Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 28
________________ बड़ा नुकसान मानते हैं। वे कहते हैं, " आज किसी संत को जयपुर से मद्रास की पदयात्रा करने में दो साल लग जाते हैं, जबकि यही कार्य दो घंटे में पूरी होने की सहज व्यवस्था उपलब्ध है। दो साल की पदयात्रा त्याग के लिहाज से अच्छी है, पर समय और शक्ति खर्च की दृष्टि से बहुत महँगी और बोझिल है। जीवन सीमित है। कहीं ऐसा न हो कि हम रास्ता नापने में ही जीवन की ऊर्जा खत्म कर दें। वाहन यात्रा में अहिंसा की दृष्टि से कुछ दोष भी हो, पर ऐसा कौनसा बड़ा दोष है जिसके चलते मुनिजनों के लिए इसका सर्वथा ही निषेध कर दिया गया। यदि जैन समाज के संत वाहनयात्रा स्वीकार कर लेते तो, आज जैन धर्म की व्यापकता कुछ और ही होती। वह केवल राजस्थानियों और गुजरातियों तक ही सिमटकर नहीं रह जाता वरन वह विश्व धर्म होता।" श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान में पदयात्रा को वाहन यात्रा से महँगा माना है। उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए वे कहते हैं, "जोधपुर से पाली जाने में गाड़ी से एक घंटा लगता है और साधु-साध्वियों को पदयात्रा से चार दिन । अब इस दौरान यदि श्रावकों को आहार की व्यवस्था के लिए रास्ते में रोज दो बार भी आना पड़ा, तो उनके निमित्त से कितनी गाड़ियाँ आई-गई। कितना खर्च हुआ? हमारे कारण श्रावकों को कितना समय और श्रम का भोग देना पड़ा? यह सच है कि पहले संतों का श्रावकों के साथ धन का कोई रिश्ता नहीं था, पर अब तो संतों के इशारे मात्र से लाखों-करोड़ों रुपये इकट्ठे हो जाते हैं और खर्च भी हो जाते हैं। मेरी समझ से पदयात्रा वाहन यात्रा से ज्यादा महँगी है। ज्यादा व्यवस्था की अपेक्षा रखती है।" उन्होंने हिंसा और आतंक से घिरे विश्व में अहिंसा को फैलाने की अति आवश्यकता स्वीकार की है। उनका मानना है, 'आज विश्व हिंसा और आतंक के विचित्र दौर से गुजर रहा है। ऐसे में इस अहिंसावादी धर्म का यह दायित्व बनता है कि वह पूरे विश्व में अपने प्रबुद्ध संतों को पहुँचाने का रास्ता खोले।" उन्होंने वाहन यात्रा के दायरे के रूप में व्यक्तिगत वाहन न रखने, शहर में पैदल चलने का समर्थन किया है। " जैन धर्म का मुख्य विधि-विधान है प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि व कषायमुक्ति का महान अनुष्ठान है, पर यह दो हजार साल पुरानी प्राकृत भाषा में किया जाता है। श्री चन्द्रप्रभ इसे आज की हिन्दी भाषा में करने के समर्थक हैं। उनका मानना है, "जैनों की सम्पूर्ण आबादी में से आज अधिकतम एक लाख लोग रोज प्रतिक्रमण करते होंगे, पर प्रतिक्रमण का अर्थ उनमें से दो प्रतिशत लोगों को मुश्किल आता होगा। प्रतिक्रमण में जब अतिचार, स्तवन, स्तुति सज्झाय बोली जाती है, तब तो कुछ रुचि भी जगती है क्योंकि वे हिन्दी में होते हैं। अन्यथा लोग श्रद्धावश बैठे रहते हैं या उबासियों खाते रहते हैं। भला, जब अतिचार व स्तवन हिन्दी में बोले जा सकते हैं, तो हिन्दी में कुछ और पाठों का समावेश क्यों नहीं किया जा सकता।" वे धर्म को रटाऊ की बजाय समझाऊ होने पर बल देते हैं। उनकी दृष्टि में, "यदि भगवान महावीर आज होते, तो वे आज की भाषा में करते क्योंकि उन्होंने 2500 साल पहले उस युग की भाषा का प्रयोग किया था। मेरी समझ से धर्म समझाऊ होना चाहिए, न कि रटाऊ । धर्म सक्रियता और सचेतनता लिये हुए होना चाहिए, न कि पाठों का रिपिटेशन" विचार रखे हैं। वे जैनों के वार्षिक पर्व संवत्सरी को एक ही दिन मनाने के समर्थक हैं। वे कहते हैं, "यदि जैनी लोग संवत्सरी को ही एक साथ मना पाने में सफल नहीं हो पाते हैं, तो ऐसे बिखरे समाज से मैं पूछूंगा कि तब फिर आप दुनिया के लिए क्या कर पाएँगे। हम लोगों को चाहिए कि हम संवत्सरी से जुड़े मतभेदों को भुलाएँ और उसे एक दिन मनाएँ संवत्सरी कई परम्पराओं में चौथ को मनाई जाती है, कई परम्पराओं में पंचमी को। सबसे विचित्र समस्या तो तब आ खड़ी होती है, जब कुछ परम्पराएँ संवत्सरी एक महीना पहले मनाती हैं और कुछ परम्पराएँ एक महीना बाद इन तिथियों के झगड़ों ने जैन धर्म का बहुत नुकसान पहुँचाया है। जैनियों के आधे पंचांग किसी पर्व को एक दिन पहले बताते हैं, तो किसी पर्व को एक दिन बाद। अब हम कोई देश से अलग तो हैं नहीं। जिस दिन जिस पर्व को पूरा देश मनाए क्यों न हम भी उसी में शामिल होकर पर्व का सामूहिक आनंद उठाएँ। अपनी डफली अलग से बजाने से क्या तुक । केवल तुम्हीं सुनोगे और दूसरे लोगों के उपहास के पात्र बनोगे ।" श्री चन्द्रप्रभ ने जैनों में पंथ-परम्पराओं के प्रति बन रही संकीर्णताओं पर भी व्यंग्य किया है। उन्होंने संतों को भी विराट मानसिकता बनाने का अनुरोध किया है। उनका कहना है, "जैन धर्म के अलग-अलग पंथों के भेद वक्त के भूचाल हैं, किन्हीं दो आचार्यों, दो गुटों के मतभेदों का परिणाम हैं। हम मतभेदों के परिणाम न बनें, हम धर्म के परिणाम हों। ये संत लोग अपने अनुयायियों को जैन कहना क्यों नहीं सिखाते? जैन से पहले श्वेताम्बर, दिगम्बर या तेरापंथी का एक्स्ट्रा लेबल क्यों लगवाना चाहते हैं।" इस संदर्भ में उनकी एक घटना हैजियो और जीने दो - एक दस साल का लड़का श्री चन्द्रप्रभ के पास आया। प्रणाम कर कहा मैं स्थानक में हो रही वेशभूषा प्रतियोगिता में जैन संत बन रहा हूँ। मुझे वहाँ पर दो लाइन का अमृतसंदेश बोलना है। आप बताने की कृपा कीजिए। उन्होंने कहा आप लोगों से कहना अगर आप मंदिरमार्गी जैन हैं तो 'धर्मलाभ', स्थानकवासी जैन हैं तो 'दया पालो' तेरापंथी जैन हैं तो 'जय भिक्खु' और अगर आप केवल जैन हैं तो ' जीयो और जीने दो।' " - इस तरह श्री चन्द्रप्रभ समय की नब्ज को देखते हुए वैचारिक एवं व्यवस्थागत परिवर्तन को अनिवार्य मानते हैं। उन्होंने पदयात्रा की जगह वाहन यात्रा की उपयोगिता सिद्ध कर हर किसी को सोचने के लिए मजबूर किया है। उन्होंने प्रतिक्रमण, संवत्सरी जैसे बिन्दुओं पर जो उदार एवं यथार्थ विचार रखे हैं वे वर्तमान समाज के लिए अत्यंत प्रेरक एवं उपयोगी है। अगर उनके सुझावों को मान लिया जाए तो धर्म की जटिलता कम हो सकती है और नई पीढ़ी के लिए धर्म के कायदेकानून और विधि-विधान सरल और व्यावहारिक हो जाएँगे। - श्री चन्द्रप्रभ धर्म के सरल एवं जीवंत स्वरूप के पक्षधर हैं । वे अर्थहीन क्रियाओं के विरोधी रहे हैं। उन्होंने परम्परागत क्रियाओं को जीवन से जोड़ने की बजाय परिणामदायी क्रियाओं को आत्मसात् करने की प्रेरणा दी है। वे ज्यादा धर्म करने में कम विश्वास रखते हैं, पर थोड़े में भी पूर्णता हो इसे आवश्यक मानते हैं। उनकी नजरों में वही धर्म उत्तम है जो स्व-पर मंगलकारी हो, जो हमें नेक और एक बनाए और जो इबादत से पहले मदद करने की प्रेरणा दे। उन्होंने मानवीय धर्म की श्री चन्द्रप्रभ ने जैनों के महान पर्व संवत्सरी पर भी क्रांतिकारी प्रेरणा देते हुए कहा है. 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