Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 94
________________ पर मन की शांति-विश्रांति खंडित हुई वह चीज़ आसक्ति के अंतर्गत विस्मरण करें। आती है।" इस तरह व्यक्ति के अन्तर्मन में शरीर, विचार, वस्तुओं, 15. एकत्व बोध को गहरा करें। भोग-परिभोग, संबंधों एवं ममत्व भाव आदि की अनेक आसक्तियाँ इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने बंधन के साथ मुक्ति-बोध का सरल मार्ग पलती रहती हैं। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बंधनों से मुक्त होने के लिए प्रस्तुत किया है। इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि मुक्ति पाने के लिए आसक्ति से अनासक्ति की ओर बढ़ने व अनासक्ति को साधने की मुक्ति से पहले बंधनों की समझ अनिवार्य है। श्री चन्द्रप्रभ ने बंधनों के मुख्य रूप से प्रेरणा दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ ने आसक्ति विजय के लिए मूल में मूर्छा-आसक्ति को रखा है साथ ही उससे उपरत होने के उपाय निम्न सूत्र प्रदान किए हैं - भी बताए हैं। उन्होंने संसार को बंधन मानने की धारणा का खंडन कर 1. भोजन की आसक्ति से उपरत होने के लिए भोजन के परिणाम नया मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने संन्यास से पूर्व गृहस्थ संत बनने की अर्थात् मल-मूत्र पर ध्यान दें। प्रेरणा देकर व्यक्ति को मुक्ति की नई भूमिका तैयार करने की कला 2. कपड़ों की आसक्ति से उपरत होने के लिए एक ही रंग के सिखाई है। उनका आसक्ति-अनासक्ति से जुड़ा विवेचन साधकों के कपड़ों का उपयोग करें व नया कपड़ा खरीदने से पहले पुराने कपड़े का लिए उपयोगी है। एक तरह से श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन भारतीय धर्मदान कर दें। दर्शनों के मूल लक्ष्य को साधने में महत्त्वपूर्ण कडी बनकर उभरने में 3.घर की छतों पर कचरा, कूड़ा-करकट न रखें। सफल हुआ है। 4.किसी भी भवन या भूखंड के प्रति अनुरक्ति न बनाएँ। आत्म-दर्शन व आत्म-विकास की भूमिकाएँ 5. ईंट, चूना, पत्थर से निर्मित जड़ मकान में चेतना का आसक्त होना मिथ्यात्म है। इसलिए हम मकान को मकान मानें उसके साथ संसार के सभी महापुरुषों एवं धर्म-दर्शनों का संदेश है कि हर ममत्त्व भाव न जोड़ें। व्यक्ति परमात्म-चेतना को उपलब्ध हो, पर इस हेतु अंतर्दृष्टि का 6. रात में खाने से बचें एवं दिन में पाँच बार से ज़्यादा मुँह जठान सम्यक् होना आवश्यक है। भगवान बुद्ध ने आष्टांगिक आर्य मार्ग में करें। 'सम्यक् दृष्टि' को पहला मार्ग कहा है। जैन दर्शन में 'सम्यक दर्शन' 7. मौनपूर्वक भोजन करें, भोजन से जुड़ी किसी भी तरह की को मोक्षमार्ग का मूल कहा गया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं,"अंतर्दृष्टि प्रतिक्रिया न करें, भूख से दो कौर कम खाएँ। सम्यक् है तो व्यक्ति गृहस्थ में रहकर भी परमात्म-तत्त्वों को साध ___8. पच्चीस पौशाक से ज़्यादा कपड़ों का संग्रह न करें। सकता है, अन्यथा संन्यास भी संसार का कारण बन सकता है।" 9. सहज-नैसर्गिक जीवन जिएँ, सौन्दर्य प्रसाधन, भड़कीले वस्त्र इसलिए साधना के मार्ग पर व्यक्ति का स्वयं के प्रति सजग होना ज़रूरी है। साधना के मार्ग में आत्म-विकास की अनेक श्रेणियों का विवेचन एवं साज-सज्जा के उपयोग से बचें। ___इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने आसक्ति से उपरत होने के लिए सरल एवं हुआ है। जैन दर्शन में इसे 'गुणस्थान' भी कहा जाता है। भगवान व्यावहारिक उपायों का मार्गदर्शन दिया है। साथ ही उन्होंने बंधनों से महावीर ने चौदह गुणस्थान माने हैं। जो निम्न हैं - मिथ्यात्व, सासादन, मुक्त होने के लिए एवं मुक्ति तत्त्व को साधने के लिए निम्न बिन्दुओं । मिश्र, अविरत सम्यवृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशांत मोह, क्षीणमोह, को जीवन से जोड़ने की प्रेरणा दी है - सयोगी केवली जिन व अयोगी केवली जिन। 1.ध्यान योग का मार्ग अपनाएँ। 2.वैर और उपेक्षा की बजाय क्षमा व प्रेम को बढ़ाएँ। श्री चन्द्रप्रभ ने गुणस्थान को आत्म-विकास की भूमिकाएँ कहा है। आत्मा की तीन स्थितियाँ हैं - बहिरात्मा, अंतरात्मा व परमात्मा। श्री 3.स्वयं को सदा प्रसन्न रखें। चन्द्रप्रभ ने पहले दो गुणस्थानों को बहिरात्मा, अंतिम दो गुण स्थानों को 4.मन की बजाय बुद्धि के अनुसार काम करें। 5.दिन में दो घंटे मौन रखने को जीवन का अंग बनाएँ। परमात्मा व शेष गुणस्थानों को अंतरात्मा के अंतर्गत माना है। बहिरात्मा की पहली भूमिका है : मिथ्यात्व यह जीव की निम्नतम एवं 6.सजगता व निर्लिप्तता से हर कार्य संपादित करें। तमोगुण प्रधान अवस्था है। श्री चन्द्रप्रभ ने जीव के बंधन का मुख्य 7. हर व्यक्ति, हर परिस्थिति के प्रति समदर्शी रहने की कोशिश कारण मिथ्यात्व को माना है। उनके अनुसार मिथ्यात्व यानी मूर्छा करें। अर्थात् जीव की असत्य अवस्था जैसा है। उसे वैसा न देखना मिथ्यात्व 8. हस्तक्षेप से मुक्त रहें, तटस्थ बनें। है। सच को सच न मानना और झूठ को झूठ न मानना मिथ्यात्व है 9.क्रिया से अक्रिया की ओर गति करें। अर्थात् सत्य के प्रति असत्य-बुद्धि और असत्य के प्रति सत्य-बुद्धि इस 10. मन के आकर्षण-विकर्षण से स्वयं को मुक्त करें। विपरीत बुद्धि का नाम मिथ्यात्व है। पतंजलि के अनुसार, अनित्य में 11. बाहरी वस्तुओं को स्वीकार करने के साथ त्याग करने के भाव नित्य अपवित्र में पवित्र दख में सख और अनाम में आत्मा की से भी स्वयं को उपरत करें। धारणा ही अविद्या है। इस प्रकार मिथ्यात्व को अन्य धर्म-दर्शनों में 12. सबके साथ रहें, पर चित्त से प्रतिक्रिया शून्य होकर साक्षी अविवेक. अज्ञान, तष्णा. अविद्या. राग-द्वेष और माया कहकर चेतना में स्थित रहें। विवेचित किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने एकांगी ज्ञान, भ्रम, संशय, 13.अतीत-भविष्य की बजाय वर्तमान को मुक्ति-मोक्ष का पर्याय रूढिज्ञान को भी मिथ्यात्व के अंग माने हैं। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बनाएँ। मिथ्यात्वी जीव की निम्न मान्यताओं का उल्लेख हुआ है14. किताबी ज्ञान, मत-मतान्तर, भ्रम-संशय और आग्रह का 1. मिथ्यात्वी को धर्म अरुचिकर लगता है जैसे ज्वरग्रस्त व्यक्ति Ja94संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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