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ग्रंथ समीक्षा
SAMBODHI
विपश्यना है और दुःख विमुक्ति और परम सुख की प्राप्ति का मार्ग है। क्योंकि तृष्णा स्वतः दुःख रूप है, क्योंकि वह चाह या तनाव रूप है, साथ ही वह दुःख का कारण भी है अतः परमसुख की प्राप्ति के लिए तृष्णा का उच्छेद आवश्यक है इसी बात को प. कन्हैयालालजी ने प्रस्तुत कृति के चतुर्थ विभाग 'दुःख समुदय' में विस्तार से समझाया हैं। वे लिखते हैं कि "वैषयिक सुख की कामना शेष नहीं रहने पर कुछ भी पाना और जानना शेष नहीं रहता और इस प्रकार कामना, ममता, अहंमता नहीं रहने पर निर्विकल्प बोध हो जाता है" । किसी कवि ने भी कहा है ।
चाह नहीं, चिन्ता नहीं, मनवा भया बैपरवाह !
जिसको कुछ नहीं चाहिए, वह शहंशाहों का शहंशाह ॥ विपश्यना की इस साधना का मूल लक्ष्य चित्त-विशुद्धि है । यह चेतना की विषय-विकल्पों से रहितता की स्थिति है । इससे चित्त शांत विकल्प रहित सुख की अनुभूति में लीन रहता है । बौद्ध परम्परा में विपश्यना की साधना के जिन अंगों का विवेचन है, उनमें मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार ब्रह्म-विहारों, दान; शील, शान्ति, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा इन छ: पारमिताओं की चर्चा की चर्चा है । इनके साथ ही ध्यान के पाँच अंगों का भी उल्लेख है – वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता या समाधि । विपश्यना का साधक इन चार ब्रह्म-विहारों, छ: पारमिताओं और पाँच ध्यानांगों से चेतना को विकार मुक्त करके परमसुख की अनुभूति करता है ।
वह परमसुख कैसे प्राप्त हो ? इसे स्पष्ट करते हुए पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा का कथन है कि कामनाओं के त्याग से निष्कामदशा प्राप्त होने पर, जो शान्ति मिलती है, वही अक्षय सुख है, क्योंकि वह दुःख का पूर्ण अभाव है, तथा पुनः कामना के उत्पन्न नहीं होने से वह सुख सदैव बना रहता है, क्षीण नहीं होता । इसी प्रकार ममता के त्याग से शरीर और संसार से संबंध विच्छेद हो जाने पर उस चेतिसक सुख में कोई बाधा नहीं रहती यह भवतृष्णा या रोग के समाप्त होने पर होता है । अहंकार या मोह के त्याग से द्वेष का उपशमन हो जाता है, मेरे और पराये का भाव समाप्त हो जाता है । इससे जो शान्ति मिलती है वह निरन्तर बनी रहती है । विपश्यना की साधना में व्यक्ति अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की कामना, प्राप्त वस्तु के प्रति ममत्व तथा उसकी प्राप्ति में बाधक तत्त्वों के प्रति विद्वेष का भाव समाप्त हो जाता है और इसलिए विपश्यना को परमसुख कहा गया है । अत: पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा कृत इस पुस्तक का यह नामकरण समुचित ही प्रतीत होता है ।
____ इस परमसुख की प्राप्ति के लिए विपश्यना की साधना कैसे की जाय इसे स्पष्ट करते हुए उसके निम्न पाँच अंग बतलाये गये हैं - १ अनापानसति अर्थात श्वासोच्छवास की स्मृति या उसके प्रति सजगता, यह विपश्यना की प्रथम भूमिका है। इसमें चित्तवृत्ति की एकाग्रता एवं सजगता का अभ्यास होने से विकल्प समाप्त होने लगते हैं । उसके पश्चात काय-विपश्यना का क्रम आता है। काय-विपश्यना में शरीर के भीतर क्या घटनाएँ घटित हो रही हैं, उन्हें सजगतापूर्वक देखा जाता है । इससे शरीर से संबधित मोह छूट जाता है। अन्य दर्शनों के सन्दर्भ में कहें तो आत्म-अनात्म का विवेक जाग्रत हो जाता है। तीसरे क्रम पर वेदना-विपश्यना होती है । यहाँ संवेदनाएँ क्षणिक