Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
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पंजाब में पुनः आगमन और कार्य तथा तपस्वी मोहनलालजी सब पैदल चलकर गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। ये आपके दर्शन करने तथा पंजाब में पधारने की विनती करने के लिए यहाँ आये थे। विनती करके आठों श्रावक पंजाब वापिस चले गए । तपस्वी मोहनलालजी नेत्रहीन (प्रज्ञाचक्षु) होते हुए भी आपश्री के साथ ही विहार में रहे। इससे उनकी गुरुदेव के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति का अनन्य परिचय मिलता है।
चौमासे उठे आपश्री ने पंजाब की तरफ विहार किया। रास्ते में तपस्वीजी को गुरुदेव से एकान्त में धर्मचर्चा करने तथा प्रत्यक्ष अनुभव की बातों को सुनने का मौका मिलता । इस प्रकार ज्ञान की वृद्धि करते हुए तपस्वीजी का चित्त हर्षित हो उठता। पंजाब में पुनः आगमन और कार्य
सर्वप्रथम आप अपनी जन्मभूमि दुलूआ गाँव में पधारे । वहाँ कुछ दिन स्थिरता करके फिर आप गाँव बडाकोट साबरवान (जहाँ आपने अपनी आठ वर्ष की आयु से लेकर दीक्षा लेने से पहले तक अपनी माताजी के साथ निवास किया था) में पधारे । वहाँ पर आपने वि० सं० १९१८ (ई० स० १८६१) में एक मकान के नीचे के कमरे में सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेव की मूर्ति तथा ऊपर की मंजिल पर एक चौबारे में वेदी बनवाकर श्रीजिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा विराजमान करवाई । कारण यह था कि आप जन्म से सिक्ख धर्मानुयायी जाट सरदार थे । इस गाव में अथवा आपके जन्मवाले गाँव में जैनों का एक भी घर नहीं था और न ही इन गांवों के निवासी जैनधर्म से परिचित थे । उन गाँववालों की श्रद्धा के अनुकूल आपश्री ने उनके मान्य गुरु नानकदेव की मूर्ति को बिराजमान कराया और साथ ही ऊपर की मंजिल में जैनधर्म के
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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