________________
Vol. XXXV, 2012
परमसुख की साधनाः विपश्यना : कन्हैयालालजी लोढ़ा
185
चलकर सहज-समाधि की साधना का भी नाम दिया गया । इसी क्रम में दूसरी ओर जैन धर्म और बौद्ध धर्म में विपश्यना और प्रेक्षा की साधना पद्धतियों का विकास हुआ ।
बौद्ध और जैन इन दोनों धारणाओं में क्रमशः विपश्यना और प्रेक्षा की साधना पद्धतियाँ प्राचीनकाल में भी रही थी, आचारांग जैसे प्राचीनतम जैन आगम में तो विपश्यना और प्रेक्षा इन दोनों शब्दों के उल्लेख हैं । उसमें मात्र कमी यह है कि वह इनकी प्रक्रिया का उल्लेख नहीं करता हैं । आचारांग में त्राटक के भी उल्लेख हैं । प्राचीनस्तर के जैन आगमों में तथा बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के कुछ ग्रन्थों में इसके भी संकेत मिलते हैं, जो इसकी प्राचीनता के प्रमाण हैं । किन्तु साधना की यह पद्धति गुरु-शिष्य परम्परा से ही चलती रही । क्योंकि इस साधना में करना कुछ भी नहीं होता है, मात्र दृष्टा बन करके देखना होता है। इसीलिए इस साधना पद्धति की प्रक्रिया के विवरणात्मक ग्रन्थों का अभाव ही रहा, किन्तु गुरु-शिष्य परम्परा से ही यह पद्धति जीवित रही ।
आज यह कहना तो कठिन है कि विपश्यना या प्रेक्षा की यह साधना पद्धति कब अस्तित्व में आई । बुद्ध और महावीर ध्यान करते थे, किन्तु वे किसका ध्यान करते थे, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता हैं ।
बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में मात्र यह उल्लेख मिलता है कि भगवान बुद्ध ने प्रारंभिक अवस्था में रामपुत्त से ध्यान साधना सीखी थी । अतः साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर हम केवल यही कह सकते हैं, कि रामपुत्त की यह साक्षीभाव की साधना कालक्रम में बौद्ध परम्परा में विपश्यना के रूप में और जैन परम्परा में प्रेक्षा के रूप में अस्तित्व में आयी । ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान बुद्ध ने रामपुत्त से इस साधना को सीखकर उसे बौद्ध परम्परा में जीवित रखा था । यद्यपि त्रिपिटक साहित्य में इस साधना के विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होते हैं, किन्तु भारत से बाहर बर्मा (ब्रह्मदेश) में यह साधना जीवित रही और पूज्य श्री सत्यनारायणजी गोयनका वहाँ से इसे पुनः भारत लाए।
इस साधना के प्रवर्तक कौन थे ? यह बताना तो कठिन है, किन्तु रामपुत्त के उल्लेख जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं । जैन परम्परा में रामपुत्त का एक अध्ययन ऋषिभाषित में आज भी उपलब्ध है । इसके अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी इनके नाम का निर्देश है। अन्तकृतदृशा की प्राचीन विषय वस्तु में भी रामपुत्त का एक अध्ययन था, इसका उल्लेख स्थानांग सूत्र में मिलता है । इसी प्रकार बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी रामपुत्त के उल्लेख हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि बुद्ध और महावीर से पूर्व भी साक्षीभाव, विपश्यना और प्रेक्षा की यह साधना पद्धति जीवित थी । यह तो स्पष्ट है कि विपश्यना की यह साधना पद्धति बुद्ध से पूर्व की है । विपश्यना जैसे कि उसके नाम से ही स्पष्ट है कि वह दृष्टाभाव की साधना है। प्रेक्षा या साक्षीभाव की साधना को भी इसी का एक रूप माना जा सकता है ।
ज्ञातादृष्टापना आत्मा या चित्त-सत्ता का स्वभाव है यदि व्यक्ति की चेतना दृष्टाभाव में अवस्थित रहे, तो उसके दो परिणाम मिल सकते हैं । प्रथम तो यह कि चित्त के विकल्प समाप्त हो जाते