Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust

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Page 184
________________ १७६ सद्धर्मसंरक्षक (इ) योग्य गुरु की खोज के लिये गुजरात में आने पर भी लगभग दो वर्ष निकाल दिये । वि० सं० १९१० ( ई० स० १८५३) में हम लोग गुजरात में आये गुरु की खोज में गुजरात और सौराष्ट्र में पालीताना, भावनगर, अहमदाबाद आदि अनेक नगरों में घूमे, उस समय बहुत ही अल्प संख्या में मात्र गुजरात और सौराष्ट्र में ही संवेगी साधु थे। अहमदाबाद में मुनि मणिविजयजी से मिलने पर ऐसा अनुभव किया कि आप भद्र-प्रकृति, शांत स्वभाव गुणयुक्त हैं। इसलिये इनके पास दीक्षा लेने के लिये प्रेरित हुआ। वि० सं० १९१२ ( ई० स० १८५५) में तुम (मूलचन्द और वृद्धिचन्द) दोनों के साथ आपके पास तपागच्छ की दीक्षा ग्रहण की यह तो तुम जानते ही हो। (७) गुरुदेव ! क्या इस गच्छ में सब साधु शुद्ध सामाचारी पालन करनेवाले हैं ? मूला ! (अ) हमने तपागच्छ स्वीकार किया है, तपा-कुगच्छ नहीं। सब जीव एक समान नहीं होते। जो आत्मार्थी मुमुक्षु होते हैं वे पूर्वाचार्यों द्वारा कथित शुद्ध सामाचारी पालने से ही आत्मसाधन करते हैं। दूसरों के दोष दर्शन करने से अपनी आत्मा को कोई लाभ नहीं होता । उपाध्याय यशोविजयजी आदि महापुरुषों के ग्रंथों को पढने से तपागच्छ सामाचारी मुझे आगमानुकूल प्रतीत हुई है। यदि हमें अपनी आत्मा का कल्याण करना है तो इसकी शुद्ध सामाचारी का आचरण हमें करना है जो आचरण में लावेगा उसी का कल्याण होगा । जो आचरण नहीं करेगा वह आराधक नहीं, विराधक है। विराधक का कल्याण संभव नहीं। I Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [176]

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