Book Title: Rogimrutyuvigyanam Author(s): Mathuraprasad Dikshit Publisher: Mathuraprasad Dikshit View full book textPage 7
________________ [ २ ] ६-षष्ठ तरङ्ग में कामाङ कुशादि के समासमत्व में सुखासुख वर्णन, शश-हस्तिनी के योग हो जाने पर सर्वथा सुखोत्पादक प्रकारों का वर्णन एवं वातपित्तादि प्रकृतिभेद से साध्यासाध्य स्त्रियों का वर्णन है। ७-सप्तम तरङ्ग में पूर्वजन्मगत देवादि सत्वों का निरूपण है, अर्थात् किस पूर्वजन्म से इसकी उत्पत्ति हुई है, इसका निरूबण है। एवं अन्यमतों का खण्डन स्वपक्ष-स्थापन है। ८-अष्टम में बन्धप्रभेदनिरूपण है। 8-नवम में उष्णा, शिशिरा, भूतादिनिवेशितादिक सात प्रकार की वन्ध्याओं का वर्णन और उसके उपायों का निरूपण हैं। १०–दशम तरङ्ग में सन्तानकर परंपरानुभूत ३६ छत्तिस योगों ( औषध ) का वर्णन है। प्रत्येक योग निश्चित लाभदायक संतानकर हैं। प्रकृति-भेद से यदि एक प्रकार से कार्य सिद्ध न हो तो दूसरा तीसरा आदि अवश्य करें। ११-ग्यारहवें में वेश्याओं के भेद और उनके कुकृत्यों का वर्णन, स्व भावतः प्रवृत्त पुरुषो के स्वरूप का निरूपण भी हैं। १२-वारहवें में वेश्या प्रसक्त पुरुष के उनसे छड़ाने के उपाय, पुरुषों की प्रकृत्यादि का वर्णन है। १३--तेरहवें में, उपदंशादि का इतिहास, वेश्यादिजन्य उपदंश, सूजाक के शतशः अनुभूत उत्कृष्ट योग, नवीन प्राचीन सर्वप्रकार के उपदंशादि की परमोत्कृष्ट औषध, एवं पुरुष के पेशाब में वीर्यस्राव, स्वप्नदोष और स्त्री के सव प्रकार के प्रदर आदि की अनु भूत उत्तम औषध । १४-चौदहवें में दत्तात्रेयोक्त, और अन्य प्रकार के भी वशीकरणादि योग। १५-पन्द्रहवें में संतति निग्रह, वन्दारुकल्प, नालपरिवृत्ति, दंशमत्कुण नाशक औषध योग है। १६-सोलहवें में योगशास्त्र और कामशास्त्रके संबन्ध-समन्वय का वर्णन है।Page Navigation
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