Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
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मनोव्यथा
१६३ कदाग्रही, दृष्टिरागी, अभिमानी, हठी, वासनाओं से वासित व्यक्ति वीतरागमार्ग को कैसे समझ सकता है और कैसे पा सकता है ? कदापि नहीं पा सकता । इस चौबीसी में दस अच्छेरे कहे हैं। सात अच्छेरे भगवान महावीर के तीर्थ में हुए । असंयति अच्छेरा भगवान महावीर के बाद भी हुआ।
यहाँ असंयति अच्छेरे का किंचित् स्वरूप लिखते हैं । महानिशीथसूत्र में कहा है कि -
"भरहे दुसमकाले महव्वयधारी हुंति विरलाओ । सावय अणुव्वयधारी अहवा नत्थि सम्मदिट्टि वा ॥१॥ भरहे दुसमकाले धम्मत्थि साहू-सावगा दुल्लहा । नामगुरु नामसाढा सरागदोसा हु अत्थि ॥ २ ॥"
अर्थात् भरतक्षेत्र में दुषम (पंचम) काल में महाव्रतधारी (साधु) विरले होंगे। अणुव्रतधारी श्रावक और सम्यग्दृष्टि भी अल्प होंगे अथवा नहीं होंगे । भरतक्षेत्र में दुषमकाल में धर्मार्थी (मुमुक्षु) साधु-श्रावक दुर्लभ होंगे । साधु का नाम धारण करनेवाले और श्रावक नाम धारण करनेवाले दृष्टिराग दोषवाले प्रायः हैं।
असंयतिपूजा नामक दसवें अच्छेरे का वर्णन महानिशीथ सूत्र के पांचवें अध्ययन में लिखा है कि इस हुण्डावसर्पिणी में दस अच्छेरे हुए हैं। श्रीमहावीर प्रभु के निर्वाण जाने के बाद अनुक्रम से कितने ही असंयतियों के अच्छेरे हुए । आज अधिकतर देखा जाता है कि साधु नाम धराकर मुंडित होते (दीक्षा लेते) हैं । मात्र नामधारी अणगार बनते हैं। आचार्य, उपाध्याय, साधु नाम-धारियों की कमी नहीं। नाम धराकर अपने आपको पुजाते हैं। ऐसा करके
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013)p6.5
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