Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 96
________________ मस्तिष्क की ऊर्जा है । चित्त मस्तिष्क में और मस्तिष्क काया में रहता है। इस तरह चित्त काया का हिस्सा है और चेतना हमारी काया को ऊर्जा देती है। अतः चित्त, चेतना, काया परस्पर सहयोगी तत्त्व हैं। " व्यक्ति की जैसी चित्तवृत्तियाँ होती हैं वैसे ही उसके विचार व वैसा ही उसका आभामंडल होता है। वृत्ति चाहे अच्छी हो या बुरी, दोनों का जन्मस्थान एक ही होता है, इसलिए व्यक्ति चाहे तो चित्त वृत्तियों को रूपांतरित कर सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण हैं, "अंतर्मन के जिस धरातल से क्रोध पनपता है वहीं से प्रेम का भी उदय होता है। जहाँ से हिंसा आती है वहीं से करुणा भी बहती है। अगर क्रोध सुधर जाए तो प्रेम का अमृत रसधार बन जाता है। हिंसा जब अपना रास्ता बदल लेती है, तो वही करुणा बनकर दुनिया का कल्याण करने लगती है। वृत्तियों का यह रूपांतरण जीवन-विष का अमृत में रूपांतरण है।" इस तरह अच्छी चित्तवृत्ति जहाँ मुक्ति का कारण बनती है दूषित चित्तवृत्ति बंधन का निमित्त बन जाती है। श्री चन्द्रप्रभ ने प्रवृत्ति-शुद्धि से पूर्व वृत्ति-शुद्धि पर जोर दिया है। उन्होंने 'आध्यात्मिक विकास' पुस्तक में वृत्ति प्रवृत्ति का विस्तृत विश्लेषण किया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मैं निर्वृत्ति में विश्वास रखता हूँ, निर्प्रवृत्ति में नहीं । प्रवृत्ति घातक नहीं होती । प्रवृत्ति कृत्य है । प्रवृत्ति बुरी होते हुए भी वृत्ति अच्छी हो सकती है और प्रवृत्ति अच्छी होते हुए भी वृत्ति बुरी हो सकती है इसलिए प्रवृत्ति की बुराई को हटाने से पहले वृत्ति में रहने वाली बुराई को दूर करें।" गीता भी कर्म की बजाय कर्मफल का त्याग करने की प्रेरणा देती है। योग दर्शन भी चित्तवृत्तियों के निरोध की बात कहता है। प्रश्न चाहे रोग का हो या भोग का अथवा योग का श्री चन्द्रप्रभ ने सबके पीछे आधारभूत कारण वृत्तिसंस्कारों से भरे मन व चित्त को माना है। वे कहते हैं, "मन के धर्मों पर विजय प्राप्त कर लेना ही योग है, मन के धर्मों के आगे परास्त होना ही भोग है। वहीं देह और मन के धर्मों का पुनः पुनः पोषण करते रहना, उनकी दासता स्वीकार कर लेना ही रोग है।" श्री चन्द्रप्रभ ने विपर्यय, विकल्प, स्वप्न, मूर्च्छा, स्मृति को अशुभ वृत्तियों के अंतर्गत रखा है। और वृत्तिबोध हेतु प्रत्यक्ष-अनुमान प्रमाण एवं सद्गुरु के वचनों को सहयोगी माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ध्यान-साधना में तीर्थ, भगवान या देवी-देवता की मूर्ति के दर्शन होने को अक्लिष्ट विकल्प वृत्ति के अंतर्गत रखते हुए गुरु, ग्रंथ और मूर्ति से भी पार पहुँचने की प्रेरणा देते हैं। वे त्याग करने और संन्यास लेने से भी अधिक वृत्तियों की निरर्थकता का बोध करने पर ज़ोर देते हैं। वे कहते हैं, "वृत्तियों से मुक्त होने के लिए वनवास आवश्यक नहीं है, वृत्तियों की निरर्थकता का बोध उपादेय है। व्यक्ति श्रमण बनने से पहले सच्चा श्रावक बने, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि संन्यास लेने के बाद भी वह संसार के सपने देखता रहे।" "त्याग" के संदर्भ में उनका दृष्टिकोण है, "त्याग प्रवृत्ति है, उपभोग भी प्रवृत्ति है, किंतु उसकी पकड़ वृत्ति है इसलिए त्याग अच्छा है, किंतु त्याग की स्मृति को सँजोना त्याग की अच्छाई से सौ गुना बुरा है।" उनके मत में स्त्री को पतन का कारण मानना अन्यायपूर्ण है। उनकी दृष्टि में, "मन में पलने वाली कुंठित, दमित वृत्तियाँ और विकार ही व्यक्ति के पतन के मुख्य कारण हैं । " श्री चन्द्रप्रभ ने 'उड़िये पंख पसार' नामक पुस्तक में चित्तवृत्तियों के अंतर्गत भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित षट्लेश्या व हठयोग में • संबोधि टाइम्स __96 संबधि टाइ वर्णित षट्चक्र के सिद्धांतों का एक-दूसरे के पूरक के रूप में विस्तृत विवेचन किया है। उन्होंने चित्त की कषाययुक्त वृत्ति को लेश्या कहा है। जो शुभ-अशुभ दोनों होती हैं, पर विवेकबोध द्वारा अशुभ लेश्या को शुभ लेश्या में रूपांतरित किया जा सकता है। श्री चन्द्रप्रभ ने समाधि आत्मज्ञान, आत्मबोध, आत्मसर्वज्ञता, निर्मल विचार, पवित्र आभामण्डल, लेश्या शुद्धि, सुखी पारिवारिक संबंध, अंतर्द्वन्द्व से मुक्ति एवं मानवीय मूल्यों के संवर्द्धन हेतु चित्तशुद्धि की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। वे आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से चित्त शुद्धि को उपयोगी मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने चित्त-शुद्धि एवं चित्त से मुक्ति हेतु निम्न प्रेरणाएँ दी हैं1. समझ व बोध को गहरा करें। - 2. अभ्यास एवं वैराग्य को बढ़ाएँ। 3. अनित्य को अनित्य व नित्य को नित्य रूप जानें। 4. सजगता, सहजता व निर्लिसता को अपनाएँ। 5. ध्यान में उठने वाले विचार विकल्पों को जागरूकतापूर्वक देखें। 6. स्वप्न - दशा के प्रति सजग रहें । 7. यम-नियम-संयम को आचरण से जोड़ें। 8. सबके प्रति उदार दृष्टि लाएँ। 9. शरीर व उसके गुणधर्म, चित्त व चित्त के गुणधर्मों की निरंतर विपश्यना करें। 10. 'जियो और जीने दो' का मंत्र अपनाएँ। 11. परार्थ व परमार्थ मुखी जीवन जीएँ । 12. साक्षी - ध्यान का अभ्यास करें। 13. सुबह-शाम किताब के खाली पन्नों का स्वाध्याय करें। 14. संकल्प शक्ति को मजबूत कर मन को सही दिशा में नियोजित करें। इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि चित्त-शुद्धि जीवन-शुद्धि का अपरिहार्य चरण है। श्री चन्द्रप्रभ मानते हैं, "मन की वृत्तियों पर विजय पाना कठिन है, पर असंभव नहीं। मन के गुलाम होकर जीने की बजाय मन की वृत्तियों पर अंकुश रखना अधिक श्रेष्ठ है । " चित्त-शुद्धि से जीवन को आध्यात्मिक विकास के नए आयाम दिए जा सकते हैं । संन्यास और त्याग से भी पूर्व चित्त शुद्धि का समर्थन करके श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक-आध्यात्मिक जगत को नई दिशा दी है। एक तरह से श्री चन्द्रप्रभ का संपूर्ण आत्म-दर्शन मनोशुद्धि, चित्तशुद्धि व इससे भी अंतत: ऊपर उठने की प्रेरणा पर केन्द्रित है । आत्म-दर्शन व द्रष्टा भाव जीवन और जगत में प्रतिदिन अनेक अच्छी-बुरी घटनाएँ घटित होती रहती हैं। ज्यों-ज्यों व्यक्ति इन घटनाओं को गहराई से देखता है और मनन करता है, उसकी अंतर्दृष्टि उतनी ही आध्यात्मिक होती चली जाती है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "पहले मैं बहुत किताबें पढ़ता था, पर वे सब किताबें हमारे द्वारा लिखी गई हैं। यद्यपि मैंने दुनिया की महानतम किताबों से बहुत कुछ पाया है, पर जितना जगत को पढ़कर पाया उतना अन्य किसी किताब से नहीं।" अर्थात् जीवन और जगत अपने आप में शास्त्र का काम करते हैं। महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुष भी जगत की घटनाओं को देखकर वैराग्य वासित हुए थे। महावीर और बुद्ध दोनों ने दर्शन पर ज़ोर दिया है। दर्शन का अर्थ है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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