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Vol. XXXV, 2012 अद्वैत वेदान्त एवं शुद्धादैत में तत्त्वमीमांसा : एक दृष्टि
125 किया गया है परन्तु दोनों मतों की ब्रह्म सम्बन्धी विचारधारा में पर्याप्त अन्तर है । अद्वैत वेदान्त के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है एवं शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म सगुण और पुरुषोत्तम रूप है । अद्वैत वेदान्त में सगुण ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार तो किया गया है किन्तु व्यावहारिक सत्ता को पारमार्थिक स्तर पर निर्गुण ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है ।
शंकराचार्य एवं वल्लभाचार्य दोनों ही अद्वैत मत को स्वीकार करते हैं, शंकराचार्य का सिद्धान्त केवलाद्वैत तथा वल्लभाचार्य का सिद्धान्त शुद्धाद्वैत कहलाता है । केवलाद्वैतवादियों के मतानुसार केवल अद्वैत ब्रह्म ही परमार्थतः सत् है, जगत् की सत्ता व्यावहारिक दृष्टि से तो सत् है परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से मिथ्या है । शांकर दर्शन में जगत् की सत्ता मायिक होने के कारण मिथ्या है क्योंकि माया स्वयमेव मिथ्या है। शुद्धाद्वैतवादियों का मत केवलाद्वैत के उक्त सिद्धान्त के विपरीत है । केवलाद्वैत पर आक्षेप करते हुए शुद्धाद्वैतवादी आचार्य वल्लभ का कथन है कि ब्रह्म के अतिरिक्त माया की सत्ता स्वीकार करके मायिक जगत् की सत्ता सिद्ध करना शुद्ध अद्वैत में बाधा उत्पन्न करना है । अद्वैत वेदान्त में माया को ईश्वर की शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है तथा शुद्धाद्वैत वेदान्त में भी माया का उल्लेख ब्रह्म की अभिन्न शक्ति के रूप में किया गया है । परन्तु दोनों की माया शक्ति में पर्याप्त अन्तर है । अद्वैत वेदान्त की माया शक्ति अविद्यात्मक तथा मिथ्या है तथा शुद्धाद्वैत मत में माया शक्ति मिथ्या न होकर पारमार्थिक सत् है । शुद्धाद्वैत मत के विपरीत अद्वैतमत की माया मिथ्यात्व अनिर्वचनीयता पर आधारित है । परमार्थ सत् एवं अलीक असत् से विलक्षण होने के कारण अद्वैत मत में माया को अनिर्वचनीय कहा है ।
शुद्धाद्वैत एवं अद्वैत वेदान्त के जीव सम्बन्धी सिद्धान्त में भी पर्याप्त भेद है । शुद्धाद्वैतवादियों के मतानुसार जीव और ब्रह्म में अशांशिभाव है तथा अंशाशिभाव होने के कारण दोनों में अभेद हैं।' इसके विपरीत अद्वैत वेदान्त में जीव स्वरूपतः ब्रह्म ही है। अद्वैत मत में जीव की सत्ता अविधोपाधिक होने के कारण मिथ्या है परन्तु शुद्धाद्वैतवादी वल्लभाचार्य के अनुसार जीव मिथ्या न होकर ब्रह्म के ही समान सत् है ।
अद्वैत वेदान्ती आचार्य शंकर एवं शुद्धाद्वैतवादी आचार्य वल्लभ दोनों ही सत्कार्यवादी हैं । दोनों के ही अनुसार इस जगत् का कारण कोई चेतन सत्ता ही हो सकती है । इस प्रकार दोनों मत सांख्य के प्रकृति परिणामवाद का खण्डन करते हुए चेतन सत्ता ब्रह्म को स्वीकार करते हैं । ब्रह्म के अविकृत रहते हुए जगत् रूप में परिणाम को प्राप्त होना, स्वीकार करने के कारण वल्लभाचार्य का सिद्धान्त 'अविकृतपरिणामवाद' कहलाया । दूध का दधि में परिणाम 'विकृतपरिणाम' है क्योंकि दधि को पुनः हम दूध रूप में प्राप्त नहीं कर सकते परन्तु स्वर्ण के विभिन्न आभूषण बनाने पर भी स्वर्ण विकृत नहीं होता उसे पुनः स्वर्ण रूप में प्राप्त कर सकते हैं । वल्लभाचार्य के अनुसार स्वर्ण के समान अविकृत रहकर ब्रह्म जगत् आदि रूपों में परिणित होता है । इस प्रकार कारण के कार्य रूप में अविकृत रहने के कारण यह परिणामवाद अविकृतपरिणाम कहलाया । शंकराचार्य का कार्य कारण सिद्धान्त विवर्तवाद कहलाया। विवर्तवाद की प्रस्तुति में रज्जु में सर्प के समान ब्रह्म