Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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( तियालीस ।
होने वाले देहली पट्टस्य मट्टारक पनचन्द से परम्परा दी गयी है। उसके पश्चात् भ. पमनाम्द एवं उसके पश्चात् भ० सालकीर्ति का उल्लेख किया गया है । भ. सकलकोति एव भुवनकीति के मध्य में होने वाले भ. विमलेन्द्रकीर्ति का भी उत्सव हुमा है । पट्टावली महत्वपूर्ण है तथा कितने ही नये तथ्यों को उद्घाटित करती है। ६८ भट्टारक पट्टावलि (६२८६)
उदयपुर के संभवनाथ में ही यह एक दूसरी पट्टावली हैं जिसमें जो १६६७ मार्गशीर्ष सुदी ३ शुक्रवार से प्रारम्भ को गयी है इस दिन पं० क्षमा का गाना था लोभनमारम देवेन्टकीति के पश्चात् भटटारक बने थे। इसके पश्चाइ विभिन्न मगरों में बिहार एवं घालुसि करते हुए, श्रावकों को उपदेश देते हुए सन् १७५७ को मार्गशीर्ष बुदी ४ के दिन अहमदाबाद नगर में ही स्वर्गलाभ लिया। उस समय उनको पायु ६० वर्ष की थी। . पूरी पट्टावली क्षमेन्द्रकोति की है। ऐसी विस्तृत पट्टावली बहुत कम देखने में प्रायी है। उनकी ६० वर्ष । जो जीवन गाथा कही गयी है वह पूर्णतः ऐतिहासिक है। १६ मोक्षमार्ग बावनी (१५६३)
यह मोहनदास की बावनी है । मोहनदास कौन थे तथा कहां के निवासी थे इस सम्बन्ध में कवि ने कोई परिचय नहीं दिया है । इसमें सौय्या, दोहा, कुडलिया एवं छप्पय प्रादि छन्दों का प्रयोग हमा है। मावनी पूर्णतः आध्यात्मिक है तथा भाषा एवं शैली की दृष्टि से रचना उत्तम है।
है नाही आमैं नहीं, नहिं उताति विनास । सो प्रभेद प्रातम दरब, एक भाव परगास ।। १३ ।। चित थिरता नहि मेर सम.अधिरज पत्र समान ।।
ज्यो तर सन झकोलतं ठोर न तजत सुजान ।। १४ ॥ १०० सुमतिनाथ पुराण (३१०४ )
दीक्षित देवदत्त संस्कृत एवं हिन्दी के अनछ विद्वान थे। उनकी संस्कृत रचनाओं में सगर चरित्र, सम्मेदशिखर महात्म्य एवं सुदर्णन चरित्र उल्लेखनीय रचनायें है। सुमतिनाथ पुतरण हिन्दी कृति है जिसमें पांचवे तीर्थकर सुमतिनाथ के जीवन पर प्रकाश डाला गया है । इसमें पांचं प्रध्याय है। कपि जिनेन्द्र भूधरण के शिष्य थे । पुराण के बीच में संस्कृत के इलोकों का प्रयोग किया गया है।
अथ सची के सम्बन्ध में
प्रस्तुत ग्रंथ सूची में योस हजार से भी अधिक पाण्डुलिपियों का वर्णन है । जिनमें भूल प्रब ५०५० हैं। ये प्रथ सभी भाषामों के हैं लेकिन मुख्य भाषा संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी है। प्राकृत भाषा के मी उन ही ग्रंथों की पाण्डुलिपियां हैं जो राजस्थान के अन्य भण्डारों में मिलती है । अपभ्रश को बहुत कम रचनायें इस सूची में आयी हैं । अबमेर एवं कामा जैसे ग्रंथागारों को छोड़कर अन्यत्र इस भाषा की रचनायें बहुत कम मिलती है