Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust

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Page 166
________________ १५८ सद्धर्मसंरक्षक निन्दा शुरू कर दी। यदि वे ऐसा न करते तो उनके चंगुल में कौन फंसता? इस प्रकार परस्पर विरोधी गच्छ खडे हुए। गच्छ शब्द का मूल अर्थ गण है, जिसका अर्थ है साधुओं का समुदाय । इसलिये गच्छ कोई खराब शब्द नहीं है । पर गच्छ के लिये अहंकार, ममत्व, कदाग्रह करना ही बुराई है । चैत्यवास के मठधारियों में स्वार्थवश कुसंप बढा, संगठन टूटा । धीरे-धीरे चौरासी गच्छों का प्रादुर्भाव हो गया । ये परस्पर एक-दूसरे को तोडने लगे । परिग्रह बढाने की होडाहोड में समाधिमय धर्म के स्थान पर कलह-क्लेशमय अधर्म का वातावरण प्रगट हुआ। १- सदा अवसर्पिणी काल में पांचवां आरा आता ही है अर्थात् अवनति का काल तो सदा आता ही है और ऐसे समय में धर्म की भी अवनति होती है। इसलिये यह कोई नई बात नहीं है। परन्तु यह तो २- हुण्डा-अवसर्पिणी काल होने से कुछ अधिक हानिकर है। 'हुण्ड' अर्थात् अतिबुरा समय होने से इसे हुण्डा-अवसर्पिणी कहते हैं। ऐसा काल अनन्ती अवसर्पिणी के बाद आता है। ३- तथा साथ ही महावीर प्रभु के निर्वाण के समय दो हजार वर्ष का भस्मग्रह भी उसके साथ मिला । ४- इसके साथ ही दसवें अच्छेरे रूप असंयति (चैत्यवासी यतियों की पूजा भी अपना जोर बतलाने लगी। इस प्रकार- १-पांचवां आरा, २-हुण्डावसर्पिणी, ३-भस्मग्रह, ४-असंयति-पूजा ये चारों संयोग इकट्ठे होने से चैत्यवास रूप कुमार्ग जैनधर्म के नाम से चारों तरफ व्यापक रूप से फैलने लगा। गुरु स्वार्थी होकर योग्यायोग्य का विचार किये बिना जो हाथ में आया उसे मूंडकर अपनी-अपनी वाडा-बंधियों को बढाने लगे । धीरे-धीरे चैत्यवासियों से भी पतित होकर गृहस्थी बनने लगे । Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [158]


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