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126 नमिता कपूर .
: SAMBODHI को जगत् में विवर्तित होने वाला बताया गया हैं। शंकराचार्य के मतानुसार ब्रह्म निराकार है यद्यपि भ्रम के लिए साकार आश्रय की आवश्यकता होती है । भ्रम हमेशा समान धर्म वालों में होता है जैसे सीप में चाँदी की. भ्रांति का कारण उसकी चमक है अर्थात् चाँदी के समान सीपी में जब चमक दिखाई पड़ती है तो उससे ऐसा भ्रम होता है कि ये चाँदी है। यदि भ्रांति का कारण समान धर्म न होता तो हमें हाथी में सीपी का भ्रम क्यों नहीं होता ?
अद्वैत वेदान्त में जगत् को मायिक तथा गुणयुक्त कहा गया है किन्तु यह जिसमें भ्रमित हो रहा है वह माया रहित एवं निधर्मक है, यहाँ समानता का लेशमात्र अंशः भी नहीं है । भ्रम के लिए देखी गयी वस्तु का पूर्व में देखा जाना आवश्यक है। उदाहरणार्थ - रज्जु तथा सर्प दोनों को ही पूर्व में देखा गया है उनके समान धर्म के कारण हम रस्सी में सर्प की कल्पना कर लेते हैं, इसी प्रकार दृश्यमान जगत् से पृथक् कोई सत्य जगत् देखा हो तो उसकी कल्पना इस जगत् के पीछे की जाए किन्तु इस जगत् के अतिरिक्त कोई सत्य देखा ही नहीं तो इसे असत्य कैसे माना जाए ? अद्वैत वेदान्ती शंकराचार्य स्वप्न के दृष्टान्त से भी जगत् को मिथ्या कहते हैं परन्तु शुद्धाद्वैतवादी वल्लभाचार्य इसे उचित नहीं मानते उसके अनुसार स्वप्न द्रष्टा को प्राप्त नहीं होता यद्यपि जगत् में किए गए पापपुण्य का फल सुख-दुःख रूप में जीव को प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त जागृत अवस्था में देखी-सुनी गयी जिन बातों का मनन होता है, उसी के सम्बन्ध में स्वप्न दिखता है अत: स्वप्न का कारण असत् कहा है ? वल्लभाचार्य के अनुसार ब्रह्म केवल विश्व का रचयिता नहीं वरन् विश्वरूप है । अत: जगत् भी अपने कारण के समान सत् है ब्रह्म लीला के लिए अपने सत् अंश से स्वयं जगत् रूप में प्रस्तुत होता है तथा जगत् के समान ही जीव भी ब्रह्म का ही परिणाम है किन्तु वहाँ ब्रह्म के सत् अंश के साथ चित् अंश भी उपस्थित रहता है। अत: ब्रह्म का परिणाम होने के कारण जगत् भी उतना ही सत् है जितना कि ब्रह्म ।
जगत् को ब्रह्म का परिणाम मानने में यह कठिनाई उपस्थित होती है कि ऐसी स्थिति में ब्रह्म 'विरुद्धधर्माश्रय' है परन्तु वल्लभाचार्य के अनुसार पर - ब्रह्म की यह विशेषता है कि उसमें
स्पर विरुद्ध धर्म साथ-साथ रहते हैं । जिस प्रकार ग्रीष्म शीत आदि अनेक विरोधी धर्मों का आश्रय आकाश है एवं जिस प्रकार शरीरस्थ अन्तःकरण दया, जघन्यता आदि अनेक विरोधी गुणों से युक्त है, उसी प्रकार ईश्वर में भी विरोधी धर्म स्थिर है ।१३ इस प्रकार 'विरुद्धधर्माश्रयी' होने के कारण ब्रह्म एक तथा अविकारी होते हुए भी जगत् और जीव के रूप में अनेकता को प्राप्त होता है ।
_आचार्य वल्लभ अद्वैत वेदान्त द्वारा किए गए जगत् मिथ्यात्व का खण्डन करते हैं तथा जगत् सतत्व का मंण्डन करते हुए जगत् और संसार में भेद का भी प्रतिपादन करते हैं । उनके अनुसार प्रपंच (जगत्) भवगत कार्य है एवं ब्रह्म की माया नामक शक्ति से बना है। इस माया की अविद्या नामक शक्ति के सहारे जीव-संसार का निर्माण करता है ।१४ परन्तु यहाँ वह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि माया भी ब्रह्म की शक्ति है और अविद्या भी तो मायाकृत प्रपंच ब्रह्मात्मक क्यों है और अविद्याकृत संसार ब्रह्मात्मक क्यों नहीं है ? इसका सम्भावित उत्तर कुछ इस प्रकार हो सकता है - जगत् का