Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation
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ऊपर मानते हैं और धर्म का उपयोग जीवन के लिए करने की सिखावन देते हैं। वे कहते हैं, “धर्म और सिद्धांतों का जन्म मनुष्य के लिए होता है, मनुष्य का जन्म धर्म और सिद्धांतों के लिए नहीं होता। मनुष्य के हिसाब से युग बदलते हैं और युगों के हिसाब से धर्म बदलते हैं। हर पुरानी चीज, पुराने सिद्धांत, पुरानी मान्यताएँ, पुराने रीति-रिवाज, परम्पराएँ और धर्म महान होते हैं। पर धर्म न तो पुराना महान होता है और न नया महान होता है वही धर्म महान होता है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाये, हमारे जीवन को आनंदपूर्ण, संगीतपूर्ण और सौंदर्यमय बनाये।'' उन्होंने जीवन में प्रेमभाव की अभिवृद्धि करने का मार्गदर्शन
दिया है। उन्होंने प्रेमरहित जीवन को नीरस माना है। श्री चन्द्रप्रभ जीवन की तुलना वीणा के साथ करते हुए उसे वीणा के तारों की तरह साधने की कला सिखाते हैं। वे कहते हैं, "इंसान का जीवन छहतार वाले गिटार की तरह है। जरा सोचिए कि शरीर, मन, आत्मा, घर, व्यापार और समाज में से ऐसा कौन-सा तार है, जिसे आप अब तक नजर अंदाज कर रहे थे। सारे तारों को साधिए और उनमें संतुलन बैठाइए, आप सफलता के संगीत का पूरा आनंद ले सकेंगे।"
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श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को नश्वर, दुःखपूर्ण या सुख रहित बताने की बजाय उसे संगीत पूर्ण, सौन्दर्य युक्त एवं आनंदपूर्ण माना है । वे कहते हैं, "जीवन से बढ़कर जीवन का कोई मूल्य नहीं है, जीवन के आगे तो पृथ्वी भर की संपदाएँ तुच्छ और नगण्य हैं। जीवन के सौन्दर्य को परिपूर्णता के साथ जीओ। जीवन के संगीत को सुनो। उस संगीत के आगे हर संगीत फीका है। उठालो जीवन की बाँसुरी को, साध लो अँगुलियाँ अपनी संवेदनाओं को जाग्रत करो और सार्थकता के साथ जीवन जीयो।" अब तक हमें गीता, रामायण, महाभारत पढ़ने की प्रेरणाएँ दी गईं और राम- कृष्ण - महावीर-बुद्ध से प्रेम करने की सिखावन दी गई, पर श्री चन्द्रप्रभ आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं, "हमने रामायण को पढ़ा, पर इस विराट जगत को नहीं; गीतामहाभारत को पढ़ा, पर जीवन को नहीं; महापुरुषों से प्रेम किया, पर स्वयं से नहीं; परिणाम यह आया कि रामायण को सौ दफा पढ़ने के बावजूद हम राम न हो पाए और गीता का नियमित पाठ करने के बावजूद हमारे जीवन में उसके माधुर्य का, उसके सत्य और योग का गीत फूट न पाया। जब तक हमारी नपुंसक बन चुकी चेतना में भारत' का भाव न जागे, आत्मविश्वास का सिंहत्व न भर उठे, जीवन-जगत का बोध न हो जाए तब तक महाभारत को पढ़ लेने पर से भी क्या हो जाएगा।"
श्री चन्द्रप्रभ ने मनुष्य के धर्म को सच्चा धर्म और जगत पर पल्लवित होने वाले जीवन को सच्चा शास्त्र कहा है। स्व-अनुभव व्यक्त करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जगत से बढ़कर कोई श्रेष्ठ किताब नहीं है और जीवन से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है। मैं पाठक हूँ, अध्येता हूँ जीवन का, जगत का, मैं द्रष्टा हूँ जीवन जगत में होने वाली हर इहलीला का।"
इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि वे जीवन के प्रति पूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। उनकी जीवन से जुड़ी हर व्याख्या वैज्ञानिकता लिए हुए है। वे कलात्मक जीवन का निर्माण चाहते हैं और नई दृष्टि से जीवन से जुड़े हर पहलू की व्याख्या करते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का विचार एवं दर्शन अतीत का नया संस्करण है और उज्ज्वल भविष्य की चमक लिए हुए है। आज इंसान के लिए पहले जीवन मुख्य है फिर
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दूसरी चीजें । व्यक्ति अपने जीवन को सुखी, सफल एवं मधुर बनाना चाहता है और इसके लिए वैज्ञानिक मार्ग की अपेक्षा रखता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन इस अपेक्षा को पूरा करने में पूर्ण सक्षम है। उनके जीवन-दर्शन को विस्तार से समझने के लिए उसे विभिन्न बिन्दुओं से विवेचित कर प्रस्तुत किया जा रहा है, जो कि इस तरह हैजीवन और जगत
श्री चन्द्रप्रभ जीवन की तरह जगत के प्रति भी सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। वे जीवन से जितना प्रेम रखते हैं उतना ही जगत से भी। उन्होंने भारतीय संस्कृति के 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के मंत्र को आत्मसात् किया है । जगत के सकारात्मक पक्ष की विवेचना करते हुए वे कहते हैं, " अपनी शांत चित्त स्थिति में जब-जब भी बैठकर सारे जगत को निहारता हूँ तो अनायास ही जगत के प्रति अहोभाव उमड़ आता है। प्रकृति के द्वारा रचे गए पहाड़, उमड़ते-घुमड़मे बादल, चहचहाट करती चिड़ियाएँ, हवा के झोंकों से हिलती हरे-भरे वृक्षों की डालियाँ, समुद्र में उठती लहरें और मिट्टी की तहों में छिपा कुओं का मीठा पानी । कितना सुरम्य स्वरूप है यह सब ! सचमुच हँसते-खिलते चाँद-सितारों को देखकर अंतआत्मा के गीत फूट पड़ते हैं और तब-तब निरभ्र आकाश को देखकर अन्तस् का आकाश रूबरू हो जाता है।'
जगत के प्रति सार और निःसार दोनों रूपों पर टिप्पणी करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " धरती पर ऐसा कोई पहलू नहीं है जिसका कोई सारतत्त्व न हो, ऐसा भी कोई पहलू नहीं है जिसमें निःसारता न छिपी हो।" उन्होंने सार को सार रूप जानने और असार को असार रूप जानने की प्रेरणा दी है। वे इसी समझ को सत्य और सम्यक् दृष्टि कहते हैं। उन्होंने यह जानना अर्थहीन माना है कि जगत को किसने बनाया या जगत को बनाने वाले को किसने बनाया। वे तो जीवन और जगत को जाने, सुख-दुःख से मुक्त होने और सुख प्राप्ति के सूत्रों को तलाशने
प्रेरणा देते हैं। उनकी दृष्टि में, "जीवन-जगत को ध्यानपूर्वक देखने से चेतना में मनन का अंकुरण फूटता है, मनन से मार्ग खुलता है और मनुष्य में मनु साकार होता है।" किताबों और शास्त्रों तक सीमित रहने वालों को वे कहते हैं, "किताबें अंतिम सीढ़ी नहीं हैं। सृष्टि के हर डगर पर वेद, कुरआन, बाइबिल के पत्रे खुले हुए हैं, बस सीखने और जानने की ललक होनी चाहिए।" इस तरह उन्होंने पवित्र किताबों के साथ जीवन जगत और प्रकृति से भी सीखने की प्रेरणा दी है। जीवन और खुशहाली
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श्री चन्द्रप्रभ खुशी भरे जीवन जीने के समर्थक हैं। उन्होंने खुशियों से भरा जीवन जीने का बेहतरीन मार्गदर्शन दिया है। आज इंसान के पास सब कुछ है, पर मन की शांति और भीतर की खुशी नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ मनुष्य को प्रेरणा देते हुए कहते हैं, "जिओ शान से, शुरुआत मुस्कान से।" जिंदगी में चिंता, क्रोध, तनाव जैसी अनेक समस्याओं का सामना व्यक्ति को करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वह नाखुश हो जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन जीने की वह कला एवं शैली दी है जो जीवन को स्वर्गनुमा व खुशनुमा बनाता है। वे कहते हैं, "जीवन बाँस
पोंगरी की तरह है जिस पर सुर साधकर किसी मुरलीधर की तरह स्वर्ग के गीत गाए जा सकते हैं। "
श्री चन्द्रप्रभ ने हँसते-मुस्कुराते हुए जीने को खुशी भरे जीवन का आधार सूत्र बताया है। वे कहते हैं, "जो दिल से हँसते हैं, उन्हें दिल का
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