Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 113
________________ 1. प्रकृति के सान्निध्य में रहें। हृदयवान होकर जीने के सूत्र दिए हैं। 2. सहजतापूर्वक जीवन जीएँ। जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने सत्य पर भी उपयोगी प्रकाश 3.जीवन में घटने वाली हर घटना का मनन कर सीख लेने की डाला है। जे.कष्णमर्ति सभी पंथों, धर्मों मार्गों और संगठनों को सत्यकोशिश करें। विरोधी मानते हैं। वे कहते हैं,"सत्य एक पथहीन भूमि है और उसके जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन के विकास के पास किसी मार्ग से, धर्म या पंथ से पहुँच नहीं सकेंगे। सत्य संगठित लिए एवं धर्म को आत्मसात करने हेतु निर्भय होने की कला सिखाई गई नहीं किया जा सकता, न कोई संगठन आज तक किसी को सत्य की है। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, "जब तक मन भय से पूर्णतः मुक्त नहीं हो प्राप्ति करवा पाया है। सत्य को नीचे नहीं उतारा जा सकता, उसके जाता तब तक हर प्रकार की क्रिया, दुःख व अशांति उत्पन्न करती है।" बदले व्यक्ति को ही उस ऊँचाई तक पहुँचने का प्रयास करना होगा।" उन्होंने भय को जीतने के लिए व्यक्ति को भय को देखने, भय का श्री चन्द्रप्रभ ने सत्य के स्वरूप को व्यावहारिक शैली में प्रस्तुत किया सामना करने व भय के परिणामों का चिंतन करने की सीख दी है। श्री है। वे कहते हैं, "सत्य के फूल जीवन के हर क़दम पर खिले हुए हैं। चन्द्रप्रभ के दर्शन में निर्भयता को धर्म-अध्यात्म की पहली सीढ़ी माना जीवन और जीवन के परिवेश को ध्यानपूर्वक, सजगतापूर्वक देखते गया है। वे भय और प्रलोभन के द्वारा लोगों को धर्म से जोड़ने के विरुद्ध रहना सत्य के फूलों को पहचानने की दूरबीन है।" उनकी दृष्टि में, हैं। उनकी दृष्टि में, "भय से धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म का "सत्य का आविष्कार तभी होता है, जब असत्य को जान लिया जाता शुभारंभ अभय से है। भय सत्य नहीं, असत्य है, मन की कमज़ोरी है। है।" उन्होंने सही सोच, सही दृष्टि,सही वाणी और सही व्यवहार के श्रद्धा का अभाव है। भयभीत करके हम किसी को धार्मिक और नैतिक रूप में सत्य को जीने का मार्ग बताया है। नहीं बना सकते। इससे धम का आरापण भर हा ता जाएगा, धम जे.कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में हिंसा के स्वरूप पर भी नसागक हो, इसके लिए भय नहा, समझ चाहिए; प्रलाभन नहा, विवेचन किया गया है। दोनों दर्शनों में हिंसा के कारण व निवारण पर आस्था चाहिए।" चर्चा की गई है। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, "जब तक किसी भी पुरुष में जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिक विकास के संदर्भ में 'मैं' का अस्तित्व है तब तक हिंसा मौज़द रहेगी।" उन्होंने हिंसा के निम्न मार्गदर्शन दिया है। जे. कृष्णमूर्ति ने तो सामाजिक एवं लिए भीतर में छिपे क्रोध, कंठा, प्रतिरोध जैसे नकारात्मक तत्त्वों को आध्यात्मिक विकास के उद्देश्य से निर्मित हुए संगठनों का विरोध किया उत्तरदायी ठहराया है। हिंसारहित जीवन जीने के लिए उन्होंने होश एवं है। वे कहते हैं, "आध्यात्मिक हेतु से निर्माण किया गया संगठन सजगता को अपनाने की सीख दी है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आतंक व्यक्ति को अपंग बना डालता है, उसके विकास को अवरुद्ध करता है। हिंसा. उग्रवाद का कारण अचेतन मन में छिपी विक्षिप्तताओं को माना व्यक्ति की विशेषता इसी में है कि वह स्वयं उस परम सत्य को खोज गया है। इनसे मक्त होने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ध्यान करने, भीतर के ले।" उनकी दृष्टि में, "समाज के भीतर परिवर्तन का महत्त्व गौण है, कषायों को पहचानने, जातिगत स्वार्थ की बजाय मानवीय दृष्टिकोण इसका आगमन अनिवार्यत: सहज रूप से होगा, जब एक मानव के रूप अपनाने, धर्म-मज़हब को राजनीति से दर रखने और श्रेष्ठ साहित्य का में हम स्वयं अपने भीतर यह परिवर्तनले आएँगे।" वर्तमान में प्रचलित विस्तार करने के सूत्र देते हैं। उन्होंने आतंकवाद की समस्या के पंथ-परम्परा, धार्मिक सिद्धांतों एवं दर्शनों को अस्वीकार करते हुए समाधान के रूप में निम्न बातें कही हैंउन्होंने कहा है, "जिस क्षण हमने किसी व्यक्ति का, पंथ का, धर्म का, 1.सरकार आतंकवाद को उखाड़ने की दृढ़ इच्छा-शक्ति पैदा करे। सिद्धांत या दर्शन का अनुयायी बनना स्वीकार किया, उसी क्षण हमने 2. आतंकवादियों में खौफ पैदा किया जाए। सत्य का अनुगमन करना छोड़ दिया। मानव को मुक्त करना ही एक 3.प्रबुद्ध लोग विश्व में अहिंसा का प्रचार-प्रसार करें। मात्र अति आवश्यक हेतु मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है।" 4.व्यक्ति धर्म-भक्त बनने से पहले राष्ट्र-भक्त बने। श्री चन्द्रप्रभ ने भी आध्यात्मिक विकास हेतु अंतर्दृष्टि को सम्यक् 5.राजनेता त्याग के आदर्श प्रस्तुत करें। बनाने पर बल दिया है। वे कहते हैं, "परमात्मा आसमान से उतरकर जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के संदर्भ में बेहतरीन नहीं आएगा। हमें उस दृष्टि को उपलब्ध करने की ज़रूरत है जिससे मार्गदर्शन प्रदान किया है। जे. कृष्णमूर्ति धर्म के वर्तमान स्वरूप से हम उसे यहीं पहचान सकें। मैं परमात्मा नहीं देता, मेरे पास तो केवल असंतुष्ट हैं। वे कहते हैं, "धर्म अब प्रचार और निहित स्वार्थ की बात वह दृष्टि है, वे आँखें हैं, जिससे मूर्छा में अंधा हुआ व्यक्ति चक्षुष्मान __ बन गई है, इसके चारों ओर संपत्ति और जायदाद खड़ी हो गई है। धर्म हो सके। अंतर्दृष्टि खुलते ही आप स्वयं अपने गुरु हो जाएँगे, स्वयं के मत, सिद्धांत, विश्वास और कर्मकांड तक सीमित होकर रह गया है, तीर्थंकर हो जाएँगे।" इस तरह जे. कृष्णमूर्ति व्यक्ति को अनुयायी न इसका दैनिक जीवन से पूर्णत: संबंध विच्छेद हो चुका है।" उन्होंने बनने की और श्री चन्द्रप्रभ अंतर्दृष्टि को उजागर करने की प्रेरणा देते हैं। धर्म की वास्तविकता समझने के लिए पहले सभी मतों का परित्याग जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'मैं' अर्थात् अहंकार करने की बात कही है। वे धर्म का अभिप्राय मन व हृदय की गुणवत्ता से को समस्या की जड़ माना गया है। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, "जब जोड़ते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने उसी धर्म को सार्थक माना है जो वर्तमान तक 'अह' माजूद ह तब तक द्वन्द्व रहगा।" उन्हान अह स जीवन की समस्याओं का समाधान देने में सक्षम हो। वे कहते हैं, छुटकारा पाने हेतु प्रयासमुक्त होने, कार्यरत अवस्था में 'अहं' का वर्षों तक का अनसण करने पर भी मन के विकार शांत निरीक्षण करने व सजग रहने के मंत्र दिए हैं। श्री चन्द्रप्रभ मुक्ति हेतु वह धर्म किस काम का! धर्म जीवित तभी हो पाएगा जब उसका 'मैं' अर्थात् कर्ताभाव से मुक्त होना अनिवार्य मानते हैं। उन्होंने परिणाम कल की बजाय आज मिलना शुरू हो।" उनकी दृष्टि में, कत्ताभाव से ऊपर उठन क लिए साक्षा भाव का विकास करन व "इंसान होकर इंसान के काम आना पहला धर्म है और भीतर की संबोधि टाइम्स113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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