Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust

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Page 203
________________ संवेगी दीक्षा ग्रहण आपके साथ शास्त्रार्थ में करारी हार खा चुका था। अब उसके मन में बदला लेने की प्रबल भावना हो गई। एक दिन शांतिसागर गुरुदेवश्री बूटेरायजी के पास आया और कहने लगा कि "महाराज ! मैं आपके शिष्य आनन्दविजय के साथ व्याख्यान-सभा में धर्म-चर्चा करना चाहता हूँ। इसलिये मैं आपके पास आया हूँ। आप मेरा उनसे शास्त्रार्थ कराइये । मैं आप से यह भी चाहता हूँ कि हम दोनों के शास्त्रार्थ में मध्यस्थ आपश्री ही बनें।" शांतिसागरजी ने ऐसा निश्चय कयों किया था ? ऐसा निश्चय करने का कारण यह था कि "पूज्य गुरुदेव बूटेरायजी महाराज अब वाद-विवाद में पडना नहीं चाहते थे । क्योंकि आप अन्य सब प्रवृत्तियों को छोडकर सारा समय ज्ञान, ध्यान, आत्मचिंतन में ही तल्लीन रहते थे। उसने सोचा कि आप मध्यस्थता स्वीकार करने के लिये कदापि मानेंगे नहीं । आपके इन्कार कर देने पर मुझे (शांतिसागर को) ऐसा कहने का अवसर मिल जावेगा कि मैं तो आत्मारामजी से शास्त्रार्थ करने को तैयार हूँ और इसी उद्देश्य से उन्हीं के गुरु श्रीबुद्धिविजयजी के पास गया था तथा उन्हीं को मध्यस्थ बनने का अनुरोध भी किया था किन्तु वे माने ही नहीं। इससे तो यही फलित होता है कि उनमें शास्त्रार्थ करने की योग्यता और शक्ति ही नहीं हैं । इसलिये मेरे सत्य-विचारों का प्रतिवाद करना उनके सामर्थ्य की बात नहीं है। इस प्रकार पहले शास्त्रार्थ में खोई हुई मान-प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हो जाने से मेरे मत-पंथ को प्रचार तथा प्रसार पाने में अनायास ही सफलता पाने का अवसर प्राप्त होगा।" Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013)p6.5 [195]

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