Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
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सद्धर्मसंरक्षक आवागमन तथा विहार का अभाव होता अथवा उनका विहार संभव न होता, ये लोग उन क्षेत्रों को संभालते । वहाँ के श्रावक-श्राविकाओं में धर्म-संस्कार सुदृढ रखने में सदा प्रयत्नशील रहते थे। अनेक क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां पर इन्होंने ही जैनधर्म का निःसन्देह संरक्षण किया है और उसकी अभिवृद्धि भी की है।
परन्तु वर्तमान यतियों-श्रीपूज्यों में यह बात दृष्टिगोचर नहीं होती । अब तो ये लोग अधिकतर घर-गृहस्थी बसाकर विवाहित होने लग गये हैं। इसलिये श्रीजैन निग्रंथ मुनि के वेष की ओट में होनेवाले अनर्थों का सब धर्म-प्रेमियों के द्वारा प्रतिकार किया जाना परमावश्यक है । जब तक सारा जैन समाज इस अनर्थ को उखाड फेंकने के लिये संगठित होकर प्रयत्नशील नहीं होगा, तब तक ऐसे अनाचार का सर्वथा निवारण नहीं हो सकता। इस की उपेक्षा करना जैनसमाज को पतन के गर्त में धकेलना है। इसलिये इनकी भक्ति से दूर रहना परमावश्यक है, जिससे समाज पतन से बचे और इनको भी उन्मार्गी बनने का प्रोत्साहन न मिले ।
मुनि मूलचन्दजी और मुनि वृद्धिचन्दजी के ज्ञान, त्याग, वैराग्यमय चारित्र की श्रावक-श्राविका वर्ग पर बहुत ही सुन्दर छाप पडी । इनके उपदेश में बहुत प्रभाव था । आपने संघ में अमृत छींटना शुरू कर दिया । यह सारी बात लोगों के दिलों में बिठला दी गई कि त्याग-वैराग्यमय चारित्रवान ज्ञानी मुनिराज ही सुपात्र है
और इनकी भक्ति से ही आत्मकल्याण संभव है। जो लोग शिथिलाचारियों के भक्त बन चुके थे, उन्हें उपदेश द्वारा समझाकर प्रयासपूर्वक कंटकाकीर्ण क्षेत्रों को साफ करके उनमें धर्म के बीज बोये।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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