Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
View full book text
________________
१४४
सद्धर्मसंरक्षक साधुओं के सामने रुपये चढाने की कोई जरूरत नहीं है। हम तो कंचन-कामिनी के त्यागी हैं ! हमें रुपयों की आवश्यकता नहीं है। जैन मुनि परिग्रह के सर्वथा त्यागी होते है । इसलिये यह प्रथा श्रीवीतराग जिनेश्वर प्रभु की आज्ञा और सिद्धांत के सर्वथा विरुद्ध है।
नित्य(नीति)विजयजीने पुनः भार देकर कहा कि "यह द्रव्य से पूजा तो चैत्यवासियों के अनुकरण रूप है। श्रीपूज्यों-यतियों की चलाई हुई प्रवृत्ति है। इसमें मुनिपद का उपहास है। यतियों ने धन कमाने की, धन जुटाने की रीति चलाई हुई है। संवेगी साधु के साथ द्रव्यपूजा का कोई मेल नहीं खाता है। शास्त्रों में जिनपूजा कही है, गुरुपूजा का विधान नहीं है । गुरुभक्ति का विधान तो है। किसी विशेष प्रसंग की ओट लेकर तथा गुरुद्रव्य बढाने के बहाने से गुरुपूजा कराना; यह तो स्पष्ट मानलालसा है। यदि कोई राजामहाराजा युगप्रधान की पूजा करे ऐसा उदाहरण देकर, कल का गाँगो गणेशविजय बनकर अपने आप पाट पर चढकर अपनी पूजा कराने बैठे, यह तो एक नाटक ही है। साधु द्रव्यपूजा करावे यह उसकी सरासर भूल है, त्याग और वैराग्य का उपहास है, विडम्बना है। इस आगम-विरुद्ध प्रथा का अन्त लाना ही चाहिये ।"
इत्यादि कहते हुए आप सब अपने गुरुदेव बूटेरायजी के साथ वहाँ से उठकर चले आये और दलपतभाई के वाडे में आकर रहे। वे लोग भी बाई को दीक्षा देकर शहर में डेले के उपाश्रय में चले गये।
गुरुदेव का विचार सिद्धाचलजी की यात्रा करने का हुआ, किन्तु मूलचन्दजी आदि आपके शिष्य-परिवार ने और नगरसेठ प्रेमाभाई आदि श्रावकों ने कहा- "गुरुमहाराज ! आप जल्दी न करें।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[144]