Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
View full book text
________________
१७०
सद्धर्मसंरक्षक प्रश्नोत्तर नहीं करना चाहिये । यदि ऐसा व्यक्ति पहले स्वयं प्रश्न अथवा धर्म-चर्चा शुरू करे तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का विचार करके उचित समझे तो बोलना चाहिये, यदि उचित न समझे तो मौन रहे। जैसे आत्मरक्षा हो वैसे करना चाहिये, परन्तु वितंडावाद में, कदाग्रह में पडकर समय और शक्ति का अपव्यय करना योग्य नहीं है। इससे क्लेश के सिवाय और कुछ नहीं है। कहा भी है कि "जिणवयणे अटे परमद्वे सेसे अनटे ।" जैसे-जैसे अपने तथा धर्म-चर्चा करनेवाले के आत्मधर्म में वृद्धि हो वैसे-वैसे करना चाहिये।
(२) गुरुदेव ! तीर्थ किसे कहना चाहिये?
मूला ! जो संसार-समुद्र से स्वयं तरे और दूसरों को तारे उसे तीर्थ कहना चाहिये । वह तीर्थंकर की आज्ञा से संयुक्त हो । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्-चारित्र सहित हो । श्रीश्रमणचतुर्विध संघ को तथा तीर्थपति तीर्थंकर को तीर्थ कहना चाहिये। यह बात विजयलक्ष्मीसूरिजी कृत बीसस्थानक की अन्तिम पूजा में वर्णित है।
(३) गुरुजी ! संघ किसे कहना चाहिये ?
मूला ! जो जिनागम के निर्मल ज्ञान से प्रधान ऐसे सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्र गुणों से युक्त हो और जिनाज्ञा-संयुक्त हो, उसे संघ कहना चाहिये । कहा भी है -
"निम्मलनाणपहाणो दंसणजुत्तो चरित्तगुणवंतो ।
तित्थयराणजुत्तो वुच्चइ एयारिसो संघो ॥ १. १-जिनवचनस्य यथावदवगमः सम्यग्ज्ञानम् ।
२-इदमित्थमेव इति तस्य श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । ३-तदुक्तस्य यथावदनुष्ठानं सम्यक्चारित्रम् ।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5
[170]