Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य स एव = वही सम्मेदाचल का वृत्तान्त, भूयः = पुनः, धीमता लोहाचार्येण = बुद्धिमान् लोहाचार्य द्वारा, (भाषितः = कह गया), तत्सद्वाक्यानुसारेण = उनके ही सद्वाक्यों के अनुसरण से, देवदसारख्यसत्कविः = देवदत्त नाम का यह सत्कवि, अधुना = अब, सम्मेदशैलमाहात्म्यं = सम्मेदाचल अर्थात् सम्मेदशिखर पर्वत के महत्त्व को, प्रकटीकुरूते = प्रकट करता
है।
श्लोकार्थ - इस काव्य की प्रामाणिकता के लिये कवि कह रहा है कि
तीर्थङ्कर महावीर ने गौतमगणधर के सम्मुख सम्मेदशिखर का वृत्तान्त कहा था। उसे ही फिर से बुद्धिसम्पन्न अष्टम. नवम और दशम अङ्गधारी आचार्यों में एक आचार्य लोहाचार्य ने कहा। जिनके सद्वाक्यों के अनुसार अपनी बुद्धि व्यवस्थित कर देवदत्त नाम का यह सत्कवि सम्मेदशैल अर्थात्
सम्मे नाशिकार की हिम्मा को हर हाल में प्रगट कर रहा है। तत्रोत्तमे शैलवरे कूटानां विंशतिरा ।
तत्रस्थान्सर्वदा वन्दे तत्प्रमाणाजिनेश्वरान् ।।८।। अन्ययार्थ - तत्र = वहाँ सिद्धक्षेत्रों में, उत्तमे शैलवरे = उत्तम श्रेष्ठ पर्वत
पर, कूटानां विंशतिः = शिखरों की (संख्या) बीस, वरा = श्रेयस्कर, (विद्यते = है), तत्रस्थान् = उन कूटों पर स्थित. तत्प्रमाणान् = उसी प्रमाण वाले अर्थात् बीस, जिनेश्वरान - जिनेश्वरों-तीर्थङ्करों को. (अहं = मैं), सर्वदा = हमेशा, वन्दे
= प्रणाम करता हूं। श्लोकार्थ - सिद्ध क्षेत्रों में सर्वोत्तम श्रेष्ठ पर्वत सम्मेदशिखर पर श्रेयस्कर
बीस फूट हैं जिन पर अर्थात् बीसों कूटों पर बीस तीर्थकर के चरण चिह्न हैं कवि कहता है कि मैं उन तीर्थकरों को हमेशा हर क्षण नमस्कार करता हूं। अजितादिमहासिद्धतीर्थकृविंशतिं हृदि । ध्यात्या पृथक्पृथग्वक्ष्ये कूटनामान्यनुक्रमात् ।।६।।