Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 127
________________ ममता पर व्यक्त किए गए प्रभावी विचार मनुष्य की अंतत्मिा को शिक्षा दी है। झकझोर देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ के परिवार निर्माण पर हुए वक्तव्य से धर्म और गहस्थ जीवन - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मनुष्य को हजारों टूटे परिवार जुड़े हैं, रिश्तों में पैदा होने वाला खटास समाप्त हुआ गृहस्थ-संत बनने की प्रेरणा दी गई है। उनका मानना है, "हर आदमी है, परस्पर प्रेम और मिठास बढ़ा है, घर में युवा पीढ़ी कर्तव्य-पालन संसार को छोडकर नहीं निकल सकता, लेकिन हर कोई संसार में रहते के प्रति सजग हुई है और घर में बड़े-बुजुर्गों के प्रति सम्मानजनक हए भी संसार से निर्लिप्त अवश्य रह सकता है। इंसान बाहरी तौर पर व्यवहार में अभिवृद्धि हुई है। स्वयं को संन्यासी भले ही न बना पाए, लेकिन अपने हृदय को साधु श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म की शुरुआत मंदिर-मस्जिद से करने की बजाय जैसा अवश्य बनाए।" उन्होंने संन्यास के नाम पर जीवन में चलने घर से करने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जिस घर में हम तेईस घंटे वाली विसंगतियों को भी उजागर किया है। वे कहते हैं, "आदमी साधु रहते हैं, वहाँ तो हो-हल्ला करते हैं, और जिस मंदिर-स्थानक में __ बन जाएगा, पर लोक एषणा में उलझ जाएगा। नाम कमाने की चाहत, केवल आधा या एक-घंटा बिताते हैं, वहाँ बड़े शांत रहते हैं। कितना शिष्यों को बढ़ाने की तृष्णा पैदा हो जाएगी। पुत्र-पुत्री, पत्नी, धन की अच्छा हो कि हम घर को अपना मंदिर मानना शुरू कर दें और धर्म की ऐषणा का त्याग करना आसान है, मगर लोक-एषणा, नाम-यश की शुरुआत मंदिर-मस्जिद से करने की बजाय धर्म से करना शुरू कर दें तो चाहत का त्याग करना कठिन है। नाम, रूप, रुपाय बदल लेना आसान हमारे 24 घंटे धन्य हो जाएँगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म का पहला चरण है, पर भीतर की आसक्तियों को, राग और मूर्छा को तोड़ना कठिन कर्तव्यपालन माना है। उनका कहना है, "जिन माता-पिता ने हमें जन्म है।" उन्होंने संन्यास वेश के हो रहे व्यवसायीकरण को भी अनुचित दिया है, जिन भाई-बहिन-पत्नी के साथ हम रहते हैं, जिन बच्चों को ठहराया है। वे साधु-साध्वियों के बीच स्त्री-पुरुष का भेदभाव रखने हमने जन्म दिया है, जिन लोगों से हम सेवाएँ लेते हैं, अपने जिन को अनुचित मानते हैं। उन्होंने धर्मसंघ में पुरुष-प्रधान दृष्टि रखने की पड़ोसियों के बगल में हम रहते हैं, उनके प्रति रहने वाले कर्तव्यों का बजाय गुण-प्रधान दृष्टि रखने की प्रेरणा दी है। पालन करना हमारा पहला धर्म है।" धर्म और मध्यम मार्ग- श्री चन्द्रप्रभ अतितप और अतिभोग की श्री चन्द्रप्रभ ने रामायण के धर्म को सबसे पहले जीने की प्रेरणा दी बजाय मध्यम मार्ग के समर्थक हैं। उन्होंने केवल शरीर या केवल है। उनकी दृष्टि में, "जिसने रामायण के धर्म को जी लिया वही बुद्ध आत्मा को महत्व देना एकांगी दृष्टिकोण माना है। वे दोनों के सामंजस्य और महावीर के धर्म को निभा पाएगा। धर्म का प्रारम्भ घर-परिवार से को अपनाने की सीख देते हैं। उनका कहना है, "पाश्चात्य संस्कृति हो। समाज में खड़े होकर पाँच लाख का दान देने से पहले देख लें कि अकेले शरीर को महत्व देती है और भारतीय संस्कृति एकमात्र आत्म कहीं आपका छोटा भाई या पड़ोसी भूखा तो नहीं है। जो भाई, भाई का तत्त्व को अहम मानती है। इस दृष्टि से दोनों संस्कृतियाँ अपने आप में साथ न दे सके क्या वह दानवीर या धार्मिक कहलाने का हकदार है?" परिपूर्ण नहीं हैं । शरीर का भी अपना मूल्य है और आत्मा का भी अपना उन्होंने धर्म के दूसरे चरण में इंसान होकर इंसान के काम आना बताया मूल्य है। दोनों संस्कृतियों के बीच एक सामंजस्य और संतुलन है। वे कहते हैं, "कर्मचारी को बतौर मदद के इतना आटा हर माह चाहिए।" श्री चन्द्रप्रभ ने उपवास के संदर्भ में नया दृष्टिकोण दिया है। जरूर दें जिससे वह कभी भूखा न रहे। सड़क पर यदि कोई अपरिचित उन्होंने आहार के प्रति रहने वाली आसक्ति को दूर करने को उपवास व्यक्ति घायल पड़ा है तो मदद देकर अस्पताल पहुँचाएँ। हर व्यक्ति कहा है। वे कहते हैं, "उपवास का अर्थ चौबीस घंटे भोजन न करना कमाई का ढाई प्रतिशत धन दीन, दुःखी और गरीबों के लिए जरूर नहीं, बल्कि आहार के प्रति रहने वाली आसक्ति का समाप्त होना है। निकाले। आप डॉक्टर हैं तो गरीबों को फिजिशियन सेम्पल नि:शुल्क हिन्दू लोग एकादशी के व्रत को द्वादशी की दादी बना लेते हैं, वैसे ही दवा दें, नाई हैं तो सप्ताह में एक दिन झोपड़-पट्टी में चार घंटे जैनी लोग उपवास को पहले-पीछे के रूप में चार गुना खाने के बराबर निःशुल्क सेवा दें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को कर्तव्य-पालन व कर लेते हैं। उपवास के पहले दिन भी हल्का-फुल्का भोजन लें और इंसानियत की सेवा से जोड़ा है। उपवास-व्रत के अगले दिन भी हल्का-फुल्का ही। वास्तव में इन्द्रियों श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के नाम पर जीवन में चलने वाली विसंगति पर का, मन के उद्वेगों का शमन ही उपवास है।" इस तरह उन्होंने उपवास भी चोट की है। वे कहते हैं, "मनुष्य पत्थर की प्रतिमा को भगवान को अनासक्ति से विश्लेषित कियाहै। मानकर पूज लेता है, मंदिर के बाहर खड़े गरीब में भगवान को निहार श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में अहिंसा पर परम्परागत दृष्टिकोण से नहीं पाता। माँ-बाप के मरने के बाद उनके चित्रों पर धूप-दीप और हटकर नई व्याख्या हुई है। उन्होंने अहिंसा को हिंसा न करने तक फूल चढ़ाना तो जानता है, लेकिन जीते-जी उनकी सेवा नहीं कर पाता। सीमित नहीं माना है। उनकी दृष्टि में, "अहिंसा का अर्थ केवल रात-दिन प्रभु का स्मरण करने वाला इंसान भी दो कड़वे शब्द सुनकर नकारात्मक नहीं है कि हिंसा मत करो, वरन् सकारात्मक भी है कि आग-बबूला हो जाता है। वर्षों तक धर्म का अनुसरण करने पर भी मन व्यक्ति एक-दूसरे से प्रेम करे। किसी को तकलीफ न पहुँचाना अच्छी के विकार शांत न हुए तो वह धर्म किस काम का! धर्म जीवित तभी हो बात है, मगर किसी को सुख पहुँचाना - यह उससे भी अच्छी बात है। पाएगा जब उसका परिणाम कल की बजाय आज मिलना शुरू हो।" जैसे-जैसे हम प्रेम से भरते जाएँगे, क्रोध-आक्रोश-वैमनस्य-कषाय इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मनुष्य को धर्म के रूप में माता-पिता की सेवा स्वतः कम होते चले जाएँगे।" इस तरह उन्होंने अहिंसा को प्रेम के करने, पारिवारिक कर्तव्यों को निभाने, रिश्तों में मिठास बढ़ाने, साथ जोड़ा है। इंसानियत के काम आने और मन की कमजोरियों पर विजय पाने की अध्यात्म और विज्ञान - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में अध्यात्म और Jain Education International For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स » 127

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