Book Title: Rag Virag
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काम गजेन्द्र कितनी भोली-भाली है यह युवराज्ञी! कितना मनमोहक है इसका आन्तर-बाह्य व्यक्तित्व! अपने प्रियतम के प्रति कितना समर्पण! _ 'कल ही में जानकारी प्राप्त कर लूँगी उस श्रेष्ठिकन्या के बारे में। वह कौन है? वह खुद क्या चाहती है? फिर मैं खुद उनसे बात करूँगी कि 'आपको इस युवती से शादी करनी है?' वह बड़े असमंजस में पड़ जायेंगे। उन्हें बड़ा आश्चर्य होगा। मेरी तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहेंगे। पर मैं खुद ही इन दोनों की शादी करवाढूंगी ना? फिर? फिर मैं कभी इनके बीच दीवार नहीं बनूँगी। इनकी कुशलता चाहती हुई अपने दिन बड़ी प्रसन्नता से बीताऊँगी। जब मुझे इनकी स्मृति हो उठेगी और ये मेरे महल में पधारेंगे तो मैं इनका स्वागत करूँगी। अपने हृदय में इन्हें समा लूँगी।' ___ रात्रि का अन्तिम प्रहर प्रारम्भ हो चुका था। प्रियंगुमति की पलकें अलसा रही थी। उसकी आँखों में नीद समा रही थी और वह स्वप्नलोक में खो गयी। एक गहन तृप्ति... एक दिव्य प्रसन्नता उसके चेहरे पर दमक उठी। For Private And Personal Use Only

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