Book Title: Samaysara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

Previous | Next

Page 31
________________ 14. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि॥ जो देखता है पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे आत्मा को कर्मबंधन से रहित, अस्पर्शित अन्य से रहित अणण्णय (ज) 1/1 सवि (पस्स) व 3/1 सक (अप्पाण) 2/1 [(अबद्ध)+(अपुट्ठ)] [(अबद्ध) भूकृ अनि(अपुट्ठ) भूकृ 2/1 अनि] (अणण्णय) 2/1 वि 'य' स्वार्थिक (णियद) 2/1 वि [(अविसेसं)+(असंजुत्त)] अविसेसं (अविसेस) 2/1 वि असंजुत्तं (असंजुत्त) भूकृ 2/1 अनि (त) 2/1 सवि (सुद्धणय) 2/1 (वियाण) विधि 2/1 सक स्थायी णियदं अविसेसमसंजुत्तं अंतरंग भेद-रहित अन्य से असंयुक्त उसको सुद्धणयं शुद्धनय वियाणीहि जानो अन्वय- जो अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं अविसेसमसंजुत्तं पस्सदि तं सुद्धणयं वियाणीहि। अर्थ- जो (नय) आत्मा को कर्मबंधन से रहित, (पर से) अस्पर्शित, अन्य (विभाव पर्यायों) से रहित, स्थायी, अंतरंग भेद-रहित और अन्य (रागादि) से असंयुक्त देखता है उसको (तुम) शुद्धनय जानो। 1. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ 691 (24) समयसार (खण्ड-1)

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130