Book Title: Samaysara Part 01 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Apbhramsa Sahitya AcademyPage 49
________________ 32. जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति॥ मोह को पादपूरक जीतकर । जिणित्ता णाणसहावाधियं ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण मुणदि (ज) 1/1 सवि (मोह) 2/1 अव्यय (जिण) संकृ [(णाणसहाव)+(अधियं)] [(णाण)-(सहाव)(अधिय) 2/1 वि] (मुण) व 3/1 सक (आद) 2/1 (त) 2/1 सवि [(जिद) भूक अनि(मोह) 2/1 वि] (साहु) 2/1 [(परमअट्ठ)(वियाणय) 1/2 वि (बेंति) व 3/2 सक अनि अनुभव करता है आत्मा आदं उसको जिदमोहं जीते हुए मोहवाला साहुं परमट्ठवियाणया साधु को परमार्थ को जाननेवाले बेंति कहते हैं अन्वय- जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं आदं मुणदि तं साहुं परमट्ठवियाणया जिदमोहं बेंति। - अर्थ- जो (साधु) मोह को जीतकर ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, उस साधु को, परमार्थ के जाननेवाले (शुद्धात्मा का अनुभव करनेवाले) (आचार्य), जीते हुए मोहवाला (पुद्गलात्मकमोहनीय कर्म को दबानेवाला) कहते हैं। (42) समयसार (खण्ड-1)Page Navigation
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