Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust

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Page 165
________________ श्री बूटेराचजी और शांतिसागरजी १५७ कहलाता था। तत्पश्चात् चौदहवें पाट पर संमतभद्रसूरि ने वणवास स्वीकार किया, तब वणवासीगच्छ कहलाया । पश्चात् कोटि सूरिमंत्र जाप के कारण कौटिकगच्छ कहलाया । आगे चलकर इसमें अनेक शाखाएं और कुल हो गये। वे आपस में अविरोधी रहे। इसका कारण यह था कि अनेक कुलों, शाखाओं, गणों, गच्छों द्वारा पूरे भारत में व्यापक निर्ग्रथ श्रमणसंघ की व्यवस्था और संगठन कायम रहे इसलिये सामाचारी सब की एक समान थी। यह बात कल्पसूत्र में दी हुई सामाचारी से स्पष्ट है। भिन्न-भिन्न गच्छ, गण आदि होते हुए भी एक सामाचारी चिरस्थाई होने का कारण यह था कि किसी गणादि में न तो अपने-अपने गणादि का अहंकार था और न ही ममत्वभाव था। वे सब भलीभांति जानते थे कि भिन्न-भिन्न गणादि मात्र श्रमणसंघ में व्यवस्था कायम रखने के लिये ही हैं । जैसे प्रभु महावीर स्वामी ने अपने ग्यारह गणधरों के नौ गण व्यवस्था के लिये बनाये थे । परन्तु उनमें कोई भेदभाव नहीं था । पर चैत्यवास शुरू होते ही उन लोगों ने अपने स्वार्थ और ममत्व के कारण अपने-अपने गच्छ की प्रशंसा तथा दूसरे गच्छ की उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज द्वारा रचित ३५० गाथा के स्तवन की सोलहवीं ढाल की गाथाए १६ से २१ आदि में तथा न्यायांभोनिधि आचार्य विजयानन्दसूरीश्वर (आत्माराम) जी कृत 'जैन तत्त्वादर्श' एवं दर्शनविजयजी (त्रिपुटी) कृत 'तपागच्छ श्रमणवंश-वृक्ष' में निम्नलिखित वर्णन है 44 " श्रीसुधर्मास्वामी से आठवें पाट-आर्य सुहस्ति और आर्य महागिरि तक १'निर्ग्रथगच्छ' कहलाता था । २ - नवमें पाट सुस्थित व सुप्रतिबद्ध से कोटि सूरिमंत्र जाप करने से 'कौटिकगच्छ' कहलाता था । ३ पश्चात् पंद्रहवीं पाट पर स्थविर श्रीचन्द्रसूरि के नाम से 'चन्द्रगच्छ' कहलाता था । ४ तदनन्तर सोलहवीं पाट से श्रीसमन्तभद्रसूरि से 'वनवासीगच्छ' कहलाया। Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [157]

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