Book Title: Sambodhi 2012 Vol 35
Author(s): J B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 194
________________ 184 ग्रंथ समीक्षा SAMBODHI ने धर्ममेध पारमिता तथा पातंजलयोग एवं जैनाचार्य हरिभद्र ने धर्ममेधसमाधि कहा है। तब निर्विकल्पबोध होता है एवं साधक निर्वाण का अधिकारी होता है । निर्विकल्प बोध तो केवल विवेकशील और आत्म सजग मानव में ही सम्भव हैं । इसलिए ध्यान या विपश्यना की साधना भी उसी के द्वारा संभव है और वही निर्वाण का अधिकारी होता है । निर्वाण या मोक्ष निर्विकल्प स्थिति नहीं, निर्विकल्प बोध है । साधना की दृष्टि से निर्विकल्प स्थिति में विकार नहीं, निर्विकल्प बोध है । साधना की दृष्टि से निर्विकल्प स्थिति में विकार दबता है, मिटता नहीं हैं। इसी बात को जैन-परम्परा में उपशमश्रेणी कहा गया है । निर्विकल्प बोध वस्तुतः आत्मसजगता या अप्रमत्तता की स्थिति है । इसमें चेतना लुप्त नहीं होती, अपितु सजग बनी रहती है। निर्विकल्प-स्थिति सदैव नहीं रहती, वह नियमतः अल्पकालिक ही है, किन्तु निर्विकल्प बोध में समस्त कर्म-संस्कार (विकार) क्षय हो जाते हैं । इसे जैन दर्शन में क्षपकश्रेणी कहा है । इससे कैवल्य की उपलब्धि होती है, जो सदा बनी रहती है । निर्विकल्प स्थिति सदैव नहीं रहती वह नियमतः होती तो अल्पकालिक ही है, किन्तु निर्विकल्प-बोध तो दीर्घकालीन भी हो सकता है । आध्यात्मिक विकास निर्विकल्प स्थिति से नहीं, निर्विकल्प बोध से होता है । यह निर्विकल्प बोध कैसे उपलब्ध हो ? यही समग्र भारतीय साधना-पद्धतियों का लक्ष्य रहा है और इसकी उपलब्धि के लिए विभिन्न प्रकार की ध्यान-साधना पद्धतियों का विकास हुआ है । कालान्तर में अनेक ध्यान-साधना पद्धतियाँ निर्विकल्प बोध की दिशा में अग्रसर तो हुई, किन्तु उनके द्वारा निर्विकल्प बोध की उपलब्धि तो दूर ही रही और वे निर्विकल्प स्थिति तक ही सिमट कर रह गई । तन्त्र, हठयोग और आधुनिक युग के रजनीश आदि की साधनाएँ भी निर्विकल्प स्थिति तक आकर ही रुक गयी । वस्तुतः जब ध्यान साधना के नाम पर चित्त को किसी एक ध्यातव्य या साध्य से बांध दिया जाता है, तो फिर निर्विकल्प-बोध सम्भव नहीं हो पाता है, जैन और बौद्ध परम्परा में यह माना गया है कि मोक्ष या निर्वाण की चाह भी मोक्ष या निर्वाण के मार्ग में बाधक है, जैसे कोई पशु अधिक भागदौड़ करता है तो उसे नियंत्रित करने लिए उसे किसी खूटे से बाँध दिया जाता है । इसका परिणाम यह होता है कि विवशता कि स्थिति में उसकी चंचल प्रवृत्ति तो रुक जाती है, लेकिन उसका चंचलता का स्वभाव नहीं जाता । यही स्थिति हमारे मन या चेतना की भी है इसमे मन या चित्त जीवित रहता है, निरुद्ध या रूपान्तरित नहीं होता है । विभिन्न साधनापद्धतियों में मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए मंत्रजप, नामजप आदि को स्थान तो दिया किन्त वे मन की चंचल प्रवत्ति पर नियंत्रण पाने में सफल नहीं हो पाए । कछ समय के लिए विचार केन्द्रित तो हए, किन्तु स्थायी निर्विकल्प-बोध जैसी अवस्था उपलब्ध न हो पाई। प्राचीनकाल में ऐसी कुछ साधना-पद्धतियों का भी विकास हुआ था जो निर्विकल्प-स्थिति के स्थान पर निर्विकल्प-बोध की बात करती थी । ऐसी साधना-पद्धतियों में एक ओर 'औपनिषदिक ऋषि'- परम्परा सामने आई और उसने साक्षीभाव की साधना का विकास किया । इस साधना में करना कुछ भी नहीं होता है। यहाँ तक की अपने विकारों, विचारों और विकल्पों के प्रति भी दृष्टाभाव होता है । साधक सहज रूप से मात्र ज्ञाता-दृष्टा बन जाता हैं । साक्षीभाव की इसी साधना को आगे

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