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ए चार प्रकारे रे जीव जाये नारकी. कूडकपट ने गूढ माया करे, वळी बोले मृषावादजी; कुडा तोलां ने कुडां राखे मापलां, खोटा लेख लखायजी, ए चार प्रकारे रे जीव जाय तिर्यंचमां. भद्रिक परिणामे रे सरल स्वभावथी,
वळी विनयतणां गुण गायजी; दयाभाव राखे जे दिलमां, मत्सर नही घटमांयजी, ए चार प्रकारे रे जीव जाय मनुष्यमां. सरागपणाथी रे पाळे साधुपगुं, वली श्रावकनां व्रत बारजी; अज्ञानकष्ट ने अकाम निर्जरा, तिणशुंसुर अवतारोजी, ए चार प्रकारे रे जीव थाय देवता. ज्ञानथी जाणे रे जीव-अजीवने, श्रद्धाथी समकित थाय जी; चारित्रथी रोके नवां कर्म आवतां,
तपथी पूर्वलां कर्म खपावेजी. ए चार प्रकारे रे जीव जाय मोक्षमां. आर्त-रौद्रध्यान बेउ परिहरो, धर्म-शुक्ल धरो ध्यानजी; परपरिणति तजी निजपरिणति भजो,
तो जीवनुं शिवनिशानजी. मति प्रमाणे रे गति थाय जीवनी.
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