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इहभव परभव आचाँ, पाप अधिकरण मिथ्यात्व रे; जे जिनाशातनादिक घणां, निदिए तेह गुणघात रे. १० गुरुतणां वचन जे अवगणी, गुंथिया आप मत जाल रे; बहुपरे लोकने भोळव्यां, निदिए तेह जंजाल रे. जेह हिंसा करी आकरी, जेह बोल्या मृषावाद रे; जेह परधन हरी हरखीयां, कीधलो काम उन्माद रे. जेह धन धान्य मुर्छा धरी, सेवीया चार कषाय रे; राग ने द्वेषने वश हुआ, जे कीयो कलह उपाय रे. १३ जूठ जे आळ परने दिया, जे कर्या पिशुनता पाप रे; रति अरति निंद माया मृषा, वळीय मिथ्यात्व संताप रे. १४ पाप जे एहवा सेवियां, निदिए तेह त्रिहु काल रे; सुकृत अनुमोदना कीजीए, जिम होय कर्म विसराल रे. १५ विश्व उपकार जे जिन करे, सार जिन नाम संयोग रे; तेह गुण तास अनुमोदिए, पुण्य अनुबंध शुभयोग रे. १६ सिद्धनी सिद्धता कर्मना, क्षय थकी उपनी जेह रे; जेह आचार आचार्यनो, चरण वन सिंचवा मेह रे. १७ जेह उवज्झायनो गुण भलो, सूत्र सज्झाय परिणाम रे; साधुनी जेह वळी साधुता, मूळ उत्तर गुण धाम रे. १८ जेह विरति देशश्रावक तणी, जेह समकित सदाचार रे;
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