Book Title: Samaysara Part 01 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Apbhramsa Sahitya AcademyPage 29
________________ 12. सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे || सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं ववहारदेसिदा 135915 1919 ल पुण दु अपर दा भावे (सुद्ध) 1 / 1 वि [(सुद्ध) + (आदेसो)] [(सुद्ध) वि- (आदेस) 1 / 1] शुद्ध का निरूपण (ण) विधि 1/1 समझा जाने योग्य [ ( परम) वि- (भाव) - ( दरिसि) 3 / 2 वि] शुद्ध आत्मभाव (की प्राप्ति) में रुचि रखनेवाले के द्वारा [(ववहार) - (देस) भूक 1/2] व्यवहारनय के द्वारा उपदेश दिए गए अव्यय (ज) 1/2 सवि अव्यय शुद्धनय (अ-परम) 7/1 वि (ट्ठिद) भूकृ 1/2 अनि (भाव) 7/1 और जो ही अ- परम में दृढ़मना (आत्म) भाव में अन्वय सुद्धादेसो सुद्धो परमभावदरिसीहिं णादव्वो पुण जे अपरमे भावे ट्ठिदा दु ववहारदेसिदा । अर्थ - (एकत्व स्वरूप) शुद्ध (आत्मा) का निरूपण शुद्धनय (शुद्ध आत्मदृष्टि है)। (वह) (शुद्धनय / शुभ-अशुभ से परे) शुद्ध आत्मभाव (की प्राप्ति) में रुचि रखनेवाले के द्वारा (ही) समझा जाने योग्य (है) और जो अ- परम ( शुभअशुभ) (आत्म) भाव में दृढ़मना (है) (वे) ही व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/ परदृष्टि) के द्वारा उपदेश दिए गए ( हैं ) ( क्योंकि वे उसी को समझने के योग्य हैं)। (22) समयसार (खण्ड-1)Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130