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सागरमल जैन
SAMBODHI
लिखी है । अभयदेव की इन रचनाओं का काल विक्रम संवत् ११२० से वि.सं. ११३५ के मध्य है। आगमिक व्याख्याकारों में इसके पश्चात् आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमीचंदसूरि हुए, उन्होंने भी १२वी शताब्दी के प्रारम्भ में उत्तराध्ययन सूत्र पर सुखबोधा नामक संस्कृत टीका लिखी थी । यद्यपि इसमें पूर्व विक्रम संवत १०९६ में वादिवेताल शांतिसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्र पर प्राकृत में एक टीका लिखी थी किन्तु प्राकृत में होने के कारण हम उसकी परिगणना प्रस्तुत संस्कृत टीकाओं में नहीं कर रहे हैं। इसके पश्चात् आगमिक टीकाकारों में मलयगिरि का नाम आता है। इन्होंने आवश्यकबृहद्वृत्ति, ओघनियुक्तिवृत्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्ति, जीवाभिगमवृत्ति, नन्दिसूत्रटीका, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, प्रज्ञापनावृत्ति, वृहद्कल्पभाष्य - पीठिकावृत्ति, भगवती द्वितीयशतकवृत्ति, राजप्रश्नीयवृत्ति, विशेषावश्यकवृत्ति, व्यवहारसूत्रटीका आदि टीका ग्रन्थ संस्कृत-भाषा में लिखे । इसके अतिरिक्त उन्हों ने अनेक आगमिक प्रकरणों एवं कर्मग्रन्थों पर भी संस्कृत में टीकाएँ लिखी । यथा – कर्मप्रकृतिटीका, पंचसंग्रहटीका, क्षेत्रसमासवृत्ति, षडशीतिवृत्ति, सप्ततिकाटीका आदि । इसके पश्चात् आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखने वालों में तिलकाचार्य का नाम आता है, उन्होंने जीतकल्पवृत्ति, आवश्यकनियुक्तिलघुवृत्ति, दशवैकालिकटीका, श्रावकप्रतिक्रमणलघुवृत्ति, पाक्षिकसूत्रअवचूरि आदि लिखी । इनका काल १३वी शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। इसके चार शताब्दि पश्चात् आगमिक व्याख्याकारों में उपाध्याय यशोविजयजी का क्रम आता है, इन्होंने अनेक आगमो पर टीकाएँ लिखी थी। किन्तु इनके काल के बाद में आगमों पर संस्कृत में टीका या वृत्ति लिखने के स्थान पर प्रायः लोकभाषा (मरुगुर्जर) में टब्बे लिखे जाने लगे थे, अतः संस्कृत लेखन का प्रचलन कम हो गया, फिर भी वर्तमान युग में पूज्य घासीलालजी म.सा. ने स्थानकवासी परम्परा में मान्य ३२ आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी है। तेरापंथ के आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी आचारांग भाष्य आदि कुछ भाष्य संस्कृत में लिखे है । आचार्य हस्तीमलजी ने दशवैकालिकसूत्र एवं नन्दीसूत्र पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी है। इसी प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ चन्द्रसूरि, कल्याणबोधि सूरि ने भी कल्पसूत्र एवं अन्य आगमों पर टीकाएं लिखी है। अतः आगमों पर संस्कृत में व्याख्या साहित्य लिखने की यह परम्परा वर्तमान युग तक भी जीवित रही है । जहाँ तक दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों का प्रश्न है, वे भी मूलतः प्राकृत भाषा में रचित है - षट्खण्डागम, कसायपाहुड, मूलाचार, भगवती आराधना, तिलोयपण्णत्ति, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, अष्टपाहुड आदि सभी मूलत: प्राकृत में निबद्ध है, किन्तु लगभग ६वी शताब्दी से इन पर जो टीकाएँ लिखी गई वे या तो संस्कृत प्राकृत मिश्रित भाषामें या फिर विशुद्ध संस्कृत में ही मिलती है । इनमें धवला, जय धवला, महाधवल आदि प्रसिद्ध है । किन्तु मूलाचार, भगवती आराधना, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार आदि की टीकाएँ तो संस्कृत में ही है। ये सभी ६वी शती से लेकर १५वी शती के मध्य की है। संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य
यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान से संबधित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत में ही निषद्ध है । तत्त्वज्ञान से संबधित प्रथम सूत्र ग्रन्थ की रचना उमास्वाति ने संस्कृत भाषा में ही की थी । उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक निकायों के सूत्र-ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे,