Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
View full book text
________________
१७२
सद्धर्मसंरक्षक तो अनजान भोले लोग उस विषमिश्रित दूध को पीकर मृत्यु को प्राप्त हो जावेंगे। वैसे ही यदि मिथ्यादृष्टि में कोई गुण हो तो उसकी अनुमोदना करने से जीव संसारसमुद्र से तर नहीं सकता।
(आ) यदि औषध गुण करनेवाली है, पर उसमें कोई शल्य (तीर-कांटा) आदि पड़ा हुआ हो उस शल्य सहित औषध को रोगी सेवन कर जावे तो यह अनेक शल्य (व्याधियाँ) उत्पन्न करेगी। लाभ के बदले हानि हो और अन्त में मृत्यु भी संभव हो । इसलिये मिथ्यात्व के तीर आदि को निकाल कर औषध का प्रयोग करे तो जीव मोक्ष का आराधक बन सकता है। दोषयुक्त औषधि से रोग में वृद्धि हो तथा निर्दोष औषधि के सेवन से निरोगता प्राप्त हो ऐसा समझ कर वीतराग केवली प्रभु के कहे हुए कल्पानुसार लक्षणवाले देव, गुरु, धर्म की भाव से सेवा करनी चाहिये। परन्तु झूठ कदाग्रह
और हठ में पडना योग्य नहीं है। सुदेव, सुगुरु, सुधर्म की उपासना करने योग्य है और कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का त्याग करना योग्य है।
यह बात कहते तो सब मत-मतांतरोंवाले हैं। परन्तु कहने मात्र से कुछ नही होता । देव, गुरु, धर्म को परखना और उनकी सेवा करना तो दूर की बात है; किन्तु कुदेव, कुगुरु, कुधर्म की पुष्टि करनेवाले बहुत जीव हैं। यह बात उन जीवों के बस की नहीं है। मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से उन जीवों की सूझ-बूझ जाती रहती है। सद्विचार नहीं कर पाते ।
(इ) जैसे कुलटा-व्यभिचारिणी स्त्री अपने विवाहित पति की तो नाममात्र से कहलाती है। अर्थात् ऊपर से तो ऐसा व्यवहार रखती है कि वह पतिव्रता है, परन्तु जार (पर पुरुष) के साथ रमण करती है। वैसे ही बहुत जीव जैनी नाम धराते है परन्तु रम रहे हैं
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[172]