना के मध्य में या अन्त के समीप में लिखा जाय, उसे खण्डकथा कहते हैं । खण्डकथा की कथावस्तु छोटी होती है। उसमें जीवन का लघु चित्र ही उपस्थित किया जाता है। उल्लापकथा-ये एक प्रकार की साहसिक कथाएं हैं, जिसमें समद्र-यात्रा या साहसपूर्वक किये गये कार्यों का निरूपण रहता है । इनमें असम्भव पौर दुर्घट कार्यों की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। उल्लापकथा का उद्देश्य नायक के महत्त्वपूर्ण कार्यों को उपस्थित कर पाठक को नायक के चरित्र की ओर इसकी शैली वैदर्भी रहती है। छोटी-छोटी ललित पदावली में कथा लिखी जाती है। परिहासकथा-यह हास्य-व्यंग्यात्मकता का सृजन करने में सहायक होती है। . संकीर्णकथा-इन कथाओं की शैली वैदर्भी होती है। इनमें अनेक तत्त्वों का मिश्रण होने से जनमानस को अनुरंजित करने की अधिक क्षमता होती है। रोमाण्टिक धर्मकथाएँ तथा प्रबन्धात्मक चरित इसी श्रेणी में आते हैं। यह कथा गद्य-पद्यमिश्रित शैली में ही लिखी जाती है। उपदेश को मध्य में इस १. 'एत्थ सामन्नमो चत्तारि कहाओ हवन्ति । तं जहा-अस्थकहा, कामकहा, धम्मकहा, संकिपण कहा य ।' समराइचवकहा, २. 'तस्य 'य निविहं कथावत्यु' इति पुवायरियावामी। तं जहा --दिवं, दिश्वमाणुसं, माणुसं च ।' वही, पृ. २. ३. अण्णं सक्कयपायय-संकिण्ण विहा सुवणा रइयाओ। सुव्वं ति महाकइ पुगवेहि विविहाउ सुकहाओ ॥३६॥--लीलावई ४, तं जहा-सयलकहा. खण्डकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा तहावरा कहियत्ति संकिण्णकात्ति। वलयमाला.प. ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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