Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation
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साहित्य लोगों तक पहुँचाने की प्रेरणा दी है ताकि इक्कीसवीं सदी ध्यान के सान्निध्य से स्वस्थ विश्व का आनंद प्राप्त कर सके।
आत्म-दर्शन
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान रही है। यहाँ के ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने न केवल अध्यात्म की सूक्ष्मताओं को जाना, वरन् उसका विशद् निरूपण भी किया। अध्यात्म शब्द अधि+आत्म शब्दों से मिलकर बना है। अधि अर्थात् निकटता, समीपता और आत्म अर्थात् आत्मा, चेतना अथवा स्वयं । इस तरह आत्मा या स्वयं के समीप रहने का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म का संबंध आत्मा के साथ परमात्मा, ब्रह्म से भी माना गया है। मानक हिंदी कोश के अनुसार, "आत्मा तथा परमात्मा के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों के विषय में किया जाने वाला दार्शनिक चिंतन निरूपण या विवेचन अध्यात्म कहलाता है।"
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भारतीय धर्म-दर्शनों में आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म संबंधी प्रत्ययों पर विस्तृत विश्लेषण मिलता है। एक तरह से ये उनके केन्द्रबिन्दु रहे हैं। जैन दर्शन में आत्मा के तीन प्रकार हैं बहिरात्मा, अंतरात्मा व परमात्मा और परमात्मा के दो प्रकार - अर्हत् व सिद्ध के रूप में बताए गए हैं। भगवान महावीर ने जिन सूत्र में कहा है, "मन-वचन-काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करें ।" इस सूत्र के माध्यम से महावीर ने एक तरह से अध्यात्म को परिभाषित किया है। यजुर्वेद के अनुसार, "जिसकी शांत छाया में रहना ही अमरत्व प्राप्त करना है और उससे दूर रहना ही मृत्यु प्राप्त करना है, उस अनिर्वचनीय परम आत्म तत्त्व (चैतन्य तत्त्व) की हम उपासना करें। " वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार, "आत्मा का ही दर्शन करना चाहिए, आत्मा के संबंध में ही सुनना चाहिए, मनन-चिंतन करना चाहिए और आत्मा का ही निदिध्यासन-ध्यान करना चाहिए। एकमात्र आत्मा को सम्यक् जानने से सब कुछ जान लिया जाता है।" शास्त्रों में आत्मा को सब तत्त्वों से श्रेष्ठ माना गया है। महाभारत के भीष्मपर्व में कहा गया है, " शरीर से इन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं । इन्द्रियों से मन और मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है, वह आत्मा है। "गीता के अनुसार, "आत्मा तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सतोगुण की ओर बढ़ती हुई अंत में गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है।" इस तरह सभी भारतीय दर्शनों की धुरी आत्मा है और दार्शनिकआध्यात्मिक चिंतन की आधारशिला भी आत्मा ही है। अध्यात्म व विज्ञान
आज का युग भौतिक विज्ञान का युग है। आम व्यक्ति अध्यात्म को नहीं समझता, पर इतिहास बताता है कि जब-जब व्यक्ति अध्यात्म, दर्शन और नैतिकता से दूर हुआ तब-तब मानवता का ह्रास हुआ। महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन भी अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अध्यात्म की उपयोगिता को स्वीकार कर चुके हैं। अब अध्यात्म भी वैज्ञानिक अनुसंधानों का प्रमुख विषय बन रहा है। बुद्धि लब्धि (IQ) और संवेग लब्धि (EQ) के साथ इस सदी में आध्यात्मिक लब्धि (SQ) को भी विशेष महत्व दिया जा रहा है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम मानते हैं कि अध्यात्म अंदर की खोज़ है और विज्ञान अंदर नहीं जा सकता, पर विज्ञान बाहर की खोज है। सर्वांगीण विकास के लिए दोनों की ज़रूरत है। ओशो का कहना है, "नई सदी के मानव से यह
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अपेक्षा है कि वह न्यूटन, एडीसन, रदरफोर्ड, आइन्स्टीन आदि विज्ञान से समृद्ध हो, तो साथ ही बुद्ध, कृष्ण, ईसा और मोहम्मद के अध्यात्म से भी।'' श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन यात्रा पुस्तक में अध्यात्म और विज्ञान का संबंध उजागर करते हुए कहा है, " अध्यात्म आत्मा का विज्ञान है और विज्ञान प्रकृति का विज्ञान है। विज्ञान चलता है अणु से लेकर खगोल- भूगोल आदि के प्रयोगों पर और अध्यात्म चलता है अंतरंग की गहराइयों पर चेतना की शक्तियों पर बाहर को समझने के लिए विज्ञान सहयोगी है तो भीतर को समझने के लिए अध्यात्म सहयोगी है इसलिए दोनों पूरकता लिए हुए हैं।" इस तरह वर्तमान दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने एक मत से सृष्टि के संतुलित विकास में विज्ञान व अध्यात्म दोनों की परस्पर भूमिका एवं उपयोगिता को स्वीकार किया है।
श्री चन्द्रप्रभ का आत्म-दर्शन
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आध्यात्मिकता का वैज्ञानिक, जीवनसापेक्ष एवं विस्तृत विश्लेषण हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ विश्व के प्रत्येक सफल और महान् व्यक्तियों की श्रेष्ठता के पीछे आध्यात्मिक शक्ति, आध्यात्मिक शांति और आध्यात्मिक सौन्दर्य को मुख्य कारण मानते हैं। उनकी दृष्टि में, " अध्यात्म कोई ऐसा शब्द नहीं, जिसका संबंध किसी अलौकिक असाधारण व्यक्ति के साथ हो। अध्यात्म तो सीधे अर्थ में अपने में अंतर्निहित मानवीय और चैतन्य शक्ति के साथ एकाकार होना है। " श्री चन्द्रप्रभ अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिए किसी जंगल, गुफा अथवा निर्जन स्थानों में जाना अनिवार्य नहीं मानते हैं। वे कहते हैं, " अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिए हमें किसी गुफा में जाने की ज़रूरत नहीं है केवल स्वयं को शांतिमय और | आनंदमय मनाने की मानसिकता तैयार करने की आवश्यकता है । "
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श्री चन्द्रप्रभ के अध्यात्म में 'आत्मा' प्रत्यय मुख्य तत्त्व है। श्री चन्द्रप्रभ के आत्म दर्शन ने जीवन का मूल आधार' आत्मा' को माना है। श्री चन्द्रप्रभ आत्मा को स्वयं की स्वीकृति बताते हैं । वे कहते हैं, "जीवन अपना अस्तित्व आत्मा से ही पाता है। जैसे बिना मुर्गी के अण्डा नहीं होता, बिना माँ के बच्चा नहीं होता वैसे ही बिना आत्मा के जीवन नहीं होता। " श्री चन्द्रप्रभ ने शरीर व आत्मा में भेद किया है। उनका दृष्टिकोण है, " आत्मा वह तत्त्व है, जिसके चलते हम जीवित रहते हैं और जिसके निकल जाने पर हमारे परिजन हमें श्मशान छोड़ आते हैं।" वे आत्मा को शब्दों से परे, अंधकार व प्रकाश से मुक्त मानते हैं। उनका दृष्टिकोण है, " अनुभव दशा में जिस शून्य को, जिस ऊर्जा को जाना जाता है, आत्मा उसे दिया एक संबोधन, एक संज्ञा है ।" वे आत्म-दर्शन का अर्थ स्वयं को देखना बताते हैं। आत्म-स्वरूप की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, "आत्मा अर्थात् हम स्वयं, आत्मा यानी अनंत जीवन का द्वार। आत्मा यानी जीवन का आधार । आत्मा यानी वह विराट् जिसे शरीर ने आच्छादित कर डाला आत्मा यानी चैतन्य | जड़ता के पार चैतन्य । चैतन्य के स्वामी होकर भी हम जड़ बने बैठे हैं। जड़ता ने आत्मा के आनंद को अज्ञात और अज्ञेय बना रखा है। हमसे हटकर आत्मा नहीं है, हमारा अस्तित्व नहीं है। आत्मा तो वह सत्य है, जो साक्षात् है प्राणी मात्र का त्रैकालिक सत्य है।" आत्मा के स्वरूप पर चर्चा करने पर यह जिज्ञासा सहज पैदा होती है कि इसका निर्माण किसने किया? यह अनिर्मित है अथवा निर्मित ? इस जिज्ञासा का
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