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Vol. XXXV, 2012 संस्कृत भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में जैन श्रमण परम्परा का अवदान 117 के कुछ ग्रन्थों का भी संस्कृत में प्रणयन किया। उनके पश्चात् विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिक नाम से तत्त्वार्थसूत्र की टीका संस्कृत श्लोकों में लिखी । इसके अतिरिक्त ८वी और ९वी शताब्दी में जैनन्याय पर जो भी ग्रन्थ लिखे गये, वे प्रायः सब संस्कृत भाषा में ही लिखे गये, जैन आचार्यों ने निम्न विषयों पर संस्कृत भाषा में अपने ग्रन्थों की रचना की - आगमिक टीकाएँ, वृत्तियाँ एवं व्याख्याएँ, आगमिक प्रकरण (इस विद्या के कुछ ही ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है)। संस्कृत भाषा में जैनों के अनेक स्तुति, स्तोत्र आदि भी मिलते है, जैन कर्म सिद्धान्त के कुछ ग्रन्थों की संस्कृत टीकाएँ भी मिलती है, जैनयोग एवं ध्यान के कुछ ग्रन्थ भी संस्कृत टीकाएँ भी मिलती है, जैनयोग एवं ध्यान के कुछ ग्रन्थ भी संस्कृत में है, यथा शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र का योगशास्त्र आदि निर्वाणकलिका, रूपमण्डन एवं समरांगणसूत्रधार आदि जैन कला के अनेक ग्रन्थ संस्कृत में ही है। जैन राजनीति के ग्रन्थ यथा नीतिवाक्यामृत अर्हन्नीति आदि भी संस्कृत में है, जैन तीर्थ मालाएँ, जैन विज्ञान एवं जैन कर्म काण्ड का प्रचुर साहित्य संस्कृत भाषा में ही लिखित है, जैन इतिहास के क्षेत्र में भी प्रबन्धकोश, प्रबन्ध-चिन्तामणि आदि, संस्कृत भाषा के अनेक ग्रन्थ है, इसके अतिरिक्त काव्यशास्त्र, छन्दशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, जैनपुराण एवं जीवनचरित्र, जैनकथासाहित्य (आराधनाकथाकोष आदि), व्याश्रयमहाकाव्य, जैन नाटक, जैन दूतकाव्य, एवं अनेकार्थक ग्रन्थ जैसेअष्टकक्षी समयसुंदरकृत आदि अनेक ग्रन्थ भी संस्कृत साहित्य के विकास मे जैन कवियों के अवदान के परिचायक है। संस्कृत का जैन आगमिक व्याख्या साहित्य
__ आगमिक व्याख्या साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य नामक प्राकृत कृति जिनभद्रगणि द्वारा लगभग विक्रम की छटी शताब्दी में प्राकृत में लिखी गई थी, किन्तु उस पर जिनभद्रगणिश्रमाश्रमण ने स्वयं ही स्वोपज्ञ व्याख्या संस्कृत में लिखी थी । चूर्णियों के पश्चात् आगमों पर जो संस्कृत में टीकाएँ एवं वृत्तियाँ लिखी गई, उनमें सर्वप्रथम ८वी शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने, अनुयोगद्वारवृत्ति, प्रज्ञापना-व्याख्या, आवश्यक-लघुटीका, आवश्यक-वृहट्टीका, ओघनियुक्तिवृत्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, जीवाभिगमलघुवृत्ति, दशवैकालिकलघवत्ति, दशवैकालिकबहदवत्ति, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, नन्दि-अध्ययनटीका, प्रज्ञापना-प्रदेशव्याख्या आदि टीकाएँ और व्याख्या-ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे थे। इन सभी का लेखनमाल प्रायः ८वी शताब्दी ही माना जा सकता है। उसके पश्चात् १०वी शताब्दी में आचार्य शीलांक ने आचारांग और सूक्षकृतांग - इन . दो अंग आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी । इसी क्रम में उन्होंने जीवसमास नामक आगमिक प्रकरण-ग्रन्थ पर संस्कृत में वृत्ति भी लिखी थी। आगे इसी क्रम में घनेश्वरसूरि के शिष्य खरतरगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग को छोडकर ९ अंग आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी । उनके नाम इस प्रकार है - स्थानांगटीका, समवायांगटीका, भगवतीटीका, ज्ञाताधर्मकथाटीका, उपासकदशाटीका, अन्तकृतदशाटीका, अनुत्तरोपातिकटीका, प्रश्नव्याकरणटीका और विपाकसूत्रटीका । इसी आधार पर उन्हें नवांगीटीकाकार भी कहा जाता है, किन्तु इन नव अंग-आगमों अतिरिक्त उन्होंने कुछ उपांगो पर एवं आगमिक प्रकरणों पर संस्कृत में टीकाएं लिखी है। वे क्रमशः इस प्रकार है – प्रज्ञापनाटीका । इसके अतिरिक्त उन्होंने हरिभद्र के पंचाशक नामक ग्रन्थ भी एक वृत्ति भी