Book Title: Samaysara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 85
________________ 67. पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव। देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता॥ पज्जत्तापज्जत्ता सुहमा बादरा [(पज्जत्त)+ (अपज्जत्ता)] *पज्जत्त' (पज्जत्त) 1/2 वि पर्याप्त अपज्जत्ता (अपज्जत्त)1/2 वि अपर्याप्त (ज) 1/2 सवि (सुहुम) 1/2 वि सूक्ष्म (बादर) 1/2 वि बादर अव्यय तथा (ज) 1/2 सवि अव्यय निश्चय ही (देह) 6/1 देह के [(जीव)-(सण्णा ) 1/2] जीवों के नाम (सुत्त) 7/1 आगम में (ववहार) 5/1 व्यवहारनय से पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (उत्त) भूकृ 1/2 अनि चेव देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता कहे गये अन्वय- जे सुत्ते पज्जत्तापज्जत्ता य जे सुहमा बादरा ववहारदो जीवसण्णा उत्ता चेव देहस्स। अर्थ- जो आगम में पर्याप्त-अपर्याप्त तथा जो सूक्ष्म-बादर व्यवहारनय से जीवों के नाम कहे गये (हैं) (वे) निश्चय ही देह के (नाम) (हैं)। __जो जीव पर्याप्त नामकर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर लेते हैं वे पर्याप्त कहलाते हैं। जो जीव अपर्याप्त नामकर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं कर पाते वे अपर्याप्त कहलाते हैं। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) (78) समयसार (खण्ड-1)

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