Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 99
________________ ने कर्मबंधन और कर्म मुक्ति में पूर्वजन्म, पुनर्जन्म और पूर्णजन्म का रहस्य निहित माना है । श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्मज्ञान की प्राप्ति के उपायों का विस्तार से विवेचन किया गया है, जिसमें से श्री चन्द्रप्रभ ने मुख्य रूप से हृदयवान होकर जीवन जीने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "हृदयवान लोग ही आत्मा तक पहुँचते हैं, बुद्धिमान लोग उलझे हुए रह जाते हैं। हृदय एकमात्र मार्ग है आत्मा तक पहुँचने का, क्योंकि आत्मा हृदय है, भक्ति प्रेम और श्रद्धा का निवास मनुष्य के हृदय में ही होता है। हृदय मनुष्य का केन्द्र है, जीवन की धुरी है। हृदयवान होना आत्मवान होने की अनिवार्य शर्त है। बग़ैर हार्दिकता के मनुष्य, मनुष्य नहीं, वरन् मशीन है, मृत है। व्यक्ति हृदय में उतरे क्योंकि हृदय में ही अन्तर्यामी का वास है । " श्री चन्द्रप्रभ ने हृदयवान बनने के लिए अंत:करण की शुद्धि को आवश्यक माना है। उन्होंने अंत:करण की शुद्धि हेतु 'जागो मेरे पार्थ' पुस्तक में निम्न सूत्र प्रदान किए हैं 1. ध्यान-योग को अपनाएँ । 2. जीवन की हर गतिविधि संयमित हो । 3. प्रतिक्रिया व प्रतिशोध से बचें। 4. क्रोध, अहंकार, विकार की अभिव्यक्ति में विवेक-बोध बनाए रखें। 5. दुर्गुणों पर ध्यान देने की बजाय सद्गुणों को बढ़ाएँ । श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में इनके अतिरिक्त मृत्यु से मुलाकात और धर्म में प्रवेश नामक पुस्तकों में निम्न सूत्र जीवन से जोड़ने का मार्गदर्शन दिया गया है - 1. संन्यास या मुनित्व का आग्रह करने की बजाय आध्यात्मिक जिज्ञासा-भाव में अभिवृद्धि करें । 2. आत्म-तत्त्व को प्रधानता दें। 3. स्वयं को पढ़ें, मूल्यांकन करें व अन्तनिर्हित अवगुणों को पहचानें । 4. आत्मज्ञान की प्राप्ति के पाँच चरण अपनाएँ आत्म-तत्त्व के बारे में सत्संग सुनें, ग्रहण करें, विवेकपूर्वक चिंतन-मनन करें, उपलब्ध करें, प्रमुदित होवें । 5. जीवित और मृत दोनों को देखकर उनमें रहने वाली भिन्नता पर मनन करें। 6. जन्म, रोग, बुढ़ापा व मृत्यु के मर्म को समझें । 7. मैं कौन हैं, वर्तमान में मेरी चेतना कहाँ है? मैं मोह-मूच्छ के किस तिलिस्म में उलझा हैं जैसे प्रश्नों पर पुनः पुनः विचार करें। इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मज्ञान हेतु जीवनोपयोगी मार्गदर्शन प्रदान किया है। आत्मज्ञान प्राप्ति से क्या होगा? इसका समाधान देने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मज्ञान के परिणामों पर भी विस्तृत प्रकाश डाला है । वे इस प्रकार हैं 1. आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होने पर सदा आनंद-दशा रहती है। 2. भीतर में पूर्ण शांति, पवित्रता एवं शुद्धता का अहसास होता है। 3. दोष-मुक्त दशा की अनुभूति होती है। 4. जीवन में फिर कोई पाप न होता है। 5. अनासक्ति का उदय हो जाता है। 6. व्यक्ति तन- मन- विचारों की प्रकृति से स्वयं को भिन्न देखता है। 7. सबके प्रति समदर्शिता आ जाती है । Jain Education International 8. स्व-स्वरूप पर आश्चर्य जैसा होता है। 9. व्यक्ति स्वर्ग-नरक, भय, बंध, मोक्ष से मुक्त हो जाता है। 10. वह प्राणीमात्र से निःस्वार्थ प्रेम करने लगता है। 11. पीड़ा में भी समतामयी दशा रहती है। 12. कर्त्ता - भाव से छुटकारा मिल जाता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यद्यपि आत्मज्ञान की प्राप्ति कठिन है फिर भी इसे उपलब्ध किया जा सकता है। अगर आत्मज्ञानी पुरुष मिल जाए या भीतर से इसे पाने की प्यास जग जाए तो यह संभव हो सकता है। इस साध्य को साधने में श्री चन्द्रप्रभ का मार्गदर्शन वर्तमानोपयोगी है क्योंकि श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'आत्मज्ञान' का जीवन सापेक्ष विवेचन हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा का अर्थ, आत्मा का स्थान, आत्मज्ञान का महत्त्व, आत्मज्ञान की प्राप्ति के सूत्र, आत्मज्ञान की उपयोगिता आदि हर बिन्दु को छुआ है और उसे सरल भाषा में समझाने की कोशिश की है। उन्होंने आस्तिकता नास्तिकता की नई परिभाषाएँ देकर तत्त्व - दर्शन को समृद्ध किया है। वे आत्मज्ञान हेतु संन्यास की बजाय प्रगाढ़ आंतरिक जिज्ञासा भाव को महत्त्व देते हैं जो आम व्यक्ति के लिए ग्रहणीय है। इस प्रकार 'आत्मज्ञान' संबंधी यह विवेचन आत्मार्थियों के लिए दीप शिखा का काम करता है। आत्म-दर्शन व वीतरागता - हर प्राणी बंधनग्रस्त है। बंधन का कारण है : राग अनुराग राग को दूसरे शब्दों में आसक्ति कहा जाता है। आसक्ति के कारण ही जीव आत्मबोध के प्रकाश की ओर नहीं बढ़ पाता । शरीर, संबंध, इन्द्रियविषय, धन- जमीन आदि राग के प्रधान कारण हैं। राग कर्मबंधन का हेतु है और कर्म - बंधन जन्म-मरण का कारण। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बंधनों से मुक्त होने के लिए वीतराग भाव दशा को जीने की प्रेरणा दी गई है। पतंजलि ने भी कहा है. "वीतराग को विषय बनाने से चित्त स्थिर हो जाता है।" श्री चन्द्रप्रभ के आत्म-दर्शन में चार शब्दों का मुख्यतया उल्लेख हुआ है राग, विराग, वीतराग और वीतद्वेष श्री चन्द्रप्रभ ने दूसरों से जुड़े रहने को राग कहा है। दूसरे शब्दों में; सुख प्राप्त करने की इच्छा अर्थात् व्यक्ति से, वस्तु से, निमित्त से, परिस्थिति से, जिससे भी सुख मिलता है, उसकी कामना का नाम राग है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, “दूसरों से संबंध तोड़ना विराग है। विराग राग से मुक्ति नहीं, बल्कि यह राग के विपरीत है।" उन्होंने वीतराग का अर्थ राग से ऊपर उठना अर्थात् राम मुक्ति माना है और वीतद्वेष का अर्थ द्वेष-रहित हो जाना बताया है। | सामान्य तौर पर राग और प्रेम को एक ही माना जाता है, पर श्री चन्द्रप्रभ ने राग और प्रेम को भिन्न माना है। उनके अनुसार, "एक से प्रेम करना राग है और सबके प्रति, सारी धरती के प्रति भाईचारे का भाव रखना प्रेम है।" राग के विपरीत शब्द है द्वेष श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं. "दुःख का अनुभव होने पर दूसरे के प्रति पैदा होने वाली घृणा, नफरत, आक्रोश ही द्वेष है।" राग और द्वेष दोनों ही जीवन के प्रबल शत्रु हैं इनके कारण ही व्यक्ति दुःखी होता है और संसार में परिभ्रमण करता है। राग-द्वेष दोनों परस्पर पूरक हैं। राग ही कभी द्वेष में और द्वेष ही कभी राग में बदलता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में राग की अभिवृद्धि का कारण मूर्च्छा और लोभ को व द्वेष की अभिवृद्धि का कारण क्रोध और घमंड को माना गया संबोधि टाइम्स 9garg For Personal & Private Use Only

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