Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation
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श्री चन्द्रप्रभ की धर्म को देन श्री चन्द्रप्रभ का धर्मदर्शन भारतीय दर्शन जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने धर्म की वर्तमान दशा को सुधारकर उसे सम्यक दिशा प्रदान की है। उन्होंने एक ओर जहाँ धर्म में आई विकृतियों पर चोट की है वहीं दूसरी ओर धर्म के व्यावहारिक एवं जीवन-सापेक्ष स्वरूप पर प्रकाश डाला है। वे धार्मिक अंधानुकरण के विरोधी हैं। वे धर्म की विराटता एवं जीवंतता में विश्वास रखते हैं। उनकी धर्मदृष्टि आग्रहदुराग्रह से मुक्त है। उन्होंने धर्म को सरल एवं सरस बनाया। वे धर्म के उन्हीं पहलुओं को अपनाने के समर्थक हैं, जो हमारी जीवन की समस्याओं के समाधान से जुड़े हुए हैं। उन्होंने व्यक्ति को मार्ग देने की बजाय मार्गदृष्टि दी ताकि व्यक्ति धर्म के विभिन्न मार्गों को देखकर दिग्भ्रमित होने से बच सके। जो धर्म दो-चार क्रियाओं तक सीमित हो गया था और कुछ पंथ-परम्पराओं में सिमट गया था, उन्होंने उसे सार्वजनिक व सर्वकल्याणकारी बनाया। उनके धर्मदर्शन में धर्म, उसके अर्थ, स्वरूप, साम्प्रदायिक विभेदता, धार्मिक समन्वय, समरसता, धर्म का परिवार, समाज और राष्ट्र से सम्बन्ध, महापुरुषों की धर्मदृष्टि, धार्मिक एकता, वर्तमान की आवश्यकता आदि विविध बिन्दुओं पर मौलिक चिंतन प्रस्तुत हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के क्षेत्र में कौन-सी क्रांति की, धर्म को कौनसी नई दिशा प्रदान की, उसका विवेचन आगे किया जा रहा है
धर्म का स्वरूप- श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के स्वरूप की नए ढंग से व्याख्या की है। अब तक धर्म को मात्र आत्म-कल्याण के पथ से अथवा क्रियाओं से जोड़ा गया। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म की व्याख्या संकीर्णताओं से ऊपर उठने व एक-दूसरे के निकट आने के रूप में की। वे कहते हैं, "टूटे हुए इंसानों और टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने की कला का नाम धर्म है। धर्म हमें कभी आपस में लड़ना और लड़ाना नहीं सिखाता। जो लड़ना और लड़ाना सिखाए, वह धर्म न होकर पंथ और संप्रदाय की संकीर्णता है।"
श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक संकीर्णता का कारण पंथ-परम्परा के बंधन को माना है। उनकी दृष्टि में, "जब से व्यक्ति ने धर्म के बुनियादी तत्त्वों को समझने से किनारा किया है और धर्म के नाम पर बने पंथ और संप्रदाय से स्वयं को बाँधना शुरू किया है, तब से धर्म संकुचित होकर रह गया है।" उन्होंने धर्म को न केवल व्यावहारिक बनाया अपितु उसे सोच-समझकर धारण करने की शिक्षा भी दी। उनका मानना है, "मनुष्य को अधिकार है कि वह धर्म के ग्रंथों को पढ़े, समझे और उसके बाद जिस धर्म की अच्छाइयाँ उसे प्रभावित करे, व्यक्ति उस मार्ग पर चल पड़े।" वे कहते हैं, "धर्म को अगर दो-चार किताबों के साथ जोड़ लेंगे तो जीवन में धर्म न होगा, केवल अंधविश्वास होंगे, लकीर के फकीर होने की आदत होगी। स्वयं भी सुख से जीओ, औरों को भी सुख से जीने दो, इसी का नाम धर्म है और यही धर्म का व्यावहारिक स्वरूप है।" उन्होंने कथनी-करणी की एकरूपता को धर्म की नींव माना है। वे सार्वजनिक छवि से अधिक निजी छवि की पवित्रता को महत्व देते हैं। उनके अनुसार, "जब तक धर्म व्यक्ति के श्वास और हृदय तक में न उतर जाए, तब तक व्यक्ति के भीतर और बाहर एकरूपता नहीं आ सकती। हर व्यक्ति अपने आपको धार्मिक कह 124 » संबोधि टाइम्स
लेगा, पर निजी जीवन में झाँका जाए तो पता चलेगा उसका 'प्राइवेट फेस' अलग है, और 'पब्लिक फेस' अलग। आदमी की सार्वजनिक छवि भी उज्ज्वल होनी चाहिए, लेकिन उससे भी अधिक जरूरी यह है कि व्यक्ति की निजी छवि भी स्वच्छ और सौम्य हो।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को नई पहचान देकर उसे मानवीय प्रेम, आत्म-विवेक और आंतरिक-शुद्धि के साथ जोड़ा है।
धर्म सदाचार और सदविचार से संबंधित है, पर मनुष्य ने धर्म को जन्म से संबंधित मान लिया, जिसके चलते धर्म जातिगत रूप ले बैठा। श्री चन्द्रप्रभ धर्म को खून और पैदाइश से जोड़ने के विरोधी हैं । वे कहते हैं, "हम राम की मर्यादा को जीएँ या न जीएँ, फिर भी हिन्दू तो कहला ही लेंगे। चाहे महावीर के संयम को जीवन में आत्मसात कर पाएँ या न कर पाएँ, मगर फिर भी जैन तो कहला ही लेंगे। सेवा और प्रेम के मार्ग पर बढ़ें या न बढ़ें, पर ईसाई तो हो ही गए। सामाजिक समता को समाज में बरकरार रख सकें या न रख सकें, मुसलमान कहने से कोई रोक नहीं सकता, क्योंकि हमने धर्म का संबंध मनुष्य के जन्म के साथ जोड़ दिया है। आदमी जन्मजात ही जैन, जन्मजात ही हिन्दू है, फिर उसे कर्म करने की क्या जरूरत है?"
इस तरह उन्होंने धर्म को जन्म की बजाय कर्मप्रधान बनाने की प्रेरणा दी है। धर्म का उदय जीवन का उत्थान व मानवता के कल्याण के लिए हुआ था, पर व्यक्ति धर्म के इस मूल लक्ष्य से भटक गया और सम्प्रदाय के कल्याण में अपना कल्याण समझ बैठा। इसी संकीर्ण दृष्टि ने मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना दिया। श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में, "दुनिया के जिन महापुरुषों ने धर्म को पैदा किया अथवा बढ़ाया, उन्होंने इंसान के हाथ में जलती हुई मशाल थमाई थी, लेकिन हम लोगों ने मशाल की आग को तो बुझा दिया और खाली डंडे लेकर नारेबाजी करते रहे और अपने-अपने धर्म की डफली बजाते रहे। अगर मशाल जली हुई होगी तो मनुष्यता अँधेरे में भी रास्ते ढूँढ लेगी, पर यदि मशाल बुझ गई तो बचे हुए डंडे लड़ने और लड़ाने के सिवा और क्या काम आएँगे।"
धर्म और एकता- जो धर्म मानवता को एक करने के लिए पैदा हुआ था, इंसान की छोटी सोच ने उसे बाँट दिया, धर्म के साथ, समाज, परिवार
और व्यक्ति भी बँट गया। श्री चन्द्रप्रभ ने इंसान की इस सोच पर व्यंग्य किया है। वे कहते हैं, "धर्म हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई के बँटवारे तक ही सीमित रहता तो ठीक था, किन्तु हिन्दू बँटकर वेदांती हो गए, आर्यसमाजी हो गए, ईसाई कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट हो गए, मुसलमान शिया
और सुन्नी बन गए, जैन श्वेताम्बर और दिगम्बर हो गए। इतने में शायद बात नहीं बनी और फिर सौ-सौ रूपान्तरण हो गए। लोगों ने धर्म से जीवन के कल्याण के रास्ते कम खोजे हैं, आपस में बँटने और बँटाने के रास्ते ज्यादा पा लिए हैं। छोटी-छोटी बातें, छोटी-छोटी सोच, छोटे नजरिए, इन सबने मिलकर इंसान को भी छोटा बना दिया।"
व्यक्ति धर्म के नाम पर जितना संकीर्ण हुआ, उतना अन्य किसी के नाम पर नहीं हुआ। इसी संकीर्णता ने मानव जाति का विकास अवरुद्ध किया और मारकाट जैसी स्थितियाँ पैदा की। यह इस धरती का कड़वा यथार्थ है कि पिछले 2500 सालों में केवल धर्म के नाम पर 5000 युद्ध लड़े गए। अगर व्यक्ति सम्प्रदाय की संकीर्ण सोच में सीमित होने की
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