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राग-विराग
श्री प्रियदर्शन
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राग-विराग
विवेचनकार आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज
[श्री प्रियदर्शन
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पुनः संपादन ज्ञानतीर्थ-कोबा
तुतीय भावृति वि.सं.२०६६, भाद्रपद शुक्ल ११, दि. १८-०९-२०१०
उपलक्ष श्रुतोद्धारक आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी ७७वाँ जन्मवर्ष हीरक समारोह पूर्णाहुति
भवानीपुर, कोलकाता
मूल्य पक्की जिल्द : रू. ६८ कच्ची जिल्द : रू. ३०
आर्थिक सौजन्य शेठ श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ ह, शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार
प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
कोबा, ता. जि. गांधीनगर - ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २३२७६२७२ email : gyanmandir@kobatirth.org
website : www.kobatirth.org
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टर्स, अहमदाबाद - ९८२५५९८८५५ टाईटल डीजाइन : बिजल ग्राफीक्स - ९३७६१२५७५७
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पूज्य आचार्य भगवंत श्री विजयभद्रगुप्तसूरीश्वरजी श्रावण शुक्ला १२, वि.सं. १९८९ के दिन पुदगाम महेसाणा (गुजरात) में मणीभाई एवं हीराबहन के कुलदीपक के रूप में जन्मे मूलचन्दभाई, जुहीं की कली की भांति खिलतीखुलती जवानी में १८ बरस की उम्र में वि.सं. २००७, महावद ५ के दिन राणपुर (सौराष्ट्र) में आचार्य श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के करमकमलों द्वारा दीक्षित होकर पू. भुवनभानुसूरीश्वरजी के शिष्य बने. मुनि श्री भद्रगुप्तविजयजी की दीक्षाजीवन के प्रारंभ काल से ही अध्ययन अध्यापन की सुदीर्घ यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी.४५ आगमों के सटीक अध्ययनोपरांत दार्शनिक, भारतीय एवं पाश्चात्य तत्वज्ञान, काव्य-साहित्य वगैरह के 'मिलस्टोन' पार करती हुई वह यात्रा सर्जनात्मक क्षितिज की तरफ मुड़ गई. 'महापंथनो यात्री' से २० साल की उम्र में शुरु हुई लेखनयात्रा अंत समय तक अथक एवं अनवरत चली. तरह-तरह का मौलिक साहित्य, तत्वज्ञान, विवेचना, दीर्घ कथाएँ, लघु कथाएँ, काव्यगीत, पत्रों के जरिये स्वच्छ व स्वस्थ मार्गदर्शन परक साहित्य सर्जन द्वारा उनका जीवन सफर दिन-ब-दिन भरापूरा बना रहता था. प्रेमभरा हँसमुख स्वभाव, प्रसन्न व मृदु आंतर-बाह्य व्यक्तित्व एवं बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय प्रवृत्तियाँ उनके जीवन के महत्त्व चपूर्ण अंगरूप थी. संघ-शासन विशेष करके युवा पीढ़ी. तरुण पीढी एवं शिश-संसार के जीवन निर्माण की प्रकिया में उन्हें रूचि थी... और इसी से उन्हें संतुष्टि मिलती थी. प्रवचन, वार्तालाप, संस्कार शिबिर, जाप-ध्यान, अनुष्ठान एवं परमात्म भक्ति के विशिष्ट आयोजनों के माध्यम से उनका सहिष्णु व्यक्तित्व भी उतना ही उन्नत एवं उज्ज्वल बना रहा. पूज्यश्री जानने योग्य व्यक्तित्व व महसूस करने योग्य अस्तित्व से सराबोर थे. कोल्हापुर में ता.४-५-१९८७ के दिन गुरुदेव ने उन्हें आचार्य पद से विभूषित किया.जीवन के अंत समय में लम्बे अरसे तक वे अनेक व्याधियों का सामना करते हुए और ऐसे में भी सतत साहित्य सर्जन करते हुए दिनांक १९-११-१९९९ को श्यामल, अहमदाबाद में कालधर्म को प्राप्त हुए.
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प्रकाशकीय पूज्य आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज (श्री प्रियदर्शन) द्वारा लिखित और विश्वकल्याण प्रकाशन, महेसाणा से प्रकाशित साहित्य, जैन समाज में ही नहीं अपितु जैनेतर समाज में भी बड़ी उत्सुकता और मनोयोग से पढ़ा जाने वाला लोकप्रिय साहित्य है.
पूज्यश्री ने १९ नवम्बर, १९९९ के दिन अहमदाबाद में कालधर्म प्राप्त किया. इसके बाद विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट को विसर्जित कर उनके प्रकाशनों का पुनः प्रकाशन बन्द करने के निर्णय की बात सुनकर हमारे ट्रस्टियों की भावना हुई कि पूज्य आचार्यश्री का उत्कृष्ट साहित्य जनसमुदाय को हमेशा प्राप्त होता रहे, इसके लिये कुछ करना चाहिए. पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज को विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्टमंडल के सदस्यों के निर्णय से अवगत कराया गया. दोनों पूज्य आचार्यश्रियों की घनिष्ठ मित्रता थी. अन्तिम दिनों में दिवंगत आचार्यश्री ने राष्ट्रसंत आचार्यश्री से मिलने की हार्दिक इच्छा भी व्यक्त की थी. पूज्य आचार्यश्री ने इस कार्य हेतु व्यक्ति, व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व के आधार पर सहर्ष अपनी सहमती प्रदान की. उनका आशीर्वाद प्राप्त कर कोबातीर्थ के ट्रस्टियों ने इस कार्य को आगे चालू रखने हेतु विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के सामने प्रस्ताव रखा.
विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने भी कोबातीर्थ के ट्रस्टियों की दिवंगत आचार्यश्री प्रियदर्शन के साहित्य के प्रचार-प्रसार की उत्कृष्ट भावना को ध्यान में लेकर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ को अपने ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित साहित्य के पुनः प्रकाशन का सर्वाधिकार सहर्ष सौंप दिया. - इसके बाद श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा ने संस्था द्वारा संचालित श्रुतसरिता (जैन बुक स्टॉल) के माध्यम से श्री प्रियदर्शनजी के लोकप्रिय साहित्य के वितरण का कार्य समाज के हित में प्रारम्भ कर दिया. ___ श्री प्रियदर्शन के अनुपलब्ध साहित्य के पुनः प्रकाशन करने की शृंखला में "राग-विराग" ग्रंथ की तृतीय आवृत्ति को प्रकाशित कर आपके कर कमलों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रथम संस्करण में इसका नाम कामगजेन्द्र था.
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शेठ श्री संवेगभाई लालभाई के सौजन्य से इस प्रकाशन के लिये श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ, हस्ते शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार की ओर से उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है, इसलिये हम शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार के ऋणी हैं तथा उनका हार्दिक आभार मानते हैं. आशा है कि भविष्य में भी उनकी ओर से सदैव उदारता पूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहेगा. __ इस आवृत्ति का प्रूफरिडिंग करने वाले डॉ. हेमन्त कुमार तथा अंतिम प्रूफ करने हेतु पंडितवर्य श्री मनोजभाई जैन का हम हृदय से आभार मानते हैं. संस्था के कम्प्यूटर विभाग में कार्यरत श्री केतनभाई शाह, श्री संजयभाई गुर्जर व श्री बालसंग ठाकोर के हम हृदय से आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक का सुंदर कम्पोजिंग किया. ___ आपसे हमारा विनम्र अनुरोध है कि आप अपने मित्रों व स्वजनों में इस प्रेरणादायक सत्साहित्य को वितरित करें. श्रुतज्ञान के प्रचार-प्रसार में आपका लघु योगदान भी आपके लिये लाभदायक सिद्ध होगा.
पुनः प्रकाशन के समय ग्रंथकारश्री के आशय व जिनाज्ञा के विरुद्ध कोई बात रह गयी हो तो मिच्छामि दुक्कड़म्. विद्वान पाठकों से निवेदन है कि वे इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करें.
अन्त में नये आवरण तथा साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत ग्रंथ आपकी जीवनयात्रा का मार्ग प्रशस्त करने में निमित्त बने और विषमताओं में भी समरसता का लाभ कराये ऐसी शुभकामनाओं के साथ...
ट्रस्टीगण श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा
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द्वितीय आवृत्ति का उद्बोधन....
___विक्रम की नवम शताब्दि में आचार्यश्री उद्योतनसूरिजी ने 'कुवलयमाला' नाम के कथाग्रन्थ की रचना की है। प्राकृत भाषा में यह ग्रन्थ लिखा गया है। प्राकृत-भाषा का यह श्रेष्ठ कथाग्रन्थ माना गया है। उद्योतनसूरिजी 'दाक्षिण्यचिह्नसूरि' के उपनाम से जैनाचार्यों की परम्परा में प्रसिद्ध हैं।
कवीश्वर उद्योतनसूरिजी ने स्वयं कहा है की इस ग्रन्थ की रचना उन्होंने 'ह्रीदेवी' की सहाय से की है। १३ हजार श्लोक प्रमाण इस महान् ग्रन्थ में 'राग विराग' का कथावस्तु प्राप्त होता है। मेरे इस धार्मिक उपन्यास का आधार ग्रन्थ है 'कुवलयमाला' | ___ कामगजेन्द्र राजकुमार है। प्रियंगुमति के साथ उसकी शादी होती है। प्रियंगुमति का व्यक्तित्त्व कितना महान था? वास्तव में देखा जाय तो इस उपन्यास का नाम 'प्रियंगुमति' ही रखना चाहिये था, परन्तु आधार ग्रंथ के अनुसार मैनें 'राग-विराग' नाम पसन्द किया है। दूसरी पत्नी बनती है जिनमति! आधार ग्रन्थ में दूसरी पत्नी का नाम नहीं दिया गया है। मैंने उसको 'जिनमति' नाम दिया है, जो कि सार्थक नाम है।
कामगजेन्द्र में जिस प्रकार रंग और भोगविलास को प्रचुरता दिखाई देती है वैसे ही उसके आन्तर जीवन में त्याग, वैराग्य और उत्कृष्ट प्रेम की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। मैंने इस कहानी को गुजराती भाषा में 'रागविरागना खेल' नाम से लिखी और प्रकाशित भी हो गई। यह कहानी सबसे पहले 'अरिहंत' (हिन्दी मासिक पत्र) में छपी थी। बाद में पुस्तकरूप में भी प्रगट हुई। अब वापस द्वितीय संस्करण के रूप में आपके पास पहुंच रही है। हिन्दी भाषी जनता के लिए यह कहानी रोचक, बोधक और प्रेरक बनेगी, ऐसी मेरी श्रद्धा है। नूतनवर्ष वि. सं. २०४१, मद्रास
भद्रगुप्तविजय
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राग-विराग
सदियों से, जुग जुग से चला आ रहा है राग और विराग का संघर्ष! दो अंतिमों के बीच से हर एक को गुजरना होता है। मानव जीवन अजीबोगरीब है मन के कुरुक्षेत्र पर प्रतिपल यह संग्राम चलता ही रहता है! राग आग बनकर झुलसा देता है तो विराग बाग बनकर जिंदगी को बहारों से भर देता है! सच ही तो
कहा है: राग रहित मन है भवपार राग सहित मन ही संसार!
विवेचनकार आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज
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उत्तरकोशल तत्कालीन भारत का महत्वपूर्ण गणराज्य था | गंगा के रम्यसुरम्य किनारे पर बसी श्रावस्ती नगरी उत्तरकोशल राज्य की शान थी। गंगा के पवित्र नीर श्रावस्ती की सुजला-सुफला धरती को हरा-भरा उपवन सा बनाए रखते थे। आज सारा श्रावस्ती नगर आनन्द से आलोड़ित बन रहा है। चारों तरफ एक ही चर्चा है, एक ही बात है : भगवान महावीर अपने शिष्यगण सहित आज श्रावस्ती के उपनगरीय उद्यान में पधारे हैं। श्रावस्ती के राजमार्गो पर बड़ी चहल-पहल नजर आ रही है। लोग बड़ी उत्कंठा से सर्वज्ञ तीर्थंकर के दर्शनार्थ जा रहे हैं।
वसन्त की बहकी-बहकी हवा उद्यान के वृक्षों को झुला रही है। चारोंतरफ हरियाली ही हरियाली! कदम्ब-डाली पर कोयले कूक रही हैं। आम की डालियों पर मोर नृत्य करते-करते अपने केकारव से वातावरण को भरा-भरा बना रहे हैं। रंग-बिरंगे फूलों की खूशबू हर एक के तन-बदन को महकामहका बनाती हुई फैली जा रही है। ऐसे में भगवान महावीर पधारे | मानों धर्म की अलबेली घड़ियाँ आ गई। श्रावस्ती के नर-नारी धर्म के महकते मौसम का स्वागत कर रहे हैं। देवों ने श्रावस्ती नगर की सीमा में सुन्दर समवसरण की रचना की है। श्रावस्ती की जनता ऐसी अलौकिक एवं नयनरम्य रचना देखकर दंग रह गई। हर एक जीव के लिए, प्राणी मात्र के लिए, समवसरण के द्वार खुले थे। सभी खुशी के मारे झूम उठे। देव और दानव! पशु और मानव! स्त्री एवं पुरुष! श्रमण एवं श्रमणी! समवसरण के भीतर बैठे करुणामूर्ति परमात्मा महावीर की अमृतमयी देशना सुनने लगे। श्रावस्ती के अधिकांश नर-नारी आज समवसरण में आ पहुंचे हैं | अशोक वृक्ष की शीतल छाया! सुरसर्जित दिव्य ध्वनि के मीठे-मीठे मादक सुरों के बीच परमात्मा की धीर, गम्भीर और मधुरतम देशना! अहा! कौन प्यासा रहेगा इस वक्त? सब लीन बने हुए हैं देशना के प्रवाह में। हर एक जीव अपनी सुधबुध खो चूका है। हर एक की आँखें परमात्मा के मुखारविन्द पर लगी है। परमात्मा की आँखों से अजस्त्र बहती करुणाधारा में जीवात्माएँ अपूर्व शान्ति, तृप्ति और प्रसन्नता का अनुभव कर रही हैं। कोई चिंता नहीं, कोई विक्षेप नहीं! लगता है 'परमात्मा के सुधापूर्ण वचनों की वर्षा अनवरत होती ही रहे! हम अपने आपको इस सुधावर्षा में भिगोते रहे ।' एक प्रहर बीता। पूरे तीन घण्टे बीत चुके । परमात्मा ने देशना पूर्ण की। तभी एक व्यक्ति ने खड़े होकर विनयपूर्वक वन्दना करके प्रभु से प्रश्न किया "हे विश्ववत्सल! कल रात मैंने जो देखा, एकान्त के क्षणों
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काम गजेन्द्र में जो अनुभव किया और जो सुना, क्या वह बिल्कुल सत्य है? कोई देवमाया या इन्द्रजाल तो नहीं?' __ 'देवानुप्रिय! वह सब सत्य है।' तीर्थंकर की मधुर आवाज वातावरण में घंटियों सी गूंजती रही। वह व्यक्ति वंदना करके अहोभावभरी आँखों से परमात्मा को देखता हुआ अपने स्थान पर बैठ गया।
भगवंत के चरणों में ही इन्द्रभूति गौतम जो कि महावीरस्वामी के प्रथम गणधर एवं प्रमुख शिष्य थे, बैठे थे। गौतमस्वामी को महावीर के प्रति गाढ़ अनुराग था | मानों कि जनम-जनम की प्रीत इस जनम में आकार ले बैठी थी। ऐसे परमात्मप्रेमी गौतमस्वामी ने भगवान से सविनय प्रश्न किया- 'प्रभो! इस व्यक्ति ने अभी आपको क्या पूछा और आपने क्या प्रत्युत्तर दिया? क्या आप हमें इस सांकेतिक प्रश्न एवं जवाब का रहस्य खोलकर बताने की कृपा करेंगे? इन वाक्यों में छिपी कहानी आप हमें कहने की कृपा करेंगे?'
समवसरण में बैठे हर एक मनुष्य को गौतमस्वामी का प्रश्न अच्छा लगा, समयोचित लगा। क्योंकि सबके मन में उस प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति के प्रति जिज्ञासा पैदा हो चुकी थी। प्रश्न जितना गूढ़ था, प्रत्युत्तर उतना ही गहन एवं रहस्यपूर्ण था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था लोगों को! सब के सब बड़े उत्कंठित
थे जवाब सुनने के लिए। सबकी निगाहें महावीर के मुखारविन्द पर जम गई। ___ वातावरण की नीरवता में महावीर के मीठे बोल गूंज उठे- 'गौतम! यह कहानी लम्बी है, पर है अति रसमय। संसार के क्षेत्र में राग और द्वेष के कैसे युद्ध खेले जाते हैं, कर्मपरवश जीवात्मा कैसी पवनोन्मुखी बन जाती है और जब उसकी ज्ञानदृष्टि खुल जाती है, तो वो कितना भव्य धर्मपुरुषार्थ करके विरक्ति की राह पर आगे कदम बढ़ाती हुई मुक्ति की मंजिल पर चलती जाती है, यह बात राजकुमार कामगजेन्द्र की इस कहानी में छिपी है।' ___'मेरे प्रभो! कामगजेन्द्र की कहानी हमें अवश्य सुनाइये। कहानी सुनकर अनेक भव्य जीवात्माओं की राग की जंजीरें विरक्ति की वरमाला में बदल जायेगी। वैराग्यरसलीन बनकर अनेक जीवात्माएँ आत्मसिद्धि का प्रबल पुरुषार्थ करने के लिए प्रयत्नशील बनेंगी।' गौतमस्वामी की मधुर मंजुल वाणी गूंज उठी। __ परमात्मा महावीरदेव के मधुर शब्दों में कही गई कहानी राग विराग के सदाकाल से चले आ रहे संघर्ष को उजागर करती है। वही कहानी नयेनिखरे रूप में प्रस्तुत है।
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काम गजेन्द्र
१. काम गजेन्द्र
अरुणाभ नगर था। रत्नगजेन्द्र राजा अरुणाभ के बलशील सम्राट के रूप में विख्यात थे। राजा को मात्र एक ही संतान थी और वह था कामगजेन्द्र । कामगजेन्द्र सचमुच कामदेव जैसा ही था । रूप तो मानों विधाता ने उसको ही दिया था। सुन्दरता के साथ-साथ उसमें अनेक गुण भी थे। विनम्रता, प्रेमपूर्ण व्यवहार, दया, करुणा आदि गुण उसके व्यक्तित्व को निखार रहे थे। राजा ने कुमार को बहत्तर कलाएँ सिखलायी। कामगजेन्द्र ने किशोरावस्था की दहलीज को लाँघकर यौवन के आँगन में प्रवेश किया। माता-पिता को कामगजेन्द्र बड़ा प्यारा था और क्यों न हो? कितना विनयी, सुशील और संस्कारी था वह! राजा ने बड़ी धूम-धाम से प्रियंगुमति नामक सुन्दर, सुशील और गुणवती राजकुमारी के साथ उसकी शादी की। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति के साथ संसार के सुखोपभोग में अपना समय व्यतीत करता है और चैन से अपना जीवन बिता रहा है। पर यह संसार है! इस संसार में किसके सुख सदाकाल टिके है? यदि संसार में शाश्वत् सुखोपलब्धि हो जाती तो हमारे ऋषि-मुनि मोक्ष की, त्याग और वैराग्य की बातें करते ही क्यों? कितनी करुणता भरी है संसार में? मनुष्य को जरा से सुख की प्राप्ति होती है और वो उसे शाश्वत् मान लेता है, सुखों मैं खो जाता है! पर अंजाम कितना दुःखद एवं वेदनापूर्ण आता है! जब उन सुखों का वियोग होता है, वे सुख उसे छोड़कर चले जाते हैं, तब वो सर पटक-पटक कर करुण रूदन करता है। बेबस बनकर निराशा के गहन अंधकार में डूब जाता है। ___ हाँ, इससे वे लोग बच सकते हैं कि जिन्होंने अपनी दृष्टि में ज्ञान का अंजन आँज लिया हो । ज्ञानदृष्टियुक्त स्त्री-पुरुष संसार में भी रहें, सुखोपभोग भी करें, पर उन सुखों में तीव्र आसक्त नहीं बनेंगे। सुखों की विनश्वरता और चंचलता वे जानते हैं।
प्रियंगुमति जो कि कामगजेन्द्र की सहचारिणी थी, वह ज्ञानदृष्टि वाली थी। सांसरिक सुखोपभोग में वो अति आसक्त नहीं थी। कामगजेन्द्र के रमणीय महल के ठीक सामने अरुणाभ नगर के एक राजमान्य श्रेष्ठि की बड़ी हवेली
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काम गजेन्द्र थी। राजमहल का झरोखा और सेठ की हवेली का झरोखा, दोनों ठीक आमने-सामने थे। जब सूर्य विश्वयात्रा पूरी करके अस्ताचल पर संध्या के आँचल तले छिप जाता तब कामगजेन्द्र अपनी सहचारिणी प्रियगुंमति के साथ वार्ता-विनोद करता हुआ पश्चिम के झरोखे में बैठा करता था। उसी समय सेठ की हवेली का झरोखा एक देवकन्या जैसी रूपवती युवती के सौंदर्य से झगमगा उठता था। उस यौवना की चंचल दृष्टि बार-बार राजमहल के झरोखे पर चली आती थी।
एक दिन कामगजेन्द्र की निगाहें भी चली गयी उस हवेली के झरोखे में खड़ी सद्यस्नाता नवयौवना के चेहरे पर | दोनों की निगाहें मिल गयी। एक पल...एक क्षण दोनों स्तब्ध रह गये और प्रीत की रंगोली रच गई आँखों ही आँखों में | प्रेम के फूल खिलने लगे नयनों के बाग में | प्यार के बादल उमड़ने लगे मन के गगन में। कामगजेन्द्र के मनमस्तिष्क में वह युवती समा गई। युवती तो पहले से ही राजकुमार को मन ही मन अपना प्रियतम मान बैठी थी। अब कामगजेन्द्र का मन प्रियंगुमति से उखड़ा-उखड़ा रहने लगा। उसके दिल में एक बात बार बार उठती कि- 'उस युवती के बिना सब कुछ सूना है। जीवन अधूरा है।' कामगजेन्द्र तो बस उस नवयौवना में ही अपना सर्वस्व देखने लगा। __पास में ही सुन्दर पत्नी है। प्रेम का प्रदान करती है, स्नेह की सरिता बहाती है, फिर भी दूर रही एक अनजान यौवना के यौवनापाश ने कामगजेन्द्र के दिलो-दिमाग को बाँध लिया। आँखों में उसी यौवना के सपने सजने लगे। मन और नयन दोनों उस यौवना को पाने के लिए बेचैन बन उठे । मनुष्य मन की कैसी अस्थिरता है! भावों की कितनी परिवर्तनशीलता है!
प्रियंगुमति कुशल थी। उसकी पैनी दृष्टि से कामगजेन्द्र और श्रेष्ठिकन्या का छुपा प्रणय छुप न सका। उसके हृदय को टीस पहुँची। वह सोचने लगी, कुछ सोचकर उसने कामगजेन्द्र से कहा, 'प्राणनाथ! मुझे कुछ बेचैनी सी महसूस हो रही है। मैं शयनगृह में जाकर विश्राम करना चाहती हूँ।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति की तरफ देखा, प्रियंगुमति प्रणाम करके शयन कक्ष में चली गई। उसका मन अस्वस्थ हो चुका था। फिर भी उसने स्वस्थतापूर्वक सोचने का निर्णय किया। उसके समक्ष गंभीर समस्या उपस्थित हो गयी थी। अपने पति को अन्य स्त्री में आसक्त पाकर भला कौन औरत चिंतित नहीं होगी? 'मैं क्या करूँ? मैंने इन्हें अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया है। मेरे मन में
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काम गजेन्द्र तो ये ही आराध्य देव हैं, मेरे सर्वस्व हैं। मुझे याद नहीं आता कि कभी मैंने इनके दिल को तनिक भी पीड़ा पहँचायी हो। कभी मैंने इन्हें कटु शब्दों के तीर से बिंधा हो । कभी इन्हें परेशानी या उलझन का शिकार बनाया हो। पर कोई जरूरी तो नहीं कि अपनी पत्नी से असंतुष्ट पुरुष ही अन्य स्त्री की तरफ आकर्षित होता है। अपनी स्त्री से पूर्ण संतुष्ट पुरुष भी हो सकता है कि अन्य स्त्री की तरफ खींचा चला जाय। वैसे ही स्त्री भी पति से पूरी सन्तुष्टि मिलने पर भी अन्य पुरुष की आराधना करने लगे।'
प्रियंगुमति मानव मन के परिवर्तनों की सहजता पर सोच रही है। उसके मन में कामगजेन्द्र के प्रति भी गुस्सा या प्रतिशोध की आग नही सुलग रही है। कोई नाराजगी या उदासी के अन्धेरे में वह नहीं भटक गई है। ज्ञानदृष्टि वाली आत्मा को गुस्सा कैसा? नाराजगी कैसी? क्रोध, अभिमान आदि दोष तो अज्ञानदृष्टि-बहिर्दृष्टि की आँखमिचौलियाँ है। प्रियंगुमति चिंतन की, विचारों की गहराइयों में डूबी जा रही है। नींद उसकी बैरन बन चुकी है। वह विचारों के झूले झूल रही है।
'मुझे इन्हें सावधान करना चाहिये। मुझे इन्हें कह देना चाहिये कि तुम्हारे जैसे अच्छे आदमी के लिए क्या यह शोभास्पद है? यदि मैं इन्हें नहीं रोकूँगी तो फिर मेरा क्या होगा? नहीं, नहीं, मुझे ऐसा क्यों सोचना चाहिए? हाँ शायद मुझे इनकी तरफ से सुख मिलेगा...नहीं मिलेगा... कबूल है, पर मुझे विश्वास है कि वे मुझे दुःखी तो करेंगे ही नहीं और यदि मेरे ऐसे ही पापकर्मो का उदय होगा तो दुःख भी आ सकता है। संसार में ऐसा तो होता ही रहता है। मुझे समता-भाव से सहन कर लेना होगा।'
प्रियंगुमति समझती है कि कामगजेन्द्र राजकुमार है, युवा है... उसे एक ही पत्नी करने का कोई प्रतिबंध नही है। फिर भी उस समय वह कामगजेन्द्र की प्रिया थी। प्रियंगुमति को कामगजेन्द्र का पूरा प्यार मिल रहा था। मिला हुआ सुख कौन छिनने देगा? मिले हुए का बंटवारा भला कौन मंजूर करेगा? उसके मन के सागर में असंख्य विचारों की तरंगे उठ रही हैं। ___ 'ये श्रेष्ठिकन्या पर मुग्ध बने हैं, यह हकीकत है। श्रेष्ठिकन्या भी शायद मन ही मन इनके प्रति आकर्षित हो रही हो, यह भी हो सकता है। इसका परिणाम यही होगा कि दोनों शादी कर लेंगे, मंजूर है मुझे । यदि ऐसे ये सुखी बनते हों तो भला मैं क्यों इनके बीच दीवार बनूँ? आखिर इनका सुख इनकी खुशी, इनकी प्रसन्नता ही तो मेरा सब कुछ है। मेरा कर्तव्य है इन्हें सुख देने
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काम गजेन्द्र का! इनसे मुझे सुख मिलना न मिलना यह तो किस्मत के हाथों में है। सुख मिलता है भाग्य से, सुख मिलता है पुण्योदय से ।'
प्रियंगुमति का भारी मन हल्का हो गया। शयनगृह में रत्नों के दिये जगमगा रहे थे। रात का प्रथम प्रहर पूरा हो चूका था। कामगजेन्द्र शयनगृह में आकर प्रियंगुमति के पास पलंग पर बैठ गया। प्रियंगुमति की आँखों में कोई नाराजगी या बैचेनी नहीं थी। उसकी आँखों में वही प्रेम का पयोधि लहरा रहा था। उसके चेहरे पर पूर्ववत् अपनत्व की आभा फैली हुई थी। कामगजेन्द्र उसकी तरफ खींच गया । पुरुष प्रकृति की गोद में समा गया । प्रकृति पुरुष का सान्निध्य पाकर पुलकित बन गई।
कामगजेन्द्र निद्राधीन हो चूका है। प्रियंगुमति की आँखें उसके निर्दोष चेहरे पर घूम रही है। वह विचारों के झूले पर फिर चढ़ बैठी। नींद तो जाने आज उसे अंगूठा ही बता रही थी। __वह श्रेष्ठिकन्या है, अपरिणिता है, वह कोई परस्त्री नहीं है। हाँ, यदि वे किसी परस्त्री की तरफ मुग्ध बनें तो मुझे इन्हें रोकना चाहिये । पर यदि दोनों की सहमति से, प्रसन्नता से शादी हो तो क्या बूरा है? यदि वे इससे सुखी बनते हों तो मैं इन्हें क्यों रोकूँ? मैं भी उसे अपनी छोटी बहन बनाकर रखूगी और उसका चेहरा भी कितना भला-भोला और प्यारा है! कितनी मासूमियत तैरती है उसकी झील सी आँखों में! वह इर्ष्या, द्वेष आदि दोष वाली नहीं दिखती, बड़ी शांत और सुशील लगती है।
प्रियंगमति की आँखों के समक्ष वह झरोखा और उस झरोखे में खड़ी निर्दोष हरिनी सी वह युवती साकार बन गयी। उसके अंतःकरण में वत्सलता की वारि उमड़ने लगी।
‘पर मुझे लगता है कि मेरे प्राणनाथ तो शर्म के मारे यह बात कर नहीं पायेंगे। उन्हें संकोच होगा। मुझे ही सामने चलकर इन्हें अनुमति दे देनी चाहिये। आखिर इनका सुख ही तो मेरा सुख है।'
प्रियंगुमति का दिव्य प्रेम उसके चेहरे पर झिलमिला उठता है। अपने सुख की कोई चिन्ता वह नहीं कर रही है। पति के लिए अपनी तमाम सुखाकांक्षाओं को प्रियंगु भूल रही है। अपनी तमाम वासनाओं को कुचल रही है। यही प्रेम की पराकाष्ठा है। यही प्रेम का पवित्र स्वरूप है। अपने स्वार्थों का मुखौटा पहने प्रेम की बातें करने वालों ने प्रेम की पवित्रता को कलंकित किया है।
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काम गजेन्द्र कितनी भोली-भाली है यह युवराज्ञी! कितना मनमोहक है इसका आन्तर-बाह्य व्यक्तित्व! अपने प्रियतम के प्रति कितना समर्पण! _ 'कल ही में जानकारी प्राप्त कर लूँगी उस श्रेष्ठिकन्या के बारे में। वह कौन है? वह खुद क्या चाहती है? फिर मैं खुद उनसे बात करूँगी कि 'आपको इस युवती से शादी करनी है?' वह बड़े असमंजस में पड़ जायेंगे। उन्हें बड़ा आश्चर्य होगा। मेरी तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहेंगे। पर मैं खुद ही इन दोनों की शादी करवाढूंगी ना? फिर? फिर मैं कभी इनके बीच दीवार नहीं बनूँगी। इनकी कुशलता चाहती हुई अपने दिन बड़ी प्रसन्नता से बीताऊँगी। जब मुझे इनकी स्मृति हो उठेगी और ये मेरे महल में पधारेंगे तो मैं इनका स्वागत करूँगी। अपने हृदय में इन्हें समा लूँगी।' ___ रात्रि का अन्तिम प्रहर प्रारम्भ हो चुका था। प्रियंगुमति की पलकें अलसा रही थी। उसकी आँखों में नीद समा रही थी और वह स्वप्नलोक में खो गयी। एक गहन तृप्ति... एक दिव्य प्रसन्नता उसके चेहरे पर दमक उठी।
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जिनमति
२. जिनमति
'देवी, उस हवेली के मालिक तो यशोवर्म सेठ हैं। अपने नगर के राजमान्य एवं प्रतिष्ठा सम्पन्न श्रेष्ठि हैं। उनकी धर्मपत्नी का नाम यशोदत्ता । रूपवती और गुणवती यशोदत्ता वास्तव में उस हवेली की जीवन्त लक्ष्मी है। उसका मृदु स्वभाव, उसकी प्रिय हृदयंगम वाणी, उसकी मेहमाननबाजी, सच देवी, आप उस नारी को देखोगी तो बड़ी प्रसन्नता होगी आपको।' प्रियंगुमति को विश्वस्त दासी कल्याणी, प्रियंगुमति की सूचनानुसार हवेली के बारे में जानकारी प्राप्त करके प्रियंगुमति को हवेली का परिचय दे रही है। __ 'महादेवी, वो यशोदत्ता पाँच संतानों की माता है। चार पुत्र एवं एक पुत्री। पुत्री तो सचमुच देवकन्या है, अपने नगर में तो ऐसी सौन्दर्यशीला कन्या नहीं देखी! अरे, अपने पूरे राज्य में भी होगी या नहीं, यह सवाल है।' 'उसका नाम?' प्रियंगुमति ने पूछा। 'जिनमति' कल्याणी ने जवाब दिया। 'कितना प्यारा नाम है! प्रियंगुमति को नाम पसंद आ गया | 'जिनमति कुमारिका है। सेठ और सेठानी को इसी एक बात की चिंता सता रही है। इसके योग्य दूल्हा भी तो मिलना चाहिए न? जिनमति को सेठ और सेठानी ने बड़ी गम्भीरता से सुन्दर संस्कार दिये है। अच्छी शिक्षा दी है। अनेक कलाएँ सिखायी है।' कल्याणी ने सारी बातें बता दी। 'क्या तेरा जिनमति से परिचय है?' प्रियंगुमति ने पूछा।
कल्याणी वैसे थी तो दासी, पर उसके पास भी रूप, यौवन और लावण्य था। युवानों को आकर्षित करे वैसा सौन्दर्य था । बोलने का तरीका था। बुद्धि बड़ी कुशाग्र और समयोचित थी। प्रियंगुमति का उसने अच्छा विश्वास संपादन किया था।
'परिचय तो नहीं है, बड़े घर की कन्याओं के साथ ऐसे ही परिचय किसलिए?
'अब करने का है। 'जैसी आपकी आज्ञा'. कल्याणी की पैनी बुद्धि प्रियंगुमति को समझने के
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जिनमति
९
लिए छटपटाने लगी।' युवराज्ञी को क्या लेना-देना एक श्रेष्ठिकन्या से? उसे क्यों इतनी गहरी अभिरुचि है जिनमति के बारे में?' कल्याणी के लिए यह एक बड़ी समस्या बन गई । पर उसने अपने मन को समझा लिया, 'आज नहीं तो कल, भेद तो खुलेगा ही । '
कल्याणी ने जिनमति से अच्छा परिचय कर लिया। क्योंकि जिनमति भी तो ऐसा ही चाहती थी। वह भी तो कामगजेन्द्र का नैकट्य प्राप्त करने के लिए तरस रही थी। उसे तो कल्याणी का सहवास बहुत भा गया ।
मानव मन का यह एक स्वभाव है । अपनी प्रबल चाहना को, अपनी तीव्र कामना को जहाँ पूरी होते देखता है, उसमें जो-जो पूरक माध्यम होते हैं, उनके प्रति उसका मन कोमल और स्नेहार्द्र बना रहता है । कल्याणी माध्यम बन रही थी। कामगजेन्द्र के साथ जिनमति के मिलन में । जिनमति की नजरों में कल्याणी की बड़ी उपयोगिता थी।
कल्याणी ने प्रियंगुमति के बारे में अच्छी-अच्छी प्रशंसा - पूर्ण बाते करके जिनमति को प्रियंगुमति की तरफ आकर्षित बना डाली थी। वैसे जिनमति ने प्रियंगुमति को झरोखे में से कई बार देखा था । उसका बाह्य सौन्दर्य तो उसे आकर्षक लगा ही था पर जब कल्याणी ने प्रियंगुमति के आंतर- सौन्दर्य की पहचान दी तो वह और ज्यादा खींच गयी युवराज्ञी की तरफ । उसका सरल हृदय प्रसन्नता अनुभव करने लगा। पर गहरे में उसके मन में एक कसक बारबार उठती रही- ‘ऐसी सुन्दर और स्नेहल पत्नी को पाकर क्या कामगजेन्द्र मुझे चाहेंगे? मुझे स्वीकार करेंगे?'
भय! कल्पना का भय! मानव के दिमाग में ऐसे असंख्य भय भरे पड़े हैं । घटनाओं की ओट में भय व्यक्त होकर जीवात्मा को बेचैनीभरी उलझन का शिकार बना देता है । जिनमति पलभर के लिये बड़ी मायूस बन गई पर कल्याणी की रसपूर्ण बातों ने उसकी मायूसी के मुखौटे को उतार फेंका।
जिनमति का हृदय बड़ा सरल था । भावुक था । कल्याणी की तरफ वह खींचती ही चली। उसके चित में प्रियंगुमति से प्रत्यक्ष मिलने की प्रबल चाहना पैदा हो चुकी थी। दूसरी ओर उसे कामगजेन्द्र की निकटता प्राप्त करने की आतुरता भी बनी रहती थीं।
एक दिन कल्याणी ने जिनमति से पूछा : 'जिनमति, क्या तू राजकुमार के महल में नहीं चलेगी कभी? युवराज्ञी तुझसे मिलना चाहती हैं।'
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जिनमति
'तूने प्रियंगुमति से मेरे बारे में बातें की होगी, नहीं?'
'उन्हें ऐसी बातें अच्छी लगती है । मैं किसी के विषय में अच्छी बातें करूँ तो वह बड़े प्यार से उन बातों को सुनती हैं। उनका यह महान गुण है । '
१०
'सचमुच प्रियंगुमति में रूप और गुण, सौन्दर्य और शील का सुभग समन्वय हुआ है, नहीं?'
जिनमति की आँखें कल्याणी के चेहरे पर जम गयी । कल्याणी की निर्दोष आँखों में आनन्द झूम रहा था । जिनमति मन - सरोवर में एक विचार के कंकर ने लहरें पैदा कर दी चिंता की । 'इतनी प्यारी पवित्र हृदय वाली पत्नी जिसे मिली है, उस राजकुमार के हृदय में क्या मेरा स्थान बन पायेगा ? शायद वह स्वीकार भी कर लें तो युवराज्ञी को कितना अन्याय होगा? उसके दिल को कितनी गहरी चोट लगेगी ? प्रियंगुमति के सुख शांति एवं प्रसन्नतापूर्ण जीवन झरने को मैं कैसे सूखा सकती हूँ? नहीं, नहीं।' जिनमति के दिल में एक दर्दभरी टीस कसकने लगी । एक सुशीला सन्नारी के जीवन- महल को आग लगाकर उसकी राख पर अपने सुख और अपने जीवन का महल बनाना उसे मंजूर नहीं था। वह कभी प्रियंगुमति से कामगजेन्द्र को छीनने की बात सोच ही नहीं पाती थी ।
जिनमति के मुँह पर उदासी के आवर्त बिखर आये... और कल्याणी की निगाहों से वे छूप न सके ।
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उसने पूछा- 'क्यों, क्या बात है ? कोई गहरे सोच में...
'नहीं, कुछ भी नहीं।' जिनमति स्वस्थ बनने का प्रयत्न करने लगी । होठों पर मुस्कराहट लाकर कल्याणी के कंधों पर अपने हाथ रख दिये और उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली :
'कल्याणी, मुझे युवराज्ञी के दर्शन करने ही होंगे। " कब आऊँ लेने के लिए?'
'जब उन देवी की इच्छा हो तब ।' जिनमति का हृदय प्रियंगुमति की तरफ स्नेह से छलक गया । कल्याणी को विदा करके जिनमति अपनी हवेली के झरोखे में जा पहुँची। उसने सामने झरोखे में नजर डाली पर वहाँ कोई नहीं था। झरोखा खाली था । आज जिनमति का हृदय भर आया था । उसकी झील सी गहरी आँखों में वेदना के आँसू पलकों के किनारे झूल रहे थे। वह झरोखे में रखे हुए एक आसन पर बैठ गई ।
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११
जिनमति
जिनमति के पास मदभरा यौवन था पर वह उन्मत्त नहीं थी। उसके हृदय में सुखों की कामना थी पर दूसरों के सुख छीनकर अपने सुख को प्राप्त करने की वासना नहीं थी। उसके मनोमंदिर में कामगजेन्द्र बस चुका था, पर वह प्रियंगुमति की तरफ भी इतनी ही सहानुभूतिपूर्ण एवं स्नेहार्द्र थी। उसने कामगजेन्द्र के रूप को टुकुर-टुकुर देखा था पर कामगजेन्द्र के व्यक्तित्व से, उसके स्वभाव से अपरिचित थी। रूपवान व्यक्तित्त्व गुणवान हो ही ऐसा कोई नियम नहीं, गुणवान व्यक्ति रूपवान न भी हो। ___ 'कामगजेन्द्र रूपवान तो है पर उसके व्यक्तित्व को मैं जानती ही नहीं...
और मैं कल्याणी को पूर्वी भी कैसे? वह राजकुमार के बारे में कुछ बताती ही नहीं है । मैं यदि पूछ् तो यह क्या सोचेगी मेरे बारे में? पर हाँ... वह ही बताये राजकुमार के गुण, तो बात बने ।' जिनमति का मन द्वन्द्व से घिर गया।
'अरे, पर मैं कितनी भोली हूँ। कोई जरूरी तो नहीं कि राजकुमार मुझे चाहते ही हों? वह मेरे सामने देखते हैं, रोज मेरी नजरें उनकी निगाहों से टकराती है, पर इसका अर्थ यह कैसे हो सकता है कि वे मुझे चाहते ही होंगे? हो सकता है चाहते भी हों, पर वह चाहना... वह प्रेम स्त्री-पुरुष का... प्रकृतिपुरुष का ही हो, इसका सबूत क्या? क्या वे मुझे निर्लेप भाव से, निर्मल दृष्टि से तो नहीं देखते होंगे? मैं उन्हें जिन निगाहों से देखती हूँ क्या वे भी उन्हीं निगाहों से देखते होंगे? ऐसा मान कर मैं कुछ भूल तो नहीं कर रही हूँ?' जिनमति का मन कसक उठा। उसने अपनी हथेलियों के बीच सर को दबा दिया।
युवा हृदय कभी-कभी ऐसी भूले कर बैठता है। कोई उसकी तरफ स्नेहल आँखों से झाँके, थोड़े स्मित के साथ बात करे या थोड़ा स्नेह प्रदर्शित करे, युवा हृदय मान लेता है कि 'यह तो मुझे चाहती है, यह तो मेरे साथ प्रेम करती है।' प्रेम की परिभाषा आज तो मात्र थोड़ा शारीरिक मिलन... कल्पना की उड़ानभरी रंगीन बातें...और थोड़ा सा सहवास | यह कोई जरूरी नहीं कि सामने वाले व्यक्ति के स्मित या दृष्टिपात में यह सब हो ही! हो सकता है मात्र उसके प्रति प्रेम आदर... सम्मान का भाव! भक्ति की भावना! या फिर भाईबहन के निर्दोष स्नेह की धारा का प्रवाह!
जिनमति को भय लगा- कही राजकुमार मुझे भगिनी-भाव से तो नहीं देखते होंगे? मैं तो उन्हें मेरे मनमन्दिर का देवता बनाकर पूज रही हूँ! नहीं
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१२
जिनमति नहीं, ऐसा नहीं... उसका हृदय दहक उठा। वह झरोखे में से दौड़कर अपने कमरे में चली आयी।
सूरज अपनी किरणों का जाल समेटता हुआ पश्चिम की तरफ ढल रहा था। जिनमति की प्रतिज्ञा थी सायंकालीन भोजन से पूर्व सामायिक व्रत करने की। शुद्ध वस्त्र पहनकर स्वच्छ आसन बिछाकर उसने सामायिक व्रत धारण किया। दो घटिका के इस व्रत में जिनमति कभी नमस्कार महामन्त्र का ध्यान करती। कभी आत्मशांति के मार्गदर्शक धर्मग्रन्थों का अध्ययन-परिशीलन करती। समत्व की साधना का यह व्रत उसे बहुत प्रिय था। भयंकर गर्मी से व्याकुल मनुष्य शीतल जल के झरने में स्नान करे और उसे जैसी स्फूर्ति और प्रसन्नता मिले वैसी स्फूर्ति और प्रसन्नता जिनमति को सामयिक व्रत में मिलती थी।
जिनमति ने सामयिक लेकर श्री नमस्कार महामन्त्र के ध्यान में अपने मन को केन्द्रित करने का प्रयास किया, पर उसे सफलता नहीं मिली। बार-बार प्रयत्न करने पर भी उसे निष्फलता ही मिली। उसका मन कभी कामगजेन्द्र के तो कभी प्रियंगुमति के, कभी कल्याणी के विचारों में उलझ जाता है। वह नहीं चाहती कि सामायिक में उसका मन कहीं इधर-उधर भटके, पर अपने मन पर उसका नियंत्रण नहीं रहा। उसने धर्मग्रन्थ को पढ़ना प्रारम्भ किया। जीवन को उदात्त एवं उन्नत बनानेवाले धर्मग्रन्थ में उसका मन रम गया और मन को आराम भी मिल गया। ___ भारी मन को हल्का करना बहुत जरूरी है। मन को हल्का करने के सात्विक उपाय हैं, पर सत्वगुणी व्यक्ति ही उन उपायों को पसंद करता है। रजोगुणी एवं तमोगुणी मनुष्य तो निम्नस्तरीय उपायों के द्वारा मन को हल्का करने का प्रयत्न करते हैं। वास्तव में उससे मन हल्का होता ही नहीं। शांति का आभास मात्र होता है। जबकि मन का भार बढ़ता ही चला जाता है। सामयिक पूर्ण करके जिनमति रसोईगृह में जा पहुँची। यशोदत्ता, उसकी माँ, वहीं पर थी। यशोदत्ता अपनी दृष्टितले ही भोजन तैयार करवाती और अपने परिवार को स्वयं ही परोसती | यशोवर्म सेठ के परिवार में रात को खाना नहीं खाया जाता था। सूर्यास्त से पूर्व सभी भोजन कर लिया करते थे। जिनमति अपनी माँ के कार्य में हमेशा सहयोगी बनती। हालाँकि यशोदत्ता जिनमति से कार्य करवाना चाहती ही नहीं थी पर जिनमति हमेंशा अपनी माँ के कार्यभार को कम करने का प्रयत्न करती।
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जिनमति
'जिनु, इन दिनों कल्याणी अपनी हवेली में आती-जाती है, नहीं?' यशोदत्ता ने अपनी लाड़ली बेटी को बड़े प्यार से पूछा। 'हाँ माँ, मेरी सहेली जो बन गयी है! 'राजकुमार के महल की दासी है ना, यह तो?' 'हाँ माँ, बड़ी चतुर और प्रेमभरी है। बातें भी कितनी अच्छी-अच्छी करती है! जिनमति ने कल्याणी के बारे में अपना मत व्यक्त किया।
'आखिर सहेली किसकी है? कोई ऐरी-गैरी तो सहेली बनेगी ही कैसे मेरी लाड़ली की?' यशोदत्ता की आँखों में अपार वात्सल्य छलक उठा।
इतने में सेठ और लड़के आ गये भोजन के लिये | माँ और बेटी ने सबको भोजन परोसा। सबके भोजन करने के पश्चात् यशोदत्ता और जिनमति ने साथ बैठकर भोजन किया। भोजन से निवृत होकर जिनमति अपने गृहमंदिर में पहुँची। परमात्मा की वन्दना-स्तवना करके अपने कमरे में गयी तो वहाँ कल्याणी उसकी प्रतीक्षा करती खड़ी ही थी।
'कल प्रातः मैं तुझे लेने के लिए आऊँगी।' 'कल ही?' जिनमति आश्चर्य एवं रोमांच से सिहर उठी।
हाँ कल ही, आयेगी ना? तैयार रहना...अच्छा, तो मैं चलूँ। कहकर वह चली गई। जिनमति उसे जाती देखती ही रही। उसके मनोमस्तिष्क में अनेक विचार-प्रवाह आ-आकर उसे झकझोरने लगे। एक सुखद कल्पना उसके अंग
अंग में सिहरन पैदा कर रही थी। उसका मन-मयूर झूम उठा था!' कल कितने करीब से अपने मनोदेवता को नयनों में समा लूँगी! पर वे नहीं होंगे वहाँ तो? उनको जिससे प्यार है, स्नेह है, ऐसी युवराज्ञी से मिलकर ही मैं नाच उलूंगी। युवराज्ञी कितनी भाग्यशाली है? उसे युवराज का कितना प्यार मिल रहा है? वह युवराज की कितनी सेवा कर पाती है? काश! मैं भी मेरा पूरा जीवन युवराज के चरणों में अर्पित कर पाऊँ? विलीन कर दूँ तो?
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दीदी
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१४
३. दीदी
‘आओ, जिनमति! कितने दिनों से तुम्हें मिलना चाहती थी। प्रियंगुमति ने कल्याणी के साथ जिनमति को आते देखकर प्रसन्नता व्यक्त की ।
'हाँ, महादेवी, मैं भी बड़ी उत्सुक थी आपसे मिलने के लिए। जिनमति प्रियंगुमति के निकट आती हुई बोली ।
'ओह उधर नहीं, इधर आओ न ! मेरे समीप बैठो।' प्रियंगुमति ने जिनमति जो कि बीच में रखे हुए भद्रासन पर बैठ रही थी, को अपने पास पंलग पर बैठने का इशारा किया । जिनमति कुछ झिझकती हुई पलंग पर जा बैठी । प्रियंगुमति ने जिनमति के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा- 'कितनी अच्छी हो तुम! मुझे कल्याणी ने तुम्हारे बारे में बहुत सी बातें बतायी है ! तुम्हारा नाम कितना प्यारा है!'
'महादेवी, आप नाहक ही मेरी प्रशंसा के पुल बाँध रही हो। मुझमें ऐसी कोई विशेषता नहीं है। आपके व्यक्तित्व के आगे तो मैं सूरज के सामने जुगनू की भाँति लगती हूँ। मुझे कल्याणी ने आपके बारे में कुछ बातें बतायी है, सच कहूँ? मैं तो कल्याणी की बातें सुनकर मन ही मन आपसे प्यार करने लगी हूँ!'
'अच्छा, तो कल्याणी ने तुम्हें मेरे बारे में सब झूठी बातें ही बतलायी है, भला, मैं कहाँ इतनी वह हूँ जो तुम मुझे सातवें आसमान पर चढ़ाने लगी!'
'नहीं महादेवी, आपके गुणों की चर्चा तो हर एक नगरवासी की जुबान पर है और भला, कल्याणी क्यों मुझे गलत बातें बताएगी? हाँ, एक बात यह भी तो है, यदि कल्याणी मुझे आपके बारे में नहीं बताती तो फिर मैं आपसे मिल भी तो नहीं पाती न? मैं आज कितनी खुश हूँ आप से मिलकर !' जिनमति भावुकता में बह चली।
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'जिनमति, ये क्या 'महादेवी' और 'आप-आप' लगा रखा है ? वैसे मैं कोई उम्र में भी तुमसे ज्यादा बड़ी तो नहीं और फिर मुझे आप कहलाना पसन्द भी नही।' प्रियंगुमति ने जिनमति की ओर अर्थसूचक नजर से देखा । जिनमति की आँखों में प्यार की मछलियाँ तैरने लगी । " पर आप भी तो मुझे 'जिनमति' कह रही हैं। मैं क्या आपसे बड़ी हूँ ?'
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दीदी
१५ 'अच्छा बाबा, अब से नहीं कहूँगी बस? हाँ, देखो मैंने तुम्हारे लिए एक बड़ा प्यारा नाम खोज रखा है, बताऊँ क्या है वह नाम? कह दूँ? तुम्हे पसन्द आयेगा? 'कहिए ना?' जिनमति भावविभोर हो उठी।
'देखो, मैं तो तुम्हें 'जिनु' कहूँगी और मेरी छोटी बहन मानूंगी तुम्हें, बोलो, कबूल है ना?
'दीदी' बोलती हुई जिनमति की आँखों में स्नेह हिलोर लेने लगा। ___ 'आह आज मैं कितनी खुश हूँ! मुझे मेरी छोटी बहन मिली। मुझे कोई 'दीदी' कहकर पुकारने वाला मिला। मेरी जिनु!' प्रियंगुमति ने उसे, अपने पास खींच लिया और अपने अंकों में भर लिया। जिनमति का रोम-रोम पुलकित बन रहा था। प्रियंगुमति के श्वासों की सघनता उसके मन मस्तिष्क को आनन्द की अनुभूति से भर रही थी।
फिर तो दोनों बातें करती ही चली... आत्मीयता के आलोक में दोनों एक दूसरे के अंतस्तल की गहराइयों को छूने लगी। एक प्रहर बीत गया। जिनमति ने विदा माँगी।
'दीदी, मैं जाऊँ अब? माँ राह देख रही होगी।' "कल आओगी ना, जिनु?' 'प्रयत्न करूँगी दीदी।
'नहीं जिनु आना ही होगा। मुझे कितनी प्रसन्नता मिली तुमसे मिलने में । जिनु, सच मैं तुझे बहुत चाहती हूँ, मेरे हृदय में अपने लिए कितनी जगह कर ली तूने?' 'अच्छा दीदी, अवश्य आऊँगी। कहकर जिनमति लौट आई अपने घर |
दिन बीतते हैं। प्रियंगुमति और जिनमति के बीच आत्मीयता की अनुभूति गाढ़ बनती चली, बढ़ती चली। वर्षों की स्नेहलता मानों मूर्त हो उठी। प्रियंगुमति जिनमति को अपने मनोभाव की जरा भी गंध नहीं आने देती है। कामगजेन्द्र भी स्वयं का मनोमंथन प्रियंगुमति से छिपाने का निष्फल प्रयास कर रहा था। जिनमति तो मुक्तमन से प्रियंगुमति के पास आती है। हँसी के फव्वारे और खिलखिलाहट के बीच दोनों एक दूसरे में ऐक्य की अनुभूति पाते हैं। कामगजेन्द्र भी छिपी नजरों से जिनमति को देख लेता है पर प्रियंगुमति को किसी भी तरह की शंका न हो इसकी पूरी सावधानी रखता है।
कामगजेन्द्र सोच रहा था- 'पत्नी प्रेयसी को कबूल नही करती।' वह मन
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दीदी
१६ ही मन जिनमति को अपनी प्रेयसी मान बैठा है। हालाँकि अब तक कामगजेन्द्र ने जिनमति के साथ जरा सी भी बात नहीं की थी। हाँ, उसका मन अवश्य जिनमति के सौंदर्यपाश में बंध गया था। पर वह अपने मन को नियंत्रित करने का प्रयत्न करता था। प्रियंगुमति के दिल को जरा भी दुःखी करना वह नहीं चाहता था। वह प्रियंगुमति को समग्रता से प्यार करता था। प्रियंगुमति के सहवास में उसे कोई दुःख नहीं था, कोई शिकवा या शिकायत नहीं थी। फिर भी मानव मन है न? बड़ी मजबूर अवस्था बन जाती है, कभी-कभी मानव मन की। ___ प्रियंगुमति की तरफ से उसे जरा भी असंतोष नहीं है। फिर भी कामगजेन्द्र जिनमति को अपनी स्वप्नसुन्दरी मान बैठा है, उसने सपनें सजा रखे हैं। जिनमति के साथ प्यार के सपने! पर ऐसा कुछ करने को वह सहसा तैयार नहीं है कि जिससे प्रियंगुमति को पीड़ा हो, उसका हृदय टूट जाये। ऐसा कुछ भी करने के लिए वह तैयार नहीं है। ___ जब जिनमति का महल में आन-जाना बढ़ गया, प्रियंगुमति और जिनमति परस्पर निकट आने लगी, उनके सम्बन्ध गाढ़ बनने लगे तो कामगजेन्द्र के मन को भी एक अनजान तृप्ति का अहसास होने लगा। पर प्रियंगुमति की पैनी नजर कामगजेन्द्र के चेहरे का बराबर अध्ययन कर रही थी।
जिनमति के लिए वह कितना कुछ सोच रही थी। प्रियंगुमति ने जिनमति में आदर्श पत्नी के अनेक लक्षण देखे। 'कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी' के अनुसार उसने उसमें एक पुरुष के अभिन्न सच्चे मित्र बनने की योग्यता पायी। वात्सल्य भरी माता, प्रेम भरी प्रमदा, मैत्री भरा मित्र, रूपयौवनपूर्ण ललना...एक स्त्री के अनेक रूप उसने जिनमति के व्यक्तित्व में पाये, इतना ही नहीं, उसकी सहनशीलता की परीक्षा करके उसमें सर्वसहा धरित्री का रूप भी पाया। धार्मिकता के भाव भी उसने जिनमति के प्राणों में प्राणवान पाये। ___ प्रियंगुमति का यह अपूर्व अद्भुत निरीक्षण और परीक्षण था। उसकी एक ही मनोकामना थी- कामगजेन्द्र को ज्यादा से ज्यादा सुख मिले। चूँकि वह कामगजेन्द्र को अपने पूरे हृदय से चाहती थी। उसके लिए कामगजेन्द्र की प्रसन्नता से बढ़कर दूसरा कुछ नहीं था। वह जानती थी कि कामगजेन्द्र जिनमति को मन ही मन प्यार करता है और जिनमति के मन की गहराइयों को उसने छू लिया था। कामगजेन्द्र के प्रति जिनमति की आंतर प्रीति भी उससे अपरिचित नहीं थी। यदि जिनमति कामगजेन्द्र की पत्नी बने तो वह स्वयं खुश थी। चूँकि वह चाहती थी अपने पति की आंतर-बाह्य प्रसन्नता को ।
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१७
दीदी वह अपने पति को स्वैर विहारी बना देखना नहीं चाहती थी। वह अपने पति को उन्मार्गगामी बनाना नहीं चाहती थी। प्रियंगुमति कामगजेन्द्र को पूरी तरह समझ पायी थी। कामगजेन्द्र की चढ़ती जवानी थी। वह राजकुमार था। उसके पास यौवन था। वैभव था। इतना ही नहीं, उसमें कई विशेष गुण भी थे। एक पत्नी अपने पति से जो चाहना रखे वह सब पूरी करने की उसकी क्षमता थी। जैसे उसने अपने पति को पहचाना था वैसे उसने जिनमति का भी अच्छी तरह अध्ययन किया था। उसकी समझशक्ति ने, उसकी चंचलता ने, प्रेमार्द्रता ने, उसके भावुकता भरे व्यवहार ने प्रियंगुमति को काफी प्रभावित कर दिया था। __ प्रियंगुमति का हृदय जिनमति की तरफ इस कदर खींच गया था कि जिनमति को हमेशा के लिए अपने पास रखने के सपने वह देखने लगी। उसने यह भी महसूस किया कि जिनमति मन ही मन कामगजेन्द्र को अपना सर्वस्व समझ बैठी है!
राज्य के महत्त्वपूर्ण कार्य से कामगजेन्द्र को तीन दिन के लिए दूर के गाँव जाना पड़ा। प्रियंगुमति की प्रेमभरी कामनाओं को लेकर कामगजेन्द्र चला गया। प्रियंगुमति अपने शयनखंड में कल्याणी के साथ बातें करती बैठी थी। इतने में जिनमति ने प्रवेश किया। प्रियंगुमति की आँखें चमक उठी। ___ 'आ, जिनु! कितनी लम्बी आयु लेकर आई है तू? मैं अभी तेरी ही बातें कर रही थी कल्याणी के साथ! मैं सोच ही रही थी कि आज का पूरा दिन कैसे बितेगा? अच्छा हुआ तू आ गयी।' जिनमति को अपने पास बिठाकर उसके मस्तिष्क को अपने सीने से लगाते हुए प्रियंगुमति जिनमति के सर को सहलाने लगी।
'दीदी, सच कहूँ? मुझे तो यह महल, मेरी दीदी और...यह सब बड़ा प्यारा लगता है।' जिनमति की आँखों में पारदर्शिनी सरलता झलकने लगी।
यह सब तेरा ही तो है जिनु, और तेरी दीदी भी तो तेरी हो चुकी है।' प्रियंगुमति के चेहरे पर मुस्कराहट छा गयी। जिनमति की आँखें छलछला सी गयी। ___'दीदी, ऐसे कहीं अपना मानने से थोड़े कोई अपना हो जाता है? अपना मनचाहा तभी तो मिलता है जब पुण्य की पराकाष्ठा हो' जिनमति के स्वर में दर्द की टीसें उभर आई।
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दीदी
१८ 'मेरी जिनु कितनी पुण्यशाली है! जिनमति को अपने पास खींचकर अपने सीने से लगा ली। वह जिनु की नीलम सी चमकती आँखों में झाँकने लगी। ___ कल्याणी जा चूकी थी। खंड में मात्र दो सहेलियाँ ही रह गई थी। एक चुप्पी सी छा गई थी। 'जिनु, एक प्रश्न पूछू?' ‘एक नहीं अनेक, दीदी! लगता है तुम मुझे पूछती ही चलो, मैं तुम्हें जवाब देती ही रहूँ। तुम्हारी घंटियों सी आवाज मेरे मनोमंदिर में सदा के लिए गूंजती रहे। दीदी, मेरी प्यारी दीदी, मुझे तुम... और जिनमति ने अपना चेहरा प्रियंगुमति'के उत्संग में छिपा दिया।
'जिनु!' प्रियंगु ने उसके चेहरे को ऊपर उठाते हुए, उसकी आँखों में झाँका | "जिनु, तूने धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया है न?' 'हाँ दीदी, ज्यादा तो नहीं पर थोड़े बहुत ग्रन्थों का अध्ययन किया है।' ‘पर तूने अध्ययन किया तो है न?' 'हाँ मेरी माता के आग्रह से।' 'तेरी माँ बहुत धर्मशीला हैं। नहीं?'
'बहुत धार्मिक विचार-व्यवहार वाली है माँ, पर इतनी ही प्रेमभरी और वात्सल्य के वारिधि सी है मेरी माँ! हाँ, पर दीदी आप क्या पूछ रही थी?'
'ये फिर आप... आप...' 'अच्छा दीदी, अब नहीं... भूल हो गई। 'जिनु, क्या एक पुरुष दो पत्नी नहीं कर सकता है? और करे तो क्या धर्मविरुद्ध होगा? वह?' प्रियंगु ने अपने मन में दबे प्रश्न को आखिर प्रगट कर दिया। ___ 'जिनमति पहले तो चौक उठी, पर तुरन्त सहज बनकर जवाब दिया : दीदी, क्या भगवान ऋषभदेव को दो पत्नियाँ नहीं थी? चरमशरीरी भरत चक्रवर्ती को क्या हजारों रानियाँ नहीं थी? तो क्या वे महापुरुष धर्मविरुद्ध आचरण करने वाले थे?'
'देख जिनु, तीर्थंकर और चक्रवर्तियों की बात अलग है। तीर्थंकरों ने जो किया वह अपन नहीं कर सकते, पर उन्होंने जो कहा है वैसे करने का है।'
'अच्छा, चलो जाने दो इस बात को | पर तीर्थकरों ने मना थोड़ी ही की है
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१९
दीदी अनेक पत्नियाँ करने की?' जिनमति ने प्रश्न किया।
'तीर्थंकरों ने परस्त्रीगमन का निषेध किया है। अपनी पत्नी के साथ सहवास की मनाही नहीं की है।' 'पर पत्नियाँ कितनी?' 'पुरुष की पालन करने की, रक्षण करने की और संतुष्ट करने की शक्ति हो उतनी।
‘पर ऊपर-ऊपर से देखा जाय और आत्मदृष्टि से सोचा जाय तो यह रागदशा को पुष्ट करना ही होगा न? इससे तो कामवासना प्रबल बनेगी ना? इससे समाज का कितना अहित होगा?'
'दीदी, बस वही तो भ्रमणा है। क्या जिसे एक ही पत्नी हो उसकी कामवासना प्रबल नहीं बनती है? क्या एक ही स्त्री में लुब्ध जीवात्मा दुर्गतिगामी नहीं बनती? और क्या अनेक पत्नी वाले मुक्ति के यात्री नहीं बनते? एकान्त से तो कोई नियम नहीं है।'
'हाँ, वह तो है ही। अनेक स्त्रियों का त्याग करके भी कई जीवात्माएँ मुक्तिगामी बनी हैं।'
"तो फिर इसका अर्थ यह हुआ कि एक पत्नी हो या अनेक पत्नी हो, मुक्त बनने के लिए तो आसक्ति में से बाहर निकलना जरूरी है। ऐसा कोई नियम नहीं है कि एक पत्नीवाला जल्द अनासक्त बनता है और बहुपत्नीवाला देर से अनासक्त बनता हो... सच तो यह है कि जिसकी ज्ञानदृष्टि खुल जाय वह अनासक्त बनता है, चाहे फिर वह एक पत्नीवाला हो या अनेक पत्नीवाला हो।' 'तेरी बात तो जिनु, विचारणीय है।'
'नहीं दीदी, विचारने जैसी क्यों? मेरी दृष्टि में तो यह बात स्पष्ट, सत्य एवं सहज लगती है। तुम्हीं सोचो : जो पुरुष एक ही स्त्री में, अपनी पत्नी में, सन्तुष्ट नहीं होते हैं, यदि उन्हें दूसरी पत्नी के लिए निषेध कर दें तो क्या वे दुराचार की राह पर नहीं चले जाते? वह तो कितना बड़ा पाप होगा पर यदि पुरुष समर्थ है, दूसरी स्त्रियों का पोषण करने में, संतुष्ट करने में सक्षम है और अनेक स्त्रियों को किसी भी तरह के संघर्ष के बिना सहजीवन का आनन्द दे सकता हो तो वह कर सकता है दूसरी स्त्री से शादी, बीचमें...,थोड़ा रुककर उसने बात आगे बढ़ाई :
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२०
दीदी
'हाँ, पर यदि पत्नियों के बीच मेल-जोल न हो, ईष्या-द्वेष वगैरह पैदा होते हों तो फिर बेचारे उस पुरुष की पूरी बारह कब बज जायेगी! और जिनमति खिलखिला उठी। ___ ‘पर जिनु, स्त्रियों में ईष्या और उसमें भी अपनी सौत पर तो डाह हो ही जाती है। __ 'होता है ऐसा भी, पर सभी की बात ऐसी नहीं होती। स्त्रियाँ उदार विचारवाली गम्भीर हृदय की भी होती ही हैं। अरे, वह बात छोड़ो, अपने तो पुण्य का सिद्धान्त मानते है ना? तो फिर सीधी और सच बात यही है कि पुण्यशाली पुरुष को स्त्रियाँ भी इतनी सरल और अनुकूल ही मिलेगी। यदि उसका पापोदय होगा तो उसे एक पत्नी भी ऐसी कर्कशा मिलेगी कि नाकों चना चबवा देगी। जिनमति की हँसी में प्रियंगुमति की हँसी भी मिल गयी। ___ 'जिन, वैदिक धर्म तो एक ही पत्नी का सिद्धान्त मानता है ना?'
'हाँ दीदी! बड़े भोलेपन से उसने कहा- "राम को एक पत्नी होने की बात करते है परन्तु कृष्ण के कितनी पत्नियाँ थी? कितनी गोपियों के साथ कृष्ण ने रास रचाये थे?
'हाँ, यह तो बड़ी बेहूदी बात लगती है।' प्रियगुंमति जिनमति की तर्कशक्ति पर आफरीन हो उठी। जिनमति की नजर पश्चिम के वातायन की तरफ गयी। सूर्य अस्ताचल की तरफ आगे बढ़ रहा था। साँझ की बेला घिर रही थी। वह चौक उठी।
'दीदी, अच्छा तो अब मैं चलूँ । माँ राह देख रही होगी। पिताजी और भैया भी तो भोजन के लिए आ गये होंगे।' ___ 'तुम सब साथ ही खाना खाते हो,?'
'हाँ दीदी, शाम का खाना हम सब साथ ही खाते हैं।' 'कितना प्यारभरा परिवार है तेरा! सच, तू बड़ी भाग्यशालिनी है। अच्छा, बता, वापस कब लौटेगी?'
'तुम कहो तब दीदी। __ 'तो आज शाम को देवदर्शनादि से निवृत होकर आ जाना। माँ को बोल देना- रात यहीं रुकना, बातें करेंगे।' ‘पर युवराज...?'
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दीदी
1
'वे तीन दिन के लिए यात्रा पर गये हैं
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२१
'अच्छा, अब बात समझ में आई ! इसलिए ही मुझे निमन्त्रण मिला है।' वह प्रियंगुमति से बातें करती थी पर उसकी आँखें तो कामगजेन्द्र को ही खोज रही थी । उसके मन की दुविधा मिट गई ।
'अरे! जिनु, तुझे निमन्त्रण कैसा? इच्छा हो तो मेरी बहन को यहीं रख लूँ मेरे पास ?'
'अच्छा दीदी, रात को आ जाऊँगी।'
जिनमति त्वरित गति से वहाँ से चली गई । कल्याणी ने भोजन की थाली लेकर प्रवेश किया ।
'आज तो जिनमति काफी देर तक बैठी, नहीं?' कल्याणी ने थाली रखते हुए पूछा ।
'हाँ, बातों में खो गये थे।'
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'कितनी अच्छी है जिनमति ! आप तो उसको छोड़ती ही नहीं ! सच ऐसी कन्या अपने नगर में तो दूसरी है ही नहीं ।'
'हाँ, न जाने क्यों मुझे जिनु से इतना स्नेह बँध गया है!' कहकर प्रियंगुमति भोजन की तैयारी करने लगी ।
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मन की बात
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२२
४. मन की बात
प्रियंगुमति जिनमति की बुद्धि को नापना चाहती थी और उसने नाप लिया। जिनमति में उसने कई असाधारण गुण देखे, जो कि अधिकांश स्त्रियों में नहीं पाये जाते। रूप और यौवन के साथ-साथ उसमें विशिष्टि गुण एवं कुशाग्र बुद्धि थी, स्वतन्त्र विचारशक्ति भी थी। दूसरी ओर उसने अपना और कामगजेन्द्र का भी विचार कर लिया । उसे कामगजेन्द्र पर अटूट विश्वास एवं प्रगाढ़ श्रद्धा थी कि कामगजेन्द्र उसको - प्रियंगुमति को कभी भूलेगा नहीं । उसके प्रेम में कोई कमी नहीं आयेगी । अरे! जिनमति स्वयं ही कामगजेन्द्र को मुझ से दूर करना नहीं चाहेगी।
यह उस समय की बात है जब राजकुमार अनेक शादियाँ करते थे। सामाजिक दृष्टिकोण से अनेक शादी अनैतिक या अनुचित नहीं मानी जाती थी। प्रियंगुमति ने जिनमति की शादी कामगजेन्द्र के साथ कर देने की मन में ठान ली। कामगजेन्द्र गाँव के दौरे पर से लौट आया था। प्रियंगुमति ने आज ही बात करने का निर्णय किया ।
साँझ की बेला झूम रही थी । महल के झरोखे में दोनों बैठे थे। प्यार मनुहार की बातें चल रही थी और वहाँ जिनमति आ पहुँची । उसे पता नहीं था कि कामगजेन्द्र आ गये हैं। वह तो 'दीदी' कहकर चिल्लाती हुई हवा की तरह झरोखे की ओर चली आयी, पर कामगजेन्द्र को देखते ही वह मारे शरम के पानी-पानी हो गई। दीवार के सहारे झेंपती हुई खड़ी होकर उसने आँखें झूका दी ।
'आ, जिनु !' प्रियंगुमति जिनमति को झेंपती हुई देखकर हँस पड़ी । कामगजेन्द्र तो जिनमति को ताकता ही रहा । शर्म से लाल बने उसके चेहरे का निखार, यौवन से अलसायी उसकी देह देखकर वह स्तब्ध सा रह गया ।
'दीदी, मैं बाद में आऊँगी ।' कहकर प्रियंगुमति की तरफ एक मधुर स्मित फेंककर जिनमति वहाँ से हिरनी की भाँति दौड़ गई।
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'पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ इतनी घुल-मिल गयी है कि बस, दिन में दो बार न आये तो, न तो इसे चैन पड़ता है और न ही मुझे ।' प्रियंगुमति ने कामगजेन्द्र की ओर देखकर कहा ।
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२३
मन की बात ___ 'बड़ी शर्मिली है न?' कामगजेन्द्र ने आज सर्वप्रथम जिनमति के बारे में अपनी जुबान खोली।
'आपकी उपस्थिति में तो बेचारी शरमा ही जायेगी न?' कामगजेन्द्र मौन रहा। प्रियंगुमति को लगा कि अब बात करने का अच्छा मौका है।
'मुझे इससे बहुत प्यार हो गया है। इतना अपनत्व हो चुका है कि बस...अपने पास ही रख लूँ इसको सदा के लिए! ऐसा ही आता है दिमाग में! __'तो फिर रख ले न!' कामगजेन्द्र के हास्य से वातावरण भर गया।
‘पर आपकी इजाजत भी तो चाहिये ना!' 'अरे! भला इसमें मेरी इजाजत की क्या जरूरत है?' 'क्यों नहीं? मैं कोई इसे अपनी दासी बनाकर थोड़े ही रखूगी।
'तो?' कामगजेन्द्र प्रियंगुमति को देखता ही रहा। उसकी पारदर्शी आँखों में प्यार, समर्पण और सहजता का सागर उछल रहा था।
'तो क्या?' उसे तो मेरी बहन बनाकर रख सकती हूँ। अब बताइये, इसमें आपकी इजाजत चाहिये या नहीं?' 'आज तेरी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है।' 'सच-सच बता दूँ? 'निःसंकोच।' 'आप जिनमति के साथ शादी कर लो।'
कामगजेन्द्र स्तब्ध सा रह गया। हालाँकि उसकी मनोकामना यही थी पर प्रियंगुमति स्वयं यह प्रस्ताव रखेगी ऐसा तो उसने सोचा भी नहीं था। वह सिहर उठा। उसकी आँखें प्रियंगुमति की आँखों में खो गई। प्रियंगमति ने बड़े प्यार से उसके हाथ को अपने हाथ में लिया और सहलाते हुए बोली :
'मेरे देव, मेरी प्रार्थना को स्वीकार करो।' 'प्रियंगु, तू क्या बोल रही है? कुछ सोचा भी है इस विषय में?' 'मैं आपका विचार नहीं करूँगी तो किसका करूँगी? आप कहिए न खुलकर | मुझसे आप परदा क्यों रखते हैं? क्या आप जिनमति से मन ही मन प्यार नहीं करते? क्या आप उसके बिना बेचैन नहीं हैं?'
'तेरी बात सच है, पर मैं शादी नहीं कर सकता!
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२४
मन की बात
कामगजेन्द्र ने नीलाकाश में नजर फेंकी। चन्द्रमा की शीतल किरणों का जाल पृथ्वी पर बिछा जा रहा था। खिली हुई चाँदनी और समीप के उद्यान में महकते हुए रजनीगंधा के फूल वातावरण को सुहावना बना रहे थे। उसके
चेहरे पर गम्भीरता छा गयी । ___ 'अरे, आप इतने नाराज क्यों हो रहे हो? आखिर आप मना क्यों कर रहे हैं?' प्रियंगुमति ने कामगजेन्द्र के चेहरे को अपनी हथेलियों में बाँध लिया। ___ 'मैं तेरे प्यार को धोखा देना नहीं चाहता।' प्रियंगुमति के सामने बिना देखे ही कुछ दर्दभरी आवाज में कामगजेन्द्र ने कहा। "जिनमति के साथ शादी करने में मेरे प्यार को धोखा कैसे? मैं ही तो आपको कह रही हूँ, बड़ी प्रसन्नता से कह रही हूँ, जिनमति को मैं बहुत चाहती हूँ, उसे मैं हमेशा-हमेशा के लिए मेरे समीप, मेरे पास... ___ 'हाँ, मैं समझ गया देवी, तुम जिनमति को क्यों चाहती हो? चूँकि तुम मुझे चाहती हो, मेरे सुख की खातिर, मेरे मन की वासना हेतु तुम अपने सुख स्वेच्छया त्याग कर रही हो।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति के हाथों को अपनी हथेलियों में जकड़कर प्रियंगुमति की ओर देखा । प्रेम और समर्पण की साकार प्रतिमा का रूप उसने प्रियंगुमति के व्यक्तित्व में पाया।
'तूने मुझे क्या नहीं दिया? तेरे में कमी भी क्या है?' कामगजेन्द्र की आवाज में टीसें उभरी। उसकी आँखें छलछला गयी।
'मैं आपकी ही हूँ न? आपमें ही तो मैंने अपना सर्वस्व विलीन किया है। आपकी खुशी के लिए मैं हर समय तैयार हूँ। आपसे बढ़कर भला मेरे लिए क्या होगा?' 'तो फिर क्यों जिनमति के साथ शादी करूँ?'
मेरे लिए, जिनमति के लिए, वह आपको हृदय से चाहती है, क्या आप नहीं पहचान पाये उसकी मनोकामना को? अभी-अभी वह कैसी लाजवन्ती की भॉति शरमा गयी थी आपको देखकर? उसकी हर धड़कन में मानों आपकी ही स्मृति है। पिछले कई दिनों से वह आती तो है मुझसे मिलने के लिए, पर उसकी आँखें आपको ही ढूँढ़ती रहती है। आपको देखकर उसका चेहरा कैसा खिल उठता है? उसका पूरा अस्तित्व महक उठता है। प्रियंगुमति की कल्पना में जिनमति की सोकर उठे हुए निर्दोष मृगछौने सी अलस आँखें तैर आयी।
'देवी, मैं नहीं चाहता तुमसे मेरे मन की बात छिपाना, मुझे जिनमति के
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२५
मन की बात प्रति गहरा अनुराग है। जबसे मैंने उसे महल के सामने के झरोखे में देखा है तब से वह मेरे मन-मस्तिष्क पर छा चुकी है। उसने मेरे दिलो-दिमाग पर अधिकार जमा लिया है। पर... _ 'पर कुछ नहीं। आप मेरा विचार कर रहे हो ना? मत करो। जिनमति संसार की साधारण स्त्रियों जैसी नहीं है। उसमें असाधारण गुण है। वह अपने बीच कभी दीवार बनेगी ही नहीं। वह मुझे आपसे अलग करेगी ही नहीं। वह स्वार्थी, अभिमानी या डाहवाली नहीं है। आप विश्वास रखिये।' __ महल की मुँडेर पर रत्नों के दिये झगमगा रहे थे। रात का प्रथम प्रहर बीत रहा था । युवराज एवं युवराज्ञी वार्तालाप में खो गये थे। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति के आंतर-व्यक्तित्व में खोया जा रहा था। प्रियंगुमति की उदारता, गम्भीरता और समर्पण की उच्चतम भूमिका देखकर उसका हृदय स्नेह से छलछला उठा। _ 'खैर, मानलिया, जिनमति सुयोग्य कन्या है। वह स्वार्थी नहीं, कबूल है पर मैं खुद ही उसमें खो गया तो? और फिर तुझे भुला दिया तो? पुरुष के भ्रमर से मन को तुम जानती हो ना?' ___ 'ओफ्फोह! कैसी बातें कर रहे हो आप? आप मुझे कभी भुला ही नहीं सकते। मुझे विश्वास है। और कभी आप जिनमति में खो भी जायेंगे तो खो जाना, जिनमति में भी आप प्रियंगुमति को पायेंगे!' 'परन्तु इससे तुझे क्या सुख मिलेगा?' 'आपका सुख वही मेरा सुख । आपको सुखी और प्रसन्न देखकर मैं भी सुखानुभव करूँगी। दैहिक सुख से भी मानसिक सुखानुभूति ज्यादा प्रसन्नतादायी बनती है।'
'क्या तुम मुझे पराजित करोगी?'
'जब आपने मेरे तन-मन...अरे समग्र जीवन को ही जीत लिया है, फिर भला आपकी हार कैसे? मेरी जीत वह आपकी ही जीत है ना? क्या अपन अलग हैं? आप और मेरे बीच में भेद हो तो बात है ना?'
कामगजेन्द्र भावविभोर हो गया। उसने प्रियंगुमति को स्नेहपाश में जकड़ लिया। प्रियंगुमति के चेहरे पर प्रसन्नता के गुल खिल उठे।
द्वारपाल ने प्रथम प्रहर पूर्ण होने की सूचना दी। प्रियंगुमति और कामगजेन्द्र झरोखे में से महल के भीतर आ गये और शयनखण्ड में चले गये।
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मन की बात
२६ ___ प्रियंगुमति का कार्य बन गया। उसका मन शांत था। पलंग में गिरते ही उसे निद्रादेवी ने अपनी गोद में खींच लिया | पर कामगजेन्द्र बेचैन था । उसके लिए बड़ी उलझन पैदा हो गयी थी। वह प्रियंगुमति के दिव्य प्रेमाई व्यक्तित्व को देख रहा था। पति के सुख के लिए यह नारी अपना सर्वस्व लूटा रही है। अपनी तमाम आकांक्षाओं को कुचल रही है। इसके चेहरे पर कितनी अपूर्व प्रसन्नता छायी है! वह देखता ही रहा प्रियंगुमति के चेहरे को।
मेरे मनोभाव इसने जान लिये थे, फिर भी इसने मुझे जरा सी भी भनक नहीं आने दी कि यह मेरे मनोभाव जान चुकी है। न कोई प्रतिरोध! न कोई गुस्सा! बल्कि जिनमति के साथ शादी करवाने के लिए तैयार हो गई। यह इसकी कितनी उत्तमता है। पर मेरा कर्तव्य क्या? क्या मैं जिनमति के साथ शादी कर लूँ? यह उचित होगा? इसने तो मेरी अनुमति ले ली। हालाँकि वास्तव में तो मुझे पसन्द ही है। क्या मैं नहीं चाहता हूँ उस युवती को? मैं क्यों खींच गया उसकी तरफ? कितना वासना-विवश है मेरा मन? मैं कहाँ और यह साध्वी जैसी प्रियंगुमति कहाँ?
कामगजेन्द्र मनोमंथन में से तत्त्वचिंतन में चला जाता है। 'मेरी कैसी विकार-विवश दशा है? इन कामविकारों को मैं अच्छे नहीं' मानता। आत्मा की अघोगति के कारण हैं, ये कामविकार | फिर भी मैं इन कामविकारों में बहता चला जा रहा हूँ। समझता हूँ ये सारे कर्मजन्य भाव हैं। मेरी आत्मा तो उसके मूल स्वरूप में शुद्ध है, अधिकारी है। परन्तु वह स्वरूपरमणता आ नहीं रही। इन्द्रियों के विषयों में लुब्ध बनता जा रहा हूँ, इन इन्द्रियों को चाहे जितने प्रिय विषय मिले पर ये कभी तृप्त होने की नहीं। क्या जिनमति का सहवास मिलने पर मेरी मनोवृतियाँ तृप्त हो जायेंगी? नहीं, वें तो और ज्यादा धधक उठेंगी।'
पास में सोयी हुई प्रियंगुमति ने करवट बदली। उसके मुख में से अस्पष्ट शब्द निकल रहे- "जिनु! उन्होंने मेरी बात मान ली। तू मेरी छोटी बहन... कामगजेन्द्र भीतर तक संवेदना से सिहर उठा' अरे! यह तो सपने में भी जिनमति के पास चली गई। इसके मन में जाने एक यहीं बात बसी है!'
कामगजेन्द्र ने विचारों में ही रात्रि का दूसरा प्रहर पूर्ण किया। निद्रा तो आज उसके पास ही नहीं आ रही थी। विचारों से मुक्त बनने के लिए उसने परमेष्ठि-पदों के ध्यान में अपनी चेतना को बाँधना चाहा। शयनखण्ड के दीप
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२७
मन की बात मद्धिम-मद्धिम रौशनी दे रहे थे। मध्यरात्रि का समय हो चुका था। कामगजेन्द्र का चित्त वातावरण की नीरवता में विचारों से मुक्त होने लगा। पश्चिम से आने वाली मन्द-मन्द हवा के झोंके कामगजेन्द्र को स्पर्श कर रहे थे अचानक प्रियंगुमति की आँखें खुल गई।
'अरे, क्या आप अभी भी जाग रहे हैं?' वह उठकर पलंग में बैठ गई। 'अब नींद आ रही है।' कामगजेन्द्र प्रियंगुमति की गोद में सर रखकर सो गया। प्रियंगुमति उसके काले-काले धुंघराले बालों को अपनी करांगुलियों से सहलाने लगी। कामगजेन्द्र को नींद आ गई।
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दो देह एक प्राण
२८
|| ५. दो देह एक प्राण ।
जिनमति की शादी कामगजेन्द्र के साथ भली-भाँति हो गई। प्रियंगुमति का सोचा हुआ कार्य पूरा हो गया। कामगजेन्द्र की कामना पूरी हुई और जिनमति के मनोरथ भी पूर्ण हो गये। ___ संसार में ऐसे सम्बन्ध बँध तो जाते हैं पर दीर्घकाल, जीवनपर्यंत ऐसे सम्बन्ध बने रहना मुमकिन नहीं। इसका कारण जीवात्मा के पुण्य-पाप हैं, ऐसा धर्मग्रन्थ कहते आए हैं | मानवशास्त्री इस बात को मानव स्वभाव के गुणदोष के सिद्धांत से समझाते हैं।
कामगजेन्द्र का स्नेह दोनों पत्नियों पर है। प्रियंगुमति का स्नेह कामगजेन्द्र और जिनमति दोनों पर बरस रहा है। जिनमति भी कामगजेन्द्र और प्रियंगुमति पर अपना समूचा प्रेम उड़ेल रही है। परिवार में न तो संघर्ष है और न ही तनाव । न तो ईर्ष्या और न ही स्पर्धा |
स्नेह गुण-दोष की ओर नजर करता ही नहीं। गुण-दोष के माध्यम से बँधा स्नेह लम्बे अरसे तक नहीं टिक सकता, अखण्ड नहीं रह पाता, बढ़ता नहीं जाता। जिनमति, प्रियंगुमति और कामगजेन्द्र का परस्पर का स्नेह प्रगाढ़ और गहरा था।
कामगजेन्द्र का बाह्य व्यक्तित्व राग और विलास से रंगा हुआ दिखता है पर अन्तरात्मदशा तो बिल्कुल ही भिन्न है । अन्तरात्मा से वह विरागी है, विरक्त है। ज्ञाता है, द्रष्टा है। क्या ऐसा विरोधाभासी व्यक्तित्व हो सकता है? हाँ, हो सकता है। मनुष्य बाहर से जैसा दिखता हो अन्दर से वैसा ही हो ऐसा कोई सनातन नियम नहीं है। जैसा अन्दर में हो वैसा ही बाहर से दिखना चाहिए, ऐसा भी कोई सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है। बाहर से साधु दिखने वाला भीतर से शैतान भी हो सकता है। अन्दर से साधु हो पर बाहर से हमें शैतान दिखाई दे, यह भी शक्य है। भीतर से भी साधु और बाहर से भी साधु, ऐसी विरल आत्माएँ भी हो सकती हैं। इन शक्यताओं का अपलाप हम नहीं कर सकते।
श्रेष्ठिकन्या राजकुमार की पत्नी बनी। जिनमति के पास यौवन था पर उन्माद नहीं था। उसके पास रूप एवं सौन्दर्य था पर गर्व नही था। उसके पास मीठे बोल थे पर वाचालता नहीं थी। जिनमति कार्यकुशल थी पर
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२९
दो देह एक प्राण अहंकार उसे छू भी नहीं पाया था। जिनमति के सहवास में कामगजेन्द्र वैषयिक सुख पाने लगा। जिनमति ने कामगजेन्द्र को अपना सर्वस्व सौंप दिया। कामगजेन्द्र के समूचे व्यक्तित्व को अपने प्रेम से भरा-पूरा बना दिया। कामगजेन्द्र ने भी जिनमति के तन-मन को तृप्त करने में कमी न रखी। ___ एक दिन जिनमति प्रियंगुमति के खण्ड में, प्रियंगुमति के उत्संग में अपना सर रखकर प्रियंगुमति से वार्तालाप कर रही थी। ___ 'जिनु, तेरा महल तैयार हो गया है, मुझे आज ही महामन्त्री ने समाचार दिये।
'मेरा महल? तो फिर यह महल किसका है दीदी?' जिनमति ने प्रियंगुमति की झील सी गहरी आँखों में झाँका। 'तेरे लिए स्वतन्त्र महल चाहिए न! इसीलिए मैंने ही बनवाया है।'
'तो क्या मैं यहाँ परतन्त्र हूँ? यहाँ कभी तुमने मुझे उदास देखा? अशांत देखा? क्या मेरा तुम्हारे साथ रहना तुम्हें अच्छा नहीं लगता? क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?' जिनमति की आँखों के किनारे आँसूओं से छल-छला उठे।
'जिनु, प्रियंगुमति ने उसको अपने समीप खींचकर उसकी आँखों में झाँका | तू मुझे कितनी प्यारी है, क्या मैं शब्दों में कह बताऊँ? तू तो मेरी दूसरी आत्मा है।
'तो क्या अपनी आत्मा को दूर करोगी, दीदी? तुम्हारे साथ रहकर मैं कितनी खुश हूँ, प्रसन्न हूँ, मुझे अपनी प्यार-भरी माँ की भी याद नहीं सताती । मुझे दूर मत करो, दीदी। मुझे अलग महल नहीं चाहिए। मैं इस गोद में ही रहूँगी, मेरा महल तो यही है। जिनमति ने अपना सर प्रियंगुमति के सीने पर रख दिया।
प्रियंगुमति ने उसको अपने अंकपाश में भरते हुए कहा- "अच्छा जिनु, तेरी इच्छा नहीं तो तुझे मैं अपने से दूर नहीं करूँगी बस! ।
जिनमति के होंठ मुस्करा उठे । वो प्रियंगुमति को 'दीदी' कहती हुई लिपट गयी। प्रियंगुमति का हृदय भी प्यार से भर गया। ___ दोनों बातें कर रहे थे, इतने में कल्याणी ने आकर सूचना दी, "महादेवी, महाराजकुमार उद्यान में पधार रहे हैं, आपको याद कर रहे हैं।'
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दो देह एक प्राण
३० ___ प्रियंगुमति खड़ी हो गई। जिनमति को साथ आने के लिए कहा पर जिनमति ने कामगजेन्द्र के भोजन की व्यवस्था की जिम्मेदारी खुद उठा रखी थी, अतः उसने कहा- "दीदी, तुम जाओ। मैं रसोईघर में जाऊँगी। समय हो चुका है। ___ प्रियंगुमति जब कामगजेन्द्र के पास पहुँची, कामगजेन्द्र रथ में बैठ गया था। प्रियंगुमति भी रथ पर बैठ गई। रथ नगर के बाहर उद्यान की तरफ दौड़ने लगा | जब रथ नगर के बाहर शून्य प्रदेश में आ पहुँचा तब कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति के चेहरे पर नजर फेंकी। 'देवी! 'स्वामिन! 'जिनु के लिए नया महल बनवाया?' 'राजपरिवार की यही परम्परा है।' 'जिनु को वहाँ अच्छा लगेगा?' 'नहीं। 'तो फिर? 'वह इसी महल में रहेगी। 'मुझे था ही कि तेरे बिना वह नये महल में नहीं रह सकती।' 'कैसे रहेगी? मेरी दूसरी आत्मा जो है।' 'पहली आत्मा कौन है?' 'आप।'
उद्यान आ गया। रथ को उद्यान के बाहर छोड़कर दोनों ने उद्यान में प्रवेश किया । कोयल कुहक उठी । फुलों की खुशबू महक रही थी। मन्द-मन्द समीर झूम रहा था। निसर्ग की शोभा ने दोनों का स्वागत किया।
एक वन-निकुंज में, सुन्दर लतामंडप तले जाकर दोनों बैठ गये। कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति की तरफ देखा । प्रियंगुमति ने कामगजेन्द्र की निगाहों को समझ लिया।
कामगजेन्द्र के भावालोक में प्रियंगुमति के अलावा दूसरा कोई दृश्य नहीं था। मात्र प्रियंगुमति के रूपलावण्य की ही रसिकता नहीं है। स्त्री का रूप
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दो देह एक प्राण
३१ लावण्य हमेशा पुरुष को आकर्षित नहीं करता। स्त्री का स्थायी आकर्षण उसमें रहे हुए उच्च कोटि के गुण बनते हैं। प्रियंगुमति में रहे हुए ऐसे गुणों ने कामगजेन्द्र को प्रियंगुमति की ओर सतत आकर्षित रखा है। प्रियंगुमति मात्र पत्नी नहीं है। कभी मित्र तो कभी दासी भी बन जाती है। विरक्त हृदय भी ऐसे व्यक्तित्व पर अनुरागी बन जाता है। विरक्त में भी गुणराग तो छिपा हुआ होता ही है। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति को मात्र अपने भोग-विलास के साधनरूप में नहीं देखता है और भी बहुत सी अद्भुत बातें तथा अद्वितीय गुण उसने पाये है इस सन्नारी में। ___ 'प्रियंग, तेरी आत्मा सच ही महान् है।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति पर अपनी
आँखें स्थापित की। प्रियंगुमति की पलकें ढल गई। ___ 'यह मैं तेरी प्रशंसा करने के लिये या तुझे प्रसन्न करने के लिए नहीं कहता। मेरे हृदय में जो भाव पैदा होते हैं, मुझे जो लगता है, वही कहता हूँ। कभी-कभी तो तेरी महानता के आगे मैं अपने आपको बौना पाता हूँ।' _ 'नहीं ऐसा मत कहिए, आप महान् हैं इसलिए आपकी दृष्टि में महानता है और मैं आपको महान लगती हूँ।
'तू ऐसा ही कहेगी, तू हमेशा विनम्र रही है, फलों के भार से झुकी डालियों की भाँति तू गुणों के भार से झुकी हुई रही है | मैंने कभी तेरे में अभिमान नहीं पाया। सच, मेरा मन तुम पर मुग्ध हो जाता है। मैं चाहता हूँ आज तू मुझसे कुछ माँग ले। तू जो माँगेगी, मैं दूंगा। दिये बिना मुझे चैन नहीं पड़ेगा।' ___ 'आप ही मेरे हो, फिर भला मैं क्या माँगूं? जो आपका है वह सब मेरा ही है ना! आपसे अलग मेरा क्या है?' ___ 'नहीं, फिर भी कुछ तो माँगना ही होगा।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति के हाथों को अपनी हथेलियों में बाँध लिया ।
प्रियंगुमति को एक विचार आ गया। उसके चेहरे पर प्रसन्नता दमक उठी। उसने कहा- "अच्छा, एक वचन माँगती हूँ।' 'अवश्य, बोल।
'आप जो कुछ नया देखो, नयी बातें सोचों या नया कार्य करो तो मुझे उससे अनजान नहीं रखना। हाँ, सपनों से भी अनजान मत रखना।'
'तथास्तु! तेरा वचन मंजूर!
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दो देह एक प्राण
३२
प्रियंगुमति ने कैसा वचन माँगा ? पति के विचारों से भी वह परिचित रहना चाहती थी। पति पर उसे तनिक भी संदेह न था, स्वयं की असुरक्षा का कोई भय नहीं था । वह चाहती थी स्वयं पति की छाया बनकर रहे। कामगजेन्द्र की इच्छानुसार वह अपना जीवन बना सके । कभी उसे योग्य सलाह भी दे सके । उसे उपयोगी भी बन सके । कामगजेन्द्र को पत्नी पर कितना विश्वास था कि अपने मन के विचार और सपने भी अपनी पत्नी को बता देने का वचन दे डाला। उसे प्रियंगु पर पूर्ण श्रद्धा थी कि मेरी किसी भी बात का वह दुरुपयोग नहीं करेगी।
पति-पत्नी के बीच का ऐसा गहरा प्रेम, इतनी उत्कृष्ट श्रद्धा तो शायद कहीं देखने को भी नहीं मिलेगी । मात्र शरीर के रूप-रंग में और वैभव - सम्पत्ति की झिलमिलाहट में चकाचौन्ध बने युवावर्ग के लिये तो कल्पना के बाहर की है ये सारी बातें। पर ये कोई मात्र बातें नहीं हैं, शुष्क कल्पना और आदर्शों की उड़ाने नहीं हैं। मानव मन प्रेम की ऐसी ऊँची अवस्था को पा सकता है, ऐसी गहरी श्रद्धा को प्रकट कर सकता है, पर चाहिए निर्मल हृदय और गहरी समझ वाला मन ।
‘नाथ! अब नगर में चलें, भोजन का समय हो गया है।'
'हाँ, सूर्य अस्ताचल की ओर भागा जा रहा है।' पश्चिम की ओर आँखें फेरकर कामगजेन्द्र ने कहा और दोनों लतामण्डप में से निकल कर उद्यान के बाहर रथ में जा बैठे।
अश्व नगर की तरफ दौड़ने लगे। महल की अट्टालिका में खड़ी जिनमति ने रथ को आते देखा । वह शीघ्र नीचे आई । महल के भीतर दरवाजे पर खड़ी हो गयी। रथ में से उतरकर कामगजेन्द्र और प्रियंगुमति ने महल में प्रवेश किया। भीतरी द्वार पर खड़ी जिनमति ने दोनों का मुस्कराहट के साथ स्वागत किया। जिनमति का हाथ पकड़कर प्रियंगुमति महल के अन्दर चली गयी । आवश्यक कार्यों से निवृत होकर तीनों भोजन के लिए भोजनगृह में पहुँचे ।
प्रतिदिन क्रमानुसार दोनों रानियों ने पास बैठकर कामगजेन्द्र को भोजन करवाया। जिनमति के बनाये भोजन में इतनी मीठास होती थी कि कामगजेन्द्र प्रसन्न हो उठता। बाद में दोनों रानियाँ साथ बैठकर भोजन करती । भोजन करते-करते प्रियंगुमति ने जिनमति से पूछा - " जिनु, तू भोजन बनाते हुए ऊब नहीं जाती? तुझे थकान नहीं लगती ? हमारे साथ उद्यान में आई होती तो?'
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दो देह एक प्राण
३३
'थकान? भोजन बनाने में मुझे कितना आनन्द आता है, यह मैं कैसे बताऊँ? भला, अपने स्वामी के लिए भोजन बनाने में थकान कैसी ? पर भोजन तो अच्छा बना है न? उन्हें पसन्द आया न?'
'तू खुद ही उन्हें पसन्द आ गयी फिर तेरा भोजन तो कितना पसंद आता होगा! वे तो तेरे भोजन की प्रसंशा करते नहीं अघाते ।'
जिनमति शरमा गयी... उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गयी। जब से राजमहल में जिनमति आयी है, तब से सभी सूर्यास्त से पहले भोजन कर लेते हैं। महल के दास-दासी भी रात्रि भोजन नहीं करते। मांसाहार तो कदापि नहीं। जमीकन्द भी महल में आना बन्द हो गया। जिनमति की इच्छा से कामगजेन्द्र ने महल के ही भुमिभाग में एक सुन्दर जिनालय का निर्माण करवा दिया। जिनमति कामगजेन्द्र को अपने साथ ही परमात्मपूजा के लिए ले जाती है। प्रियंगुमति भी साथ में होती है। सभी भावविभोर होकर परमात्म-पूजन और स्तवन में लीन होते हैं। शाम को आरती भी सब मिलकर उतारते हैं। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति एवं जिनमति के साथ इतना सुखोपभोग करता है कि जितना शायद इन्द्र भी रंभा एवं उर्वशी के साथ नहीं करता होगा !
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योगी या भोगी
३४
|| ६. योगी या भोगी |
आकाश निरभ्र था। सूरज अस्ताचल की ओट मे छिप गया था। क्षितिज पर संध्या के रंग अठखेलियाँ कर रहे थे। पंछी अपने-अपने नीड़ की ओर लौट रहे थे। वातावरण में एक मौन स्निग्धता टपक रही थी। पश्चिम के वातायन में से कामगजेन्द्र की आँखें क्षितिज की सतह पर रंगबिरंगी चूनर ओढ़े शरमाती दुल्हन सी संध्या पर जाकर ठहरी थी। एक सुन्दर भद्रासन पर बैठा हुआ कामगजेन्द्र धरा-गगन के मिलन-स्थल पर टक-टकी बाँधे मुग्ध सा हो गया था। उसके चेहरे पर गम्भीरता छायी थी। उसकी झील सी गहरी आँखों में गीलापन रिस रहा था। उसकी मुखमुद्रा शांत-प्रशांत और सुहावनी लग रही थी। ___ समीप के भद्रासन पर जिनमति न जाने कब से आकर बैठ गयी, कामगजेन्द्र को इसका आभास भी न रहा। जिनमति ने दूर ही से कामगजेन्द्र को संध्या की ओर टकटकी बाँधे देखा था, कुछ गहरे विचारों में डूबा हुआ देखा था, उसने जरा भी खलल न की। उसकी आँखें भी संध्या के बदलते रंगों में जा पहुँची।
कुछ क्षणें बीत गई। संध्या के खिले-खिले रंग रात की काली चादर की ओट में छिप गये। संध्या बीत गई, रात का अन्धेरा धीमे-धीमे अपनी काली चादर फैलाने लगा | कामगजेन्द्र ने गहरी सांस ली और आँखें मूंद ली। आँखें खोलकर नजर की तो पास में ही जिनमति बैठी हुई थी। उसकी आँखें जिनमति में खिली-खिली संध्या का रूप निरखने लगा। वह देखता ही रहा। एक शब्द बोले बिना... अपलक निगाहों में देखता रहा। जिनमति झेंपने लगी। उसने अपनी पलकें गिरा दी पर तुरन्त ही कामगजेन्द्र के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में बाँधती हुई पूछ बैठी : 'आप कुशल तो है न?'
'कुशलता? इस संसार में कैसी कुशलता, जिनु? आधि, व्याधि और उपाधि से भरे पूरे संसार में हम कुशल हो भी कैसे सकते हैं?' 'मेरे देवता, आपकी बात सही है पर मैं तो...' 'मेरी वर्तमान कुशलता पूछ रही हो ना?'
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३५
योगी या भोगी 'जी हाँ।'
'जिनु, वर्तमान हमेशा एक ही समय का होता है। एक समय की कुशलता में क्या खुश होने का? अनन्त भूतकाल का विचार कर, अनन्त भविष्य को देख।
'आज अभी ये सारे विचार करने के है?' जिनमति के चेहरे पर स्मित की दामिनी दमक उठी, पर जब उसने पाया कि कामगजेन्द्र की गम्भीरता अखण्ड है, तो उसने भी गंभीरता धारण कर ली। __'विचार करने से नहीं होते हैं जिनु, वे तो चले आते हैं दरिये में अचानक उठती लहरों जैसे, कभी कुछ देखकर, कुछ सुनकर, कुछ पढ़कर, सोचकर और कभी-कभी स्मृतियों द्वारा सहेज कर रखे संकलन से। कभी अच्छे तो कभी बुरे।' कामगजेन्द्र की आँखें जिनमति से उठकर वातायन के बाहर जा पहुँची। बाहर घना अन्धकार छाया था। उसने आँखें मूंद ली। ___ 'मैंने आज संध्या के दोनों रूप देखे। एक खिला हुआ और एक मुरझाया हुआ। एक था सौंदर्य की रंगबिरंगी साड़ियों में महकता हुआ तो दूसरा था रात की काली मखमली चादर में लिपटा हुआ। जिनु, क्या यह तन, यौवन, यह जीवन ऐसा ही नहीं है? खिली-खिली संध्या का सौन्दर्य कितना लुभावना था? पर उतना ही क्षणिक! इस जीवन का सौन्दर्य भी तो ऐसा ही अल्पकालीन
है ना!'
___ जिनमति ने सम्मतिसूचक सिर हिलाया । कामगजेन्द्र जिनमति की आँखों में झाँकने लगा। जिनमति आज पहली ही बार कामगजेन्द्र के आँतर-जीवन की गहराइयों में प्रवेश कर रही थी। उसे पल भर लगा कि क्या यह मेरे पति कामगजेन्द्र बोल रहे हैं या फिर कोई योगी बोल रहा है?'
कामगजेन्द्र ने अपना आसन थोड़ा सा खिसकाया। जिनमति ने भी अपना आसन कामगजेन्द्र के सन्निकट खिसकाया।
'जिन! आज मैने संध्या की अठखेलियों में यौवन को देखा। जीवन को देखा | मुझे तो क्षणिक लगे ये सारे रंग, एक दिन यह सब फीका पड़ जायेगा। यह सब माटी के मोल बिक जायेगा और जीवन की क्षितिज पर अँधेरे ही अँधेरे आ घिरेंगे। 'तीर्थंकरों ने भी ऐसा ही कहा हैं प्रिय!' जिनमति बोल उठी। 'आज मेरी आत्मसंवेदना बोल रही है। जिनु, पूर्णपुरुषों की वाणी का
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3६
योगी या भोगी अनुभव धन्य घड़ियों में होता है।'
‘पर वह अनुभव, वह आत्मसंवेदन होता है, अल्पकालीन ही!' 'अनुभव अल्पकालीन हो सकता है जिनु, पर उसका आस्वाद क्षणिक नहीं होता । अनुभव चला जाय पर उसकी स्मृति नहीं जाती। वह आस्वाद पुनः पुनः आत्मभाव की ओर ले जाता है।'
'ठीक, वैसे ही, पाँचों इन्द्रियों के विषयसुखों का अनुभव भी तो क्षणिक ही होता है ना? परन्तु उसका आस्वाद रह जाता है | वह आस्वाद ही आत्मा को पुनः पुनः विषयभोग में धकेल देता है।' जिनमति का स्वर माधुर्य से छलक उठा।
'यही तो संघर्ष है जिनु, कभी वह अनुभव जीत जाता है कभी यह अनुभव अपनी चादर तान देता है।' ___‘पर अधिकांश तो वैषयिक सुखों का अनुभव ही जीवात्मा को ज्यादा ललचाता है न? ___ 'हाँ बिल्कुल सही है। आत्मानुभव कभी-कभी हो आता है। पर वो कभीकभी होने वाला आत्मानुभव जीवात्मा को विषयोपभोग में निमग्न नहीं बनने देता। दरिये में डुबकी लगाना और बात है जिनु, और डूब जाना दूसरी बात है।' कामगजेन्द्र ने जिनमति को अपना दृष्टिकोण समझाया। ___ 'मुझे कभी वैषयिक सुख प्यारे लगते हैं, बड़े अच्छे लगते हैं पर कभी कुछ क्षणों में तो उनका आकर्षण बिल्कुल ही नहीं रहता। कैसा भी वैषयिक सुख मेरी अंतश्चेतना को नहीं खींच पाता।'
'मोहनीय कर्म की तीव्रता और मंदता राग-विराग में तीव्रता-मंदता लाती है। जिनमति ने कर्मसिद्धान्तों का अध्ययन गहराई से किया था, पर वह अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने के लिए नहीं परन्तु कामगजेन्द्र की बात को हेतु द्वारा सिद्ध करने के लिए बोली।
'जिनु, आज भी मैंने मेरी स्मृतियों की सीप में अनुभव का मोती सहेजकर रखा है। वह रात! प्रियंगु उसके मायके गई थी। मुझे एकांत मिला था... आत्म-स्वरूप के चिंतन में ऐसी प्रसन्नता मिली थी कि बस...।' 'सारी रात जगे होंगे आप! 'हाँ, नींद आयी ही नहीं थी पर वह सचमुच आज भी मुझे प्रसन्नता दे जाता
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योगी या भोगी है। ऐसा अनुभव था, अमृत का अनुभव ।'
'फिर आपने वह अनुभव दीदी को सुनाया था?' जिनमति हँस पड़ी। कामगजेन्द्र के होठों पर भी हास्य फैल गया। 'हाँ, कहा था। उसे कहने में एक और रात का जागरण हो गया! 'महादेवी को आपके अनुभव की बातें पसन्द आयी?' 'उसे मेरी सारी बातें पसन्द आती है। राग की बात करूँ तो भी और विराग की बात करूँ तो भी।' __'चूंकि आप ही उन्हें पसन्द आ गये हो ना! जिनमति की खिलखिलाहट ने वातावरण को रस दिया। उसके हास्य ने कामगजेन्द्र को सूक्ष्म भूमिका के चिंतन में से स्थूल भूमिका पर लाना चाहा पर कामगजेन्द्र ने फिर चिंतन की गहरी झील में डुबकी लगा ली। ___'पसन्द आना यह राग है और पसन्द न आना यह द्वेष है। राग और द्वेष में आत्मा झूल रही है, लगता है ये राग और द्वेष ही सारे दुःखों की जड़ है।'
'परन्तु प्रिय, स्त्री के प्रति पति का राग तो सुख का मूल है ना?'
'कौन सा सुख जिनु? इन्द्रियों के इष्ट विषयों की प्राप्ति के सुख ही ना? वे सुख कहाँ हैं? वे तो मात्र सुखाभास हैं | जो दुःखों को संग लाये उसे सुख कैसे कहना? विषयोपभोग का परिणाम तो आखिर दुर्गति के दीर्घकालीन दुःख ही है ना?
‘पर इतना जानने पर भी राग तो हो ही जाता है।'
'हो सकता है, पर इतनी जागृति रहनी चाहिए- "मैं राग कर रहा हूँ, यह मेरी आत्मा के लिए अहितकर है, यह बात याद रहनी चाहिए।'
"ऐसा कहाँ याद रहता है? इष्ट विषयों में मन दौड़ ही जाता है।' ___ 'कहाँ तक दौड़ेगा? कितना दौड़ेगा? कभी तो थकेगा ही न? जब वह खड़ा रहेगा उस समय तो आत्मा याद आयेगी न?
'हाँ तब तो आयेगी! जिनमति का हृदय आनन्द से भर गया। उसे लगा कामगजेन्द्र बाहर से चाहे भोगी हो पर भीतर से तो उसकी अन्तरात्मा योगी है। उसका हृदय वैरागी है। सन्तहृदय का कंत उसे बड़ा प्यारा लगा। ___ कामगजेन्द्र मौन के महासागर में गोते लगाने लगा। नयन मूंदकर वो किसी अज्ञात, अगोचर प्रदेश की यात्रा पर पहुँच गया। समीप में रखे हुए
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योगी या भोगी रत्नदीपक का प्रकाश उसकी सौम्य सरल मुखाकृति पर पड़ रहा था। उसका गौरवर्ण मुख दमक रहा था। जिनमति कामगजेन्द्र को देखती ही रह गयी थी। पल बीतते चले...पर दोनों में से कोई अधीर नहीं बन रहा था। जिनमति तो कामगजेन्द्र के ऐसे भव्य आंतर-व्यक्तित्व का स्पर्श पाकर नाच उठी थी, उसका रोयाँ-रोयाँ प्रसन्नता से पुलक रहा था। उसका लालन-पालन, उसके संस्कार, उसकी शिक्षा ऐसे ही वातावरण के बीच हुई थी। उसके पितृगृह में अर्हत् धर्म का वातावरण था। उसकी शिक्षा और संस्कार आत्मा, महात्मा और परमात्मा के त्रिकोण के आसपास रचे हुए थे। उसका समूचा व्यक्तित्व अर्हकेन्द्रित था। उसकी अन्तरेच्छा उसके प्राणों की अभीप्सा तो आत्मा के ऊर्चीकरण की ही थी। समान अभिरूचि वाले व्यक्तित्व जब मिलते हैं, तो उनके व्यक्तित्व के साथ वातावरण भी प्रेम के परानुभवों से भर जाता है। जिनमति को अब तक कल्पना भी नहीं थी कि रागरंग और भोगविलास में झूमता हुआ कामगजेन्द्र स्थूल-बाह्य दुनिया से दूर सूक्ष्म, अगोचर, अगम प्रदेश में भी जा पहुंचता है। वह स्वयं की ओर पूरा जाग्रत है। 'जिनु! 'नाथ! 'आत्मा के शुद्ध स्वरूप के ध्यान में डूब गया था मैं । तू अकेले-अकेले चुप्पी साधे बैठे रहने से ऊब तो नहीं गई न?'
आपके सहवास में, आपकी छाया में, इस तरह घंटों तक मौन बैठे रहने में भी अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है, मेरे परमप्रिय! कितनी नीरवता है! कितनी अद्भुत प्रसन्नता के फूल खिले हैं! ___ 'आत्मा के शुद्ध स्वरूप के ध्यान में ऐसी अवर्णनीय प्रसन्नता की अनुभूति हुई कि बस मैं कह नहीं सकता।'
'चाहे वर्णन न करो पर मुझे भी ऐसे ध्यान में साथ ले चलिए ना! 'सच?' 'हाँ, सच कह रही हूँ। वीतराग परमात्मा की स्फटिकमय मूर्ति के सामने मैं कभी-कभी भावविभोर बनकर परमात्मा के ध्यान में खो जाती थी। जब मैं छोटी थी, मुझे याद है- कभी-कभी मेरी बन्द पलकों के किनारे आँसू छलक जाते... मेरे रोएँ-रोएँ में सिहरन पैदा हो जाती। मेरा हृदय गद्गद हो जाता था।'
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योगी या भोगी
'अपन कभी सम्मेतशिखर जायेंगे, तुझे यात्रा पसन्द है ना?' 'बहुत! परमात्मभक्ति तो मेरे जीवन का परम धन है!
जिनमति की आँखें छलक आयी। उसने अपने आँचल से आँसू पोंछे। उसका हृदय प्यार से छलक रहा था।
'नाथ, आपको पाकर मैं धन्य बन गई हूँ...मुझे लगता है मैं कितनी सुखी हूँ! मुझे कोई आंतर-बाह्य दुःख नहीं है।' __ कामगजेन्द्र ने जिनमति के सामने देखा। फिर वातायन से बाहर की ओर नजर डाली | नील गगन की गोद में टिमटिमाते तारों के बीच चाँदनी बरसाता चाँद । अत्यंत आल्हादक वातावरण छाया हुआ था। 'समय काफी बीत गया है।' 'चाहे पूरा जीवन ही ऐसे बीत जाये।' 'वह इस संसार में शक्य नहीं है जिनु, ऐसा एक सा...अनंतकालीन एक सा आनन्दपूर्ण जीवन तो है उस सिद्धशिला पर | शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा का स्वतंत्र जीवन | जन्म और मृत्यु से | मुक्त अक्षय और अनन्त जीवन। निर्द्वद्व और निरावध जीवन।'
'नाथ, आप तो उस सिद्धशिला पर जा बसेंगे थोड़े ही भवों में! पर, क्या आप मुझे इस संसार में ऐसे ही छोड़कर चले जायेंगे?' जिनमति कामगजेन्द्र के ज्यादा निकट आ गयी और कामगजेन्द्र की आँखों में झाँकती हुई बोली । ___ 'कौन किसको ले जायेगा जिनु? किसको मालूम है वे अज्ञात काल की रेखाएँ?
'हाँ, वहाँ अपनी आत्मज्योति परस्पर मिल जायेंगी। अपना वह मिलन शाश्वत होगा । आत्मा से आत्मा का मिलन ।' बुझते दिये की लौ को तेज करने के लिए कल्याणी ने खण्ड में प्रवेश किया।
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उज्जयिनी की राजकुमारी
४०
। ७. उज्जयिनी की राजकुमारी )
दिन पंखेरू बन कर उड़ते जा रहे हैं। समय की शून्यता अतीत की आग में स्वाहा बनती जाती है। कामगजेन्द्र जिनमति, प्रियंगुमति और राजकुमार दिशागजेन्द्र (प्रियंगुमति का पुत्र) के स्नेहपूर्ण सहवास में अपनी जिन्दगी का सफर तय कर रहा है।
अरुणाभ नगर में पिछले दिनों से एक विदेशी चित्रकार चर्चा का विषय बन चुका है। एक से एक सुन्दर चित्रों की प्रदर्शनी में हजारों नगरजनों ने उसको साधुवाद दिया है। वह चित्रकार अपने साथ एक सुन्दर चित्र लेकर आया है। राजसभा में वह चित्र लेकर आता है। कामगजेन्द्र उसका स्वागत करता है। चित्रकार अपना चित्र कामगजेन्द्र के हाथों में देता है।
कामगजेन्द्र की आँखें उस चित्र पर जा चिपकती है। वह उस चित्र को देखता ही रहता है, टुकुरटुकुर | वो चित्र है एक राजकुमारी का, पर लगता है ऐसा कि स्वर्ग की अप्सरा की वह अनुकृति हो! कामगजेन्द्र चित्रकार की
ओर देखता हुआ बोल उठता है : ___चित्रकार, किसी ज्ञानीपुरुष ने बिलकुल सही कहा है कि 'राजा, चित्रकार और कवि ये तीनों मरकर नरक में ही जाते हैं।'
'महाराज कुमार यह कैसे हो सकता है?' चित्रकार ने साश्चर्य अपनी जिज्ञासा व्यक्त की!
'चूंकि पृथ्वी पर जिसका अस्तित्व ही नहीं होता है वे सब राजा, चित्रकार और कविजन करते हैं! निरा झूठ! और झूठ का फल तो नरक ही होता है।'
'राजकुमार, क्षमा कीजियेगा। राजा के लिए तो आपकी बात मानी भी जाय, क्योंकि राजनीति तो छल-कपट से भरी होती है। हिंसा, क्रूरता और छलना तो राजनीति के अभिन्न अंग से बन जाते हैं, कभी-कभी! इसलिए राजा नरक में जाय, यह तो मान भी लिया, पर कवि और चित्रकार के लिए तो आपकी बात जरा अनुपयुक्त सी प्रतीत होती है। आखिर वे तो आँखों देखा, कानों सुना और अनुभूत सत्य को ही अभिव्यक्त करते हैं। हाँ, उनमें कल्पनाओं के रंग वे जरूर भरते हैं, पर वास्तविकता के सौन्दर्य को जरा भी विकृत किये बिना।'
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४१
उज्जयिनी की राजकुमारी
'यह जिसका चित्र है, क्या तुमने उस व्यक्ति को आँखों से देखा है? ऐसा अछूता सौन्दर्य क्या इस धरती पर है?' कामगजेन्द्र ने चित्रकार को तीक्ष्ण निगाहों से देखते हुए कहा। __'जी राजकुमार, मैंने यह सौन्दर्य अपनी आँखों से देखा है, जैसा देखा है वैसा ही चित्रित किया है। हो सकता है, मेरी तुलिका ने इस सौन्दर्य का स्वस्थ आलेखन न भी किया हों, क्योंकि आखिर नकल तो नकल ही होगी।'
'कहाँ देखा? यह किसका चित्र है?' चित्र पर आँखें गड़ाये कामगजेन्द्र की आवाज में कोमल विह्यलता आ बसी ।
'उज्जयिनी के सम्राट अंवति की राजकुमारी का यह चित्र है। मैंने राजकुमारी को देखा और वहीं पर उसका चित्र बिना किसी अतिशयोक्ति के बनाया।'
कामगजेन्द्र को चित्रकार की बातों पर सहज विश्वास हो गया। वह अपलक नेत्रों से चित्र को देखता रहा। उसकी आँखें हटती ही नहीं वहाँ से । सौन्दर्य और लावण्य से भरेपूरे उस चित्र ने कामगजेन्द्र को अवश बना दिया। चित्र को अपने पास रखकर, चित्रकार को अतिथिगृह में स्नान-भोजनादि से निवृत होने के लिए भेज दिया। चित्र को लेकर कामगजेन्द्र अपने आवास में आता है | पलंग पर बैठकर उस चित्र के सौन्दर्यपाश में वह अपने आपको बाँध लेता है। उसकी निगाहें टकटकी बाँधे चित्र पर जमी है। उसे ख्याल ही नहीं आता कि प्रियंगुमति बिल्कुल करीब आकर खड़ी हो गयी है। कामगजेन्द्र की तल्लीनता देखकर उसके होठों पर हँसी के गुलाब बिखर पड़े | वह पूछ बैठी : ___ 'नाथ! क्या मैं यह चित्र देख सकती हूँ?' कामगजेन्द्र एक दम सकपका जाता है। वह चित्र को अपने हाथों में छिपाने की कोशिश करता हुआ प्रियंगुमति की ओर देखता है। उसकी आँखों में सन्देह के डोरे खींच आते हैं, पर प्रियंगुमति कामगजेन्द्र के हाथों से चित्र लेकर देखती है और पलंग पर बैठकर बड़े प्यार से पूछती है : 'यह किसका चित्र है?' 'उज्जयिनी की राजकुमारी का ।' 'कितना प्यारा चेहरा है, नहीं?' 'राजकुमारी स्वयं ऐसी ही है, जैसा चित्र है!' 'कितना भोलापन और मासूमियत तैर रही है चेहरे पर ।'
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४२
उज्जयिनी की राजकुमारी 'सच, बड़ा ही सुन्दर रूप है!'
सुनेपन की सरसराहट फिर वातावरण में छा जाती है। दोनों की आँखें चित्र पर स्थिर है। प्रियंगुमति कामगजेन्द्र के चेहरे पर छायी हुई बर्फीली खामोशी की परत दर परत छीलकर उसके अन्तस्तल में पहुँच जाती है। कामगजेन्द्र झेंपता हुआ प्रियंगुमति की आँखों से अपनी बेचैनी को छिपाने का निरर्थक प्रयास करता है। प्रियंगुमति के चेहरे पर स्मित की चाँदनी छिटक रही थी। स्नेहार्द्रता में तैरता उसका बदन, निर्दोष मृगछौने से उसकी आँखें, कामगजेन्द्र की आँखें अलसा जाती है। 'देवी! 'नाथ!' 'यह राजकुमारी तुम्हें अच्छी लगती है?' 'बहुत, कितनी प्यारी है यह! 'मेरा मन उसको पाने के लिए प्यासा बन गया है।'
कामगजेन्द्र के शब्दों में आखिर उसकी मनोकामना की हल्की सी छाया आ बैठी।
राजकुमारी को पाने का मुझे एक रास्ता सूझता है। प्रियंगुमति ने कहा : 'क्या? जल्दी बताओ।' 'जिसने यह चित्र बनाया, उसी चित्रकार के पास आपका एक चित्र बनाकर अवंतिपति के पास भेजा जाय। राजकुमारी आपका चित्र देखकर अवश्यमेव आपका ही वरण करने का निश्चय करेगी।' ___ 'योजना अच्छी है। चित्रकार को मैंने रोक रखा है। उसे बुलवाकर मेरा चित्र बनाने के लिए कह देता हूँ।' कामगजेन्द्र का रोयाँ-रोयाँ खिल उठा। वह प्रियंगुमति पर खुश हो गया। ___ कैसी राग दशा है कामगजेन्द्र की!! रंभा और उर्वशी सी दो रानियों के होते हुए भी वह चित्र की राजकुमारी पर मुग्ध बन गया है।
कितना अदभुत समर्पण है प्रियंगुमति का!! कोई ईर्ष्या या डाह नहीं, कोई स्वार्थ की चाहना नहीं! अपने प्रियतम की प्रसन्नता में ही अपने आनन्द को पाने वाली यह नारी थी!
कामगजेन्द्र राजकुमारी का चित्र लेकर चला गया। प्रियंगुमति वहीं बैठी
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उज्जयिनी की राजकुमारी
४३
रही। वह कामगजेन्द्र के बहुआयामी व्यक्तित्व की गहराइयों को नापने लगी । एक ओर राग-भरपूर व्यक्तित्व तो दूसरी ओर विरागदशा के लिए अजीब सी छटपटाहट! बाहर से आसक्त और भोगी कामगजेन्द्र भीतर से अनासक्त और योगी पुरुष था ! दोनों व्यक्तित्व यथार्थ थे। वैराग्य का मुखौटा नहीं था । मन और इन्द्रियाँ जब प्रशान्त बनी रहती तब वह विरागता के सोपान चढ़ता जाता, पर जब रागदशा में वह अपने आपको बाँध लेता तो उसी आसक्ति की अगनपिपासा में उसके प्राण बँध जाते ।
जिनमति प्रियंगुमति को खोजती हुई कामगजेन्द्र के आवास में आ पहुँची। प्रियंगुमति को अकेली और विचारों में लीन बनी देखकर वह सहम सी गयी, पर प्रियंगुमति ने उसे देख लिया ।
'जिनु, आ,' जिनमति को पास में बिठाकर प्रियंगु उसकी ओर देखती रही । 'ओह दीदी! आज किस विचार में इतनी गहरी डूब गयी हो ?' प्रियंगु के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में बाँधती हुई जिनमति ने पूछा ।
'राग और विराग के विचारों में ।'
'क्यों? क्या हुआ अचानक ? जिनमति ने तीव्र जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा। प्रियंगुमति के चेहरे पर स्मित के फूल खिल उठे।
'हाँ, कुछ नया-नवीन बने तब ही तो ऐसे विचार आये ना ? इस संसार में कभी भी कुछ हो सकता है!'
'ऐसा क्या हो गया दीदी ? जिनमति की आँखों में पारदर्शी संवेदना सिहर उठी।
प्रियंगुमति ने उसको अपने पास खींच लिया ।
'उज्जयिनी की राजकुमारी का चित्र लेकर एक चित्रकार आया है। अद्भुत है वह चित्र और अद्वितीय रूप-लावण्य से भरीपूरी है वह राजकुमारी ।'
'समझ गयी दीदी ! वह चित्र अपने स्वामी को पसन्द आ गया, यही न?' ‘बिलकुल सच है तेरी कल्पना जिनु ! वह चित्र तो पसन्द आया ही, उन्हें तो राजकुमारी भी पसन्द आ गयी और सच कहूँ? मैंने तो उसे प्राप्त करने का उपाय भी उन्हें बतला दिया । '
'दीदी ! क्या कहती हो ? जिनमति की आँखें फटी-फटी सी रह गई ! अनहोनी की प्रतिक्षा में उसकी सांसें थम सी गई।
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उज्जयिनी की राजकुमारी
४४
'जिनु, तुझे तो मालूम है ना! उन्हें मुझ पर कितना एतबार है ? वे अपने मन की कोई भी बात मुझ से छुपाते नहीं है । जो उनकी इच्छा वही मेरी इच्छा ! उनकी प्रसन्नता, उनकी खुशी से बढ़कर अपने लिये और क्या है जिनु ? उनके प्राण जैसे पुलकित बने, उनकी आत्मा को जैसे प्रसन्नता मिले, उसमें ही अपना सब कुछ है! मैंने उनसे केवल प्यार किया है जिनु ! और प्रेम हमेशा समर्पण करता है। आदान की अभ्यर्थना वहाँ होती ही नहीं । मेरी और कोई कामना नहीं है। मैं तो अपने अस्तित्व के अन्तिम अंश तक उन्हें समर्पित हूँ !' प्रियंगुमति अपने अस्तित्व के साथ सौन्दर्यमुग्ध कल्पनालोक में बही जा रही थी ।
'दीदी, सच तुम्हारा प्यार अद्भुत है।' उसके पलकों के किनारे चूने लगे। उसका दिल भर आया । वो ज्यादा कुछ भी न बोल सकी! दोनों रानियाँ कामगजेन्द्र के आवास में से निकल कर भोजनगृह में पहुँच गयी।
इधर कामगजेन्द्र अतिथिगृह में पहुँच गया था । चित्रकार स्नान - भोजन वगैरह से निवृत होकर अलसा रहा था कि युवराज ने आकर उसे उठाया ।
'देखो भैया, तुमने जैसा इस राजकुमारी का चित्र बनाया है, वैसा ही मेरा चित्र बना दो, चित्र लेकर तुम्हें उज्जयिनी जाना होगा और वह चित्र राजकुमारी को दिखलाना होगा, समझे?'
'अवश्य कुमार, आपका चित्र मैं यहीं बनाकर आपको बता दूँगा । आपको पसन्द आने पर ही मैं उसे लेकर उज्जयिनी जाऊँगा, परन्तु...'
'परन्तु क्या...? मैं तुम्हारी अच्छी कद्रदानी करूँगा, चिन्ता मत करो।' 'युवराज, ऐसी कोई बात नहीं है, मैं तो और ही बात कहना चाहता हूँ...' 'क्या ? कह दो...'
‘उज्जयिनी की राजकुमारी पुरुषद्वेषिणी है। वह किसी पुरुष को देखना भी नहीं चाहती है। इसलिए...'
‘उसकी चिन्ता मत करो चित्रकार । तुम मेरा चित्र उसे बताना तो सही, उसका सारा द्वेष पानी-पानी हो जायेगा ।' कामगजेन्द्र के शब्दों में अनूठा आत्मविश्वास टपक रहा था।
‘जैसी आपकी आज्ञा । आज ही मैं आपका चित्र बनाना प्रारम्भ कर देता
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उज्जयिनी की राजकुमारी
४५ चित्रकार ने कामगजेन्द्र का नयनरम्य चित्र बना दिया । कामगजेन्द्र ने उसे खूब पसंद किया। उसने चित्रकार को मूल्यवान स्वर्णहार देकर सन्तुष्ट किया... और उज्जयिनी की ओर भेज दिया।
चित्रकार ने उज्जयिनी जाकर राजा अवंति को कामगजेन्द्र का चित्र बतलाया । राजा मन्त्रमुग्ध सा उसे निहारता ही रहा। चित्रकार ने कामगजेन्द्र का परिचय भी दिया। चित्र अन्तःपुर में भेजा। रानी ने राजकुमारी को चित्र बतलाया। राजकुमारी तो चित्र पर आँखें रखते ही मुग्ध हो गयी। उसकी
आँखें चित्र पर जम गयी। उसका रोम-रोम थिरक उठा। उसने मन ही मन निर्णय किया : 'मेरा जीवनसाथी तो इसे ही बनाऊँगी।' मानों जनम-जनम की प्रीत के फूल खिल उठे । अनजान अजनबी में अपनत्व की आस्था जाग उठी। अपनी मनोकामना वह रानी से न छिपा सकी। रानी ने राजा को सहमति दे दी। राजा ने मंत्री को बुलवाकर सूचना दी कि 'तुम अरुणाभनगर जाओ और राजा कामगजेन्द्र से प्रार्थना करो कि वे राजकुमारी के साथ पाणिग्रहण करने के लिए उज्जयिनी पधारें!
मंत्री अपने साथियों के साथ चल पड़े। कुछ ही दिनों में अरुणाभ की सीमा उन्होंने छू ली। कामगजेन्द्र को उन्होंने अवंतीराजा का संदेश देकर उज्जयिनी पधारने का सस्नेह निमंत्रण दिया।
कामगजेन्द्र की खुशी का पार नहीं रहा। उसने अपनी दोनों रानियों को सारी बातें कही। प्रियंगुमति ने अल्प दिनों में ही उज्जयिनि की ओर प्रयाण करने की तैयारियाँ कर ली। मंगल मुहूर्त में अपनी पूरी तैयारी करके कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति के साथ उज्जयिनी की ओर प्रयाण किया । ___ कामगजेन्द्र की कामनाएँ मूर्त बनने लगी थी। इसकी कल्पना उसें ही नहीं बल्कि समूचे परिवार को खुशहाली बाँटती थी। पर किस्मत की कालीन पर कुछ और ही रंग बिखरे थे, जो कि कामगजेन्द्र से अनजान थे। कामगजेन्द्र को कैसे पता लगे कि वह निकला है कहाँ जाने के लिये और पहँचेगा कहाँ पर! उसका प्रारम्भ उसे किसी अज्ञात की ओर प्रेरित कर रहा है। इसकी कल्पना कामगजेन्द्र को नहीं थी।
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बिन्दुमती
। ८. बिन्दुमती
अलकापुरी के उद्यान से एक सुहावने बगीचे में कामगजेन्द्र ने अपना पड़ाव डाला है। चारोंतरफ सैनिकों के तम्बू लग चुके हैं। बीचोबीच कामगजेन्द्र के लिए एक सुन्दर आवास खड़ा किया गया है।
निशा की नीरवता छायी है। गगन के नीलपट पर रंगबिरंगे फूलों सी तारों की चादर बिछी है। सैनिकों के वार्तालाप, हास्य-विनोद और हँसी-मजाक की आवाजों के अलावा शान्ति बनी है। कामगजेन्द्र प्रियंगुमति के साथ वार्ताविनोद करते हुए निद्राधीन हो जाता है।
मध्यरात्रि का समय था, पड़ाव के चारों ओर सैनिकों के दस्ते बराबर गश्त लगा रहे थे।
कामगजेन्द्र को लगता है किन्हीं कोमल हथेलियों का स्पर्श उसे जगा रहा है। उसकी आँखें खुल जाती है। वह ठिठक जाता है। उसके सामने दो सौन्दर्यवती युवतियाँ खड़ी थी।
बेनमून संगमरमर में तराशा हुआ रूप। लावण्य के लास्य से भरा पूरा बदन । शरीर का एक-एक अंग सौष्ठवयुक्त और गदराया हुआ । सुन्दर मूल्यवान वस्त्रों में सजा शरीर और उस पर बहुमूल्य अलंकार | चेहरे पर चाँदी सा चमकता हास्य और आँखों में प्यार की नमी। कामगजेन्द्र को लगा कि 'क्या वह वास्तिविक दृश्य देखता है या स्वप्नलोक में है?' उसने अपनी आँखों को हथेलियों से मसला... फटी-फटी आँखों से वह उन दोनों युवतियों को देखता ही रहा। 'तुम दोनों कौन हो और यहाँ किसलिये आयी हो?' 'कुमार, हम विद्याधर कुमारिकाएँ हैं और एक महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपके पास आयी हूँ।' 'ऐसा क्या कार्य है जो आधी रात गये तुम्हें यहाँ आना पड़ा?' 'हमें पहले वचन दें कि आप हमारी आज्ञा पूरी करेंगे।' 'कुमारिकाओं! हमारे दर पर आशा लेकर आने वाले किसी को हम निराश नहीं करते, यह तो हमारा कुलाचार है।'
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बिन्दुमती
४७
'बड़ी खुशी की बात है कुमार, तो अब हमारी बात आप ध्यान से सुनिये ।' "प्रियंगुमति गाढ़ निद्रा में थी । कामगजेन्द्र ने उसकी ओर देखा और आगन्तुक सुन्दरियों को इशारे से सामने पड़े हुए भद्रासनों पर बैठने को कहा । दोनों सुन्दरियों ने आसन ग्रहण किया। दोनों में से एक ने बात प्रारम्भ की। '
यहाँ से उत्तर दिशा में 'वैताढ्य' नाम का पर्वत है। उसके दो विभाग हैं। उत्तर श्रेणी और दक्षिण श्रेणी । उत्तर श्रेणी में सुन्दरानन्द मन्दिर नाम का नगर है। वहाँ के राजा का नाम है पृथ्वीसुन्दर और रानी का नाम है मेखला। उनकी एक अति सुन्दर कन्या है 'बिन्दुमति' । हम दोनों उस बिन्दुमति की अंतरंग सहेलियाँ हैं ।
बिन्दुमति रूप और गुणों से विद्याधरों की दुनिया में अद्वितीय है । परन्तु दुर्भाग्य से वह पुरुषद्वेषिणी बन गयी है। कोई भी पुरुष को देखना उसे पसन्द भी नहीं। माता-पिता की यह सबसे बड़ी चिन्ता बनी हुई है । एक दिन हम तीनों आकाशमार्ग से दक्षिण श्रेणी के एक उपवन में क्रीड़ा करने के लिए जा पहुँची। हम उपवन में क्रीड़ा कर रहे थे कि हमारे कानों में मधुर मंजुल गीतों के शब्द सुनाई दिये। हम खेलना भूलकर गीत में डूब गये । एक किन्नर और किन्नरी का युगल गीत गा रहा था। उस गीत का भाव कुछ ऐसा था : रूप में कामगजेन्द्र सा और लोक में महान यशस्वी कामगजेन्द्र है, पुण्यहीन मनुष्य तो उसको देख भी नहीं सकता है,' यह सुनकर बिन्दुमति ने मुझे कहा : पवनवेगा, तू जा उस किन्नर युगल के पास और यह कामगजेन्द्र कौन है और कहाँ रहता है? पूछकर आ ।'
मैंने जाकर उनसे पूछा तो वे एकदम झँझला उठे :
'अरी विद्याधर कन्ये, तूने कामगजेन्द्र को देखा तो नहीं पर क्या उसकी प्रशंसा, उसका यश भी नहीं सुना ?' किन्नरी ने मेरा उपहास किया। मैंने गुस्से में आकर उससे पूछा :
‘अरी, अब तू बहुत ज्यादा जानती है मुझे मालूम है, पर टालमटूल किये बिना कामगजेन्द्र के बारे में बतला दे ।' किन्नरी ने किन्नर की तरफ इशारा करके उससे पूछने को कहा। मैंने किन्नर से पूछा। उसने मुझे कहा :
‘कामगजेन्द्र अरुणाभनगर के राजा रणगजेन्द्र का पुत्र है । वह इतना भाग्यशाली है कि उसकी बातों को लेकर कई गीत, कई खंड काव्य और महाकाव्य बना-बना कर गायक लोग गाते हैं । हमारे किन्नरों की दुनिया में तो
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४८
बिन्दुमती कामगजेन्द्र के गीत हर एक की जबान पर है। उसके रूप और गुणों का पार ही नहीं।' _ मैंने जाकर ये सारी बातें बिन्दुमति को कही। हम तीनों एक लतामंडप में बैठे थे। बिन्दुमति मुझे बार-बार पूछने लगी। सच क्या कामगजेन्द्र इतना सुन्दर है? क्या वह इतना गुणवान और यशस्वी है? मैंने कहा : हाँ, होगा ही। चूँकि किन्नरयुगल को झूठी बातें करने से फायदा भी क्या? उन्होंने सच ही कहा होगा।
मेरी बात सुनकर बिन्दुमति गहरे विचार में डूब गई। फिर तो खड़ी होकर बगीचे में अकेली-अकेली घूमने लगी। उसके चेहरे पर विषाद की बदली घिर आयी। आँखों में से आँसू गिरने लगे। एक अजीब सी बेचैनी में छटपटाने लगी।
हमसे हमारी सहेली की मायूसी सही न गयी। हमने उसको प्यार से बुलाया...उसके हाथों में वीणा दी... चूंकि वो वीणा बजाने की बेहद शौकीन है। पर उसने तो वीणा को पटक दी...वह ठंढ़ी आहें भरने लगी। फिर तो वह फफक-फफक कर रो पड़ी। हमारे सारे प्रयत्नों के बावजूद उसकी आँखें बरसती ही चली। उसने हमसे भी मुँह मोड़ लिया। ___ हम उसकी मनः स्थिति को समझ चुकी थी। जिन्दगी में पहली बार वह किसी पुरुष के लिए बेचैन थी। कामगजेन्द्र की कल्पना ने उसके मन को पागल सा बना दिया है। वह स्वयं तो कामगजेन्द्र का नाम नहीं लेती है पर जब भी हमारे होठों पर से कामगजेन्द्र नाम सरकता है तो उसका चेहरा लाल टेसू सा निखर आता है। वह शरमा जाती है। उसने हमसे कहा : सखि, मुझे कामगजेन्द्र का नाम सुनाती रहो, उससे मुझे बहुत शीतलता मिलती है। काश! मुझे वे मिल पाते।
हमने उसके मन की खुशी के लिए एक झूठा-झूठा मंत्र भी तैयार कर डाला :
ॐ सरसो समुह दक्खों दयालु दाक्खिणो। अवेणउ तुज्झ बाहिह कामगइ दोति हूं स्वाहा!!
पर औपचारिक सांत्वना से सने झूठे और बेजान शब्दों का आखिर असर क्या होगा? कुछ भी नहीं! पानी के बिना तड़पती मछली जैसी स्थिति बिन्दु की हो गयी। वह न तो अपने गम को सह सकती थी और नहीं वह उसे कह
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बिन्दुमती सकती थी। हमारी बैचेनी का पार न रहा। हमने सोचा : यदि कामगजेन्द्र से इसका मिलना न हुआ तो शायद वह जिन्दा भी रह सकेगी या नहीं। इसलिये कैसे भी करके कामगजेन्द्र को यहाँ ले आना चाहिए।' ऐसा सोचकर हमने बिन्दु से कहा :
'सखि, तू' यहीं पर रहना! हम दोनों कामगजेन्द्र को खोजकर ले आती हैं।' वह मान गई हमने उसको पर्वत की एक गुफा में पत्थर की शिला पर ताजे खिले हुए कमल-पत्रों की शैय्या बनाकर सुला दिया और आकाशमार्ग से चल दी। ____ अनेक नगर, पर्वत और जलाशयों में ढूँढ़ती हुई हम यहाँ के प्रदेश में पहुँची। फिर भी तुम्हारा नगर हमें नही मिल पाया! 'तुम्हें कहाँ खोजना?' हमारी कठिनाई बढ़ती जा रही थी। आखिर हारकर हमनें 'प्रज्ञप्ति, नाम की विद्या देवी को याद किया। उन्होंने हमें आपका यह स्थान बतलाया और हम आपके पास आने के लिये भाग्यशाली रही।
विद्याधर कुमारी ने सांस ली और कामगजेन्द्र के चेहरे पर उभरते भावों को समझने का प्रयत्न करने लगी। कामगजेन्द्र तो तल्लीन बनकर कुमारियों की बातों में खो गया था। उसके मन में बिन्दुमति की तरफ पूरी सहानुभूति पैदा हो चूकी थी। 'मुझे उस राजकुमारी को बचाना ही चाहिये।' सोचकर उसने पूछा : 'कहो, अब क्या किया जाय तुम्हारी प्रिय सखी की सांत्वना के लिए?' ___ 'राजकुमार, एक ही उपाय है। यदि आपका दर्शन-आपका सहवास उसे मिले तो ही वो बच सकती है। आपको अविलम्ब उसके पास चलना चाहिए, यदि उसकी जिन्दगी को बचाना है तो। मुझे तो लगता है कहीं वह मौत की नींद में न जा बैठे...!!' विद्याधरी का स्वर संवेदना से सिसकने लगा। कामगजेन्द्र ने कहा।
'देरी करनी ही नहीं है। ऐसी परिस्थिति में भला देर करना भी कोई बुद्धिमानी थोड़े ही होगी? पर मुझे यह सारी बात प्रियंगुमति से करनी होगी।' 'प्रियंगुमति कौन?' दोनों सुन्दरियाँ चौंकती हुई बोल उठी।
'यह जो सो रही है। वह ।' कुमार ने इशारे से पंलग पर सोयी हुई प्रियंगुमति को दिखाया! ___ 'तो क्या आप इतनी रहस्यपूर्ण बात औरत को कहेंगे? नीतिशास्त्र तो मना करते हैं गुप्त बातों में स्त्रियों को शामिल करने का।'
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अनुभूत आश्चर्य
५० ___ ‘पर यह गुप्त बात भी तो एक स्त्री की ही है ना? और प्रियंगुमति का व्यक्तित्व हजारों में एक है। हर एक बात में अपवाद तो रहता ही है। नीतिशास्त्र के सारे नियम सभी जगह पर मान्य नहीं होते। प्रियंगुमति मेरी पत्नी ही नहीं, बल्कि एक अच्छी मित्र भी है। मेरा कुछ भी उससे छिपा नहीं है।' ___ 'पर आपका यह विश्वास ज्यादा नहीं है?' पवनवेगा ने स्त्रीसहज कोतुहल से पूछ लिया। 'नहीं जरा भी नहीं... वह तो मेरी दूसरी आत्मा है।' 'तो जैसी आपकी इच्छा- आप कह सकते हैं।' दोनों ने सहमति दे दी। कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति को जगाया! वह एकदम खड़ी हो गयी। अपने आवास में दिव्य कान्ति वाली दो स्त्रियों को देखकर स्तब्ध रह गयी। कामगजेन्द्र ने उसे सारी बात संक्षेप में कह दी और कहा : ___ 'देवी, मैं अभी इन विद्याधर कन्याओं के साथ जा रहा हूँ और जल्द ही वापस लौटूंगा!'
'जैसी आपकी इच्छा | आपकी इच्छा को भला मैं कैसे रोकूँ? पर इन दोनों कन्याओं से विनती करूँगी कि मेरी यह धरोहर मुझे वापस लौटा देना।' दोनों ने प्रियंगुमति की बात को स्वीकार किया।
प्रियंगुमति अस्वस्थ बन गई। उद्विग्नता उसके चेहरे पर छा गयी।' क्या यह ऐन्द्रजालिक माया है? स्वप्न है? किससे बात करूँ? कहाँ जाऊँ? जिनमति भी साथ नहीं है! क्या सच वे दोनों देवियाँ होंगी? क्या मायावी छलना का शिकार तो नहीं बन गयी कहीं मैं! क्या मेरे प्राणप्रिय वापस लौट सकेंगे? ओफ्फोह, मैंने क्यों उन्हें अकेले जाने दिया! मैं भी साथ चली जाती... वह अपने आपको न सम्भाल सकी पलंग पर औंधी गिरती हुई वह सिसकियाँ भरने लगी : उसका रोयाँ-रोयाँ अनन्त अनुताप से भर आया। उसके आँसू बहते ही चले। पर कोई नहीं था वहाँ, उसकी पलकों के मोतियों को बहने से रोकने वाला! अन्ततः कामगजेन्द्र के कुशल की कामना करती हुई वह परमात्मा के ध्यान में लीन बनने का प्रयत्न करने लगी।
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अनुभूत आश्चर्य
५१
|९. अनुभूत आश्चर्य
प्रियंगुमति के प्राण पीड़ा से बैचेन बने जा रहे थे। उसकी आँखों की पुतलियाँ जलविहीन तालाब में निष्प्राण अटक जाने वाली मछलियों सी छटपटा रही थी। बार-बार उसकी पलकों की ओट तले बेचैनी के बादल आआ कर बरसते थे। आकाश की ओर टकटकी बाँधे वह बैठी थी। उसका मन अनेक आशंकाओं से घिर गया था। कामगजेन्द्र के बगैर जिन्दगी की कल्पना ही उसे रुला देती थी।
रात्रि का समय सरक रहा था । अन्तिम प्रहर पूरा होने में था। क्षितिज पर हल्की सी रौशनी दमक रही थी। इतने में एक विमान तीव्र गति से आता दिखायी दिया। प्रियंगुमति के प्राण पुलकित हो उठे। वह आवास के बाहर आयी। विमान को समीप के मैदान में उतरता उसने देखा। विमान में से कामगजेन्द्र और उन दोनों विद्याधर सुन्दरियों को उतरते देखा ।
कामगजेन्द्र उन दोनों के साथ पड़ाव पर आ गया। प्रियंगमति के स्वागत करते हुए होठों पर हास्य बिखर आया। विद्याधर कन्याओं ने प्रियंगुमति से कहा : 'देवी! आपकी धरोहर आपको वापस करते हैं। हमारे ऊपर गुस्सा मत करना!' और चेहरे पर स्मित की चाँदनी छिटकाती हई दोनों कन्या, आकाश मार्ग से चली गई। कामगजेन्द्र की आँखें आकाश में स्थिर सी हो गई। प्रियंगुमति ने कामगजेन्द्र की ओर देखा, उसके चेहरे पर ग्लानि, उदासी और गम्भीरता के मिले-जुले भावों का मेला जमा था । उसका शरीर थका हुआ था। कामगजेन्द्र के चरणों में प्रणाम करके अत्यन्त मृदु स्वरों में उसने कहा :
'स्वामिन! आप थक गये लगते हैं, विश्राम कीजिये।' कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति पर निगाहें जमायी। उसकी आँखों में अलसाती आर्द्रता को वह देखता ही रहा।
'अब क्या विश्राम करूँ? प्रातः काल तो हो चूका है।' 'तो क्या अभी आगे प्रयाण करना है?' 'प्रयाण? किस ओर? अब उज्जयिनी की ओर प्रयाण नहीं करना है!' कामगजेन्द्र के चेहरे पर रंजिश की रेखाएँ उभर आयी। प्रियंगुमति का कौतूहल बढ़ गया।
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५२
अनुभूत आश्चर्य
‘पर यह तो कहिए कि आपको वे दो विद्याधर कन्याएँ कहाँ ले गयी थीं और आपने वहाँ क्या देखा? क्या अनुभव किया? और आप वापस कैसे लौटे?' प्रियंगुमति ने अपने दिमाग में आये हुए प्रश्नों का जाल बिखेरते हुए कहा।
'पहले सेनापति को कहला दो कि आज यहीं रुकना है, प्रयाण नहीं करना है।' ___ 'जैसी आपकी आज्ञा ।' प्रियंगुमति ने प्रतिहारी को बुलाकर सेनापति को सूचना भिजवा दी। उसके मन में विचार आया : 'मैंने मेरे प्रश्न उनसे पूछ तो लिये, पर यदि वे स्नान आदि से निवृत हो जायें, स्वस्थ बन जायें तो शायद उनकी प्रसन्नता बढ़ेगी और बातें करने में ज्यादा मजा आयेगा।' उसने कामगजेन्द्र के लिए गरम और शीतल जल की व्यवस्था करके कामगजेन्द्र को स्नानादि से निवृत होने के लिए निवेदन किया।
स्नान वगैरह करके कामगजेन्द्र के शरीर की थकान दूर हो गई। ग्लानि भी हल्की हो गयी। प्रियंगुमति ने उसके पास बैठते हुए कहा : 'स्वामिन्, अब आप मुझे सारी बातें बतलाइये!' ___ कामगजेन्द्र ने एक निगाह प्रियंगुमति के चेहरे पर डाली और आँखें बंद करके बोलने लगा :
'विद्याधर कन्याओं के साथ नीलाकाश में हमारा विमान बादलों के आरपार होकर उड़ रहा था। शरद की रात ऐसे बीत रही थी जैसे नई नवेली दुल्हन के पाँव उठते हों अपने प्रियतम के पास जाने को।'
गगन की गोद में तारों की चूनर ओढ़े चन्द्रमा काफी खूबसूरत लग रहा था। विमान में से पृथ्वी, बड़ी सुहावनी लगती थी। __पहाड़ों की श्रृंखलाएँ...वृक्षों की पंक्तियाँ...सरोवर...नदियाँ...सभी सौन्दर्य से भरे पूरे नजर आते थे। मुझे लगता था ‘क्या मैं देव हूँ?' वो दोनों विद्याधर कन्याएँ मुझे मीठे-मीठे स्वरों में कहती थी : ___'देखो! कामगजेन्द्र, उस जंगल में वह हाथी कैसी मस्ती में है। हथिनी के कुंभस्थल पर अपनी सूंड को फैलाकर कितनी मस्ती में सो रहा है! ये चमकते असंख्य तारे! मानों गगन पर किसी ने फूलों की चादर बिछा दी हो! मधुर चाँदी की घंटियों सी गूंजती उनकी आवाज में ये सारा प्रकृति-दर्शन मुझे अपूर्व अनुभूति की ओर ले जा रहा था । हम एक पर्वत पर जहाँ उनका निवास स्थान
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अनुभूत आश्चर्य
५३
था, पहुँचे। एक गुप्त गुफा में पहुँचकर जो कि रत्नों से आलोकित थी, मैंने कमलपत्रों की शय्या में सोई राजकुमारी को देखा ।'
कामगजेन्द्र रुका और उसने प्रियंगुमति की ओर देखा । प्रियंगुमति ने पूछा : 'वह विद्याधर कुमारी कैसी थी ?'
'उसके गले में कोमल फूलों का गुम्फित हार था, उसके शरीर पर चन्दन और कपूर का विलेपन किया हुआ था । केले के पत्रों से उसका उरभाग आच्छादित था। उसके रूप सौन्दर्य को शब्दों में बाँधना शक्य नहीं है।'
मेरे साथ की कुमारिकाओं ने उसको मंजुल शब्दों में जगाते हुए कहा : ‘प्रिय सखी, तू जाग और देख! तेरा प्रिय स्वजन तेरे सन्निकट है । तेरे समीप खड़ा है। तू उठ उसे निहार तो सही ।' सखियों ने उसके चेहरे पर से कमलपत्र हठाते हुए उसकी ओर गौर से देखा । हम तीनों घबरा उठे। राजकुमारी की आँखें मूँदी हुई थी। अंगोपांग शिथिल बन चुके थे। दोनों कन्याओं ने उसके शरीर पर हाथ फिराया। उसके श्वासोश्वास को छूने का प्रयत्न किया, पर वे तो बंद थे। सीने की धड़कन बंद थी। दोनों फूट-फूट कर रोने लगी। मेरी ओर आँसूभरी निगाहें उठाते हुए कहा : 'देखो कामगजेन्द्र, हमारी यह सहेली हमें रोती बिलखती छोड़कर चली गई। हाय, नियति ने यह क्या कर डाला? किस्मत की कालीन पर कैसी मायूसी के कदम छा गये ?' उन दोनों की दर्दनाक रंजिश ने मुझे भीतर तक छलनी सा बना डाला। मैं भी उस मृत राजकुमारी के समीप जा बैठा । मेरी पलकों की ओट में आँसूओं की बाढ़ सी आ रही थी। मेरे होठ फड़फड़ा उठे : 'ओ अनजान मुग्धे ! प्रियतमे! इस तरह क्यों मेरे विरह से तुमने प्राण त्याग दिये ? एक बार तो आँखें खोल, मेरी तरफ देख | मैं कामगजेन्द्र तेरी हर कामना को साकार करने के लिए तैयार हूँ। यों बोलते-बोलते मैं स्वयं बेहोश हो गया। अल्प समय में मेरी बेहोशी दूर हो गई। दोनों विद्याधर कुमारियों की वेदना असह्य थी। मृत राजकुमारी को अपनी गोद में लेकर वे करुण स्वर में रोने लगीं। उन्होनें मुझे कहा : 'ओ कामगजेन्द्र ! हमने जिसकी बात कही थी तुमसे, वो ही यह हमारी प्राणप्रिय सहेली और राजकुमारी तुम्हारे विरह में सुबक- सुबक कर जीवन मुक्त बन गई। अब हम इसके माता-पिता को क्या जवाब देंगे ? अब हम करें भी क्या ? यों कहती हुई वे रोने लगीं।
मेरा मन बहुत मायूस था । 'क्या करूँ और क्या न करूँ ?' मुझे कुछ सूझता ही नहीं था। मैंने कहा : 'यह ऐसी अकल्प्य घटना है कि खुद मुझे भी कुछ
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५४
अनुभूत आश्चर्य नहीं सूझ रहा है। मैं भी मूढ़ बन चूका हूँ।' इतने में सूर्योदय हो गया। उन दोनों ने मुझसे कहा : ___ 'राजकुमार, अब तो सूर्योदय हो चूका है, इसलिए राजकुमारी का अग्निसंस्कार कर देना चाहिए।' यों कहकर दोनों गयी और चन्दन की लकड़ियाँ बीनकर ले आयी। एक बड़ी चिता तैयार की और राजकुमारी बिन्दुमति के देह को चिता पर रखा। आग सुलगा दी गई। ज्यों चिता धधक उठी... उन दोनों का विलाप भी बढ़ता ही चला : ओ सखि, तू हमें छोड़कर कहाँ चली गयी? तेरे बिना हम कैसे जियेंगे? हमारा जीना भी किस काम का? हम भी तेरे साथ ही जलेंगे।' यों बोलती हुई दोनों चिता में कूद पड़ी!!!
मैं झल्ला उठा...दौड़ा उन्हें पकड़ने को। 'ऐसा साहस मत करो, इस तरह जल मरना अनुचित है!' मैं चिल्लाता रहा और वे दोनों कन्याएँ आग में जलकर राख बन गई। मेरे शरीर में मानों एक साथ हजारों तलवारों के घाव की वेदना हो आयी। मेरी आँखें बराबर रोती ही चली... 'अरे रे...यह क्या बन गया? मेरी खातिर, मेरे विरह में पागल बनकर बिन्दुमति ने मौत को गले लगाया। उसके पीछे ये दो कन्याएँ भी जल मरी। तीन-तीन स्त्रियों की हत्या के पाप से मैं घिर गया । अब मेरी जिन्दगी का मतलब ही क्या रहा?' और मैंने भी चिता में कूद पड़ने का संकल्प किया। __प्रियंगुमति कामगजेन्द्र के मुँह से कभी नहीं सुनी हुई बातें सुन रही थी। काफी उत्तेजना और बेबसीभरा माहौल बन गया था। कामगजेन्द्र भावुकता के प्रवाह में खींचा जा रहा था।
'देवी, उस समय मेरे कानों पर एक आवाज सुनायी दी! 'हे प्रिये, देखो इस पत्थरदिल व्यक्ति को। इसकी प्रिया चिता की लपटों में लेटी है और यह पास में खड़ा-खड़ा देख रहा है!' एक दूसरी आवाज आती है। 'प्रिये, पति के पीछे पत्नी प्राणों का त्याग करे वह उचित है, पर स्त्री की तरह पुरुष को आत्मघात करना उचित नहीं है, चूंकी पुरुष सत्वशील होता है। कायर की भाँति जिन्दगी हार जाना उसके लिए कलंक है। किसी विद्याधर युगल की इस बातचित ने मुझे भीतर तक संवेदना से भर दिया | मन में सोचा : 'कायर कौन? धधकती चिता में कूद गिरनेवाला या नहीं कूदनेवाला?' खैर, उस समय मेरे मनोमस्तिष्क में तुम्हारा विचार कौंध उठा : 'मैं यदि आग में कूद जाऊँ तो प्रियंगु और जिनमति का क्या होगा? वे दोनों मेरे बिना कैसे
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अनुभूत आश्चर्य
५५ जियेंगी।' मेरे सामने ही तीन-तीन स्त्रियों को आग में जल कर राख बनते हुए देखा है। वह आघात भी मेरे लिये असह्य था... जिन्दगी पहली बार करुणता की बाहों में सिमट आयी थी। ___ 'देवी, मुझे वे विद्याधर कुमारियाँ क्यों ले गयी थी? मेरे मन में कैसे दिव्य सुखोपभोग की कल्पनाएँ थी और कितनी दारुण घटना के शिकार बन गये हम सभी? सुख की सारी कल्पनाओं के महल गिर गये और अपार वेदनाओं ने मुझे बाँध लिया। चिता अब शांत बन चुकी थी। अब केवल वहाँ राख बची थी। मैने सोचा : अब मुझे क्या करना चाहिए? मैंने आसपास नजरें डाली। गुफा के समीप ही एक कुंड था। मैंने वहाँ स्नान करके पानी लाकर इस चिता पर छिटकने का सोचा। प्रियंगुमति आखिर अपने कौतूहल को न दबा सकी। पर क्या आपने यह नहीं सोचा कि यदि वे विद्याधर कुमारियाँ जल मरी तो फिर अब मुझे वापस कौन ले जायेगा? आपको इसकी चिन्ता नहीं हुई?' ___ 'प्रिये उस समय मुझे अपना स्वयं का ख्याल नहीं था। मैं तो उस अकस्मात् बनी घटना से इतना मूढ़ बन चुका था कि मैं यह भी भूल गया कि 'मैं कहाँ से आया हूँ और मुझे वापस लौटना भी है! यह विचार ही मुझे नहीं आया और आये भी कैसे ऐसी स्थिति में?'
'आपने वहाँ पर काफी मानसिक दबाव और दुःख पाया, नहीं?' प्रियंगुमति की पलकें छलछला उठी। उसने कामगजेन्द्र के कंधे पर अपना सर टिका दिया।
'मैंने वहाँ जितना कष्ट पाया उससे भी ज्यादा जो सुखानुभूति मुझे हुई है वह तो मैं अब सुनाता हूँ।' कामगजेन्द्र की आँखों में चमक आ गयी। प्रियंगुमति ने आँचल के छोर से अपनी पलकों को पोंछा और कामगजेन्द्र के उस सुखद अनुभव को सुनने के लिए लालयित हो उठी।
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मैं धन्य बना!
१०. मैं धन्य बना!
देवी, मृत कुमारिकाओं को जलांजलि देने के लिये मैं उस कुंड में उतरा। मैंने अपने कपड़े उतारकर किनारे पर रख दिये थे। मैंने कुंड में गहरे डूबकी लगायी...मेरी आँखें बंद थी..
यकायक जब मेरी आँखें खुली तो मैं कुंड के बाहर आ चुका था... कुंड के बाहर आकर मैंने अपने कपड़े पहन लिये।
कुंड के किनारे पर खड़ा-खड़ा मैं उसकी स्फटिक रत्नों से निमित दीवार को देख रहा था... स्वच्छ बिलोरी रंग के उसके पानी को देख रहा था कि अचानक एक चमत्कार हुआ... वह कुंड एक दिव्य विमान में बदल गया... मैं उस विमान में आरूढ़ होकर दूर-दूर तक उड़ता रहा...आखिर एक नयी धरती पर वह विमान उतरा...मैं भी विमान से नीचे उतर कर आश्चर्य एवं मुग्धता के भावों में घिरा हुआ इधर-उधर देखने लगा तो मुझे वह दुनिया ही कुछ अजीब सी लगी!
सुन्दर विशाल हरी-भरी पृथ्वी! गगन को छूने वाले दीर्घ-सुदीर्घ वृक्षसमूह! खजूरी के पेड़ से भी बड़े-बड़े जानवर! बड़े ऊँचे-ऊँचे आदमी... मैं तो उन सबके आगे चिड़िया के बच्चे सा लग रहा था... अरे... क्या यह देवलोक है? क्या यह विद्याधरों की दुनिया है? नहीं-नहीं, मैं सोचने लगा...ओह, यह तो महाविदेह का इलाका लग रहा है...चूँकि मैंने महाविदेह के बारे काफी बातें सुन रखी थी, तो वहाँ का वातावरण हूबहू वैसा ही लग रहा था। ___ कैसे बड़े-बड़े आदमी... जानवर! हजार हाथ से भी ऊँचे पेड़...वृक्ष...और न जाने क्या-क्या? ___ मैं सोच रहा था...किसे जाकर पूछू : 'यह धरती कौन सी है? यह सब क्या चमत्कार है?' सोचते-सोचते मैं आगे बढ़ने लगा...
स्वर्ग जैसे नगर...नंदनवन से बगीचे...सौन्दर्य के सरोवर से युवक...अप्सरा भी शरमा जाये वैसी युवतियाँ...वैभव कला और कारीगरी के उत्तम नमूनों से मकान...महल! मुझे अपनी दुनिया तो इन सबके सामने तुच्छ सी लगी...बेजान सी लगी...।।
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मैं धन्य बना!
५७ वहाँ मैंने दो बच्चों को देखा। वे भी मुझे कौतूहल से निहार रहे थे। थे तो बच्चे ही, परन्तु उनकी ऊँचाई मेरे से अट्ठारह हाथ ज्यादा थी। सौन्दर्य उनके अंग-अंग से टपक रहा था, अनेक सुंदर अलंकार उन्होंने पहने थे। मुझे बड़े प्यारे से लगे बच्चे । मैंने उनसे प्रश्न किया : 'ओ प्यारे बच्चों! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।' मेरी आवाज सुनकर वे दोनों ठिठक गये। वे नजदीक आये! कौतूहल के कारण कमर से झुककर मुझे ठीक वैसे देखने लगे जैसे कि अपन कीड़े या अन्य बारीक जन्तु को देखते हैं! वहीं एक ने दूसरे से कहा : 'देखोदेखो! दोस्त, मनुष्य के आकार वाले और मनुष्य की भाषा बोलते हुए इस कीड़े को तो देखो!' दूसरा बालक भी झूम उठा : ‘सच है तेरा कहना! कितना प्यारा लगता है! मनुष्य के आकार का और मनुष्य की भाषा में बोलता हुआ कीड़ा हम ने पहली बार देखा! यह है कौन?'
'शायद मुझे लगता है यह वन्य प्रदेश के किसी पशु का बच्चा होगा। बेचारा माँ से जुदा हो गया लगता है। दूसरे बच्चे ने कहा : ‘पर अपने प्रदेश में ऐसे वन्य प्रदेश है ही कहाँ? ऐसे जानवर भी तो नहीं है ना? अपने क्षेत्र के आस-पास सारे ही नगर हैं। सारे नगरों के जनपथ जनसमूह से छाये रहते हैं। अपने महाविदेह में वन्य पशु कहाँ रास्ते में पड़े हैं, जो इस तरह नगर में चले आयें | यह वन्य पशु नहीं लगता, क्योंकि इसने तो इतने सारे आभूषण पहन रखे हैं। ये अलंकार मनुष्य के द्वारा ही निर्मित हैं और मनुष्य के पहनने के लिये ही हैं!
इस बात से मुझे यह ख्याल आ गया कि 'मैं महाविदेह की धरती पर आ पहुँचा हूँ।' मुझे बड़ी प्रसन्नता मिली। इतने में उस बच्चे ने अपने दोस्त से कहा : 'यह कौन है? इसका निर्णय अपन नहीं कर सकेंगे। अपन तो इसको परमात्मा सीमंधर स्वामी के समीप ले चलें। वहाँ समवसरण में इसे देखकर कोई तो अवश्य ही परमात्मा से इसके बारे में प्रश्न करेगा कि 'यह कौन है?'
दूसरा मित्र भी खुश होता हुआ ताली देने लगा : 'हाँ तेरी बात ठीक है। सर्वज्ञ परमात्मा के पास ही जवाब मिल जायेगा!' ___ मैं तो यह सुनकर मारे खुशी के झूम उठा। 'मुझे सीमंधर परमात्मा के दर्शन होंगे! उनके चरणों में बैठने का मौका मिलेगा। मेरे भाग्य कितने उजले हैं!' मेरा तो रोयाँ-रोयाँ अनंत आनन्द से भर गया। इतने में उनमें से एक ने मुझे ऐसे उठाया जैसे कि अपन किसी गोरैया के बच्चे को उठाते हैं। हाँ, मुझे पीड़ा न पहुँचे इसका ध्यान उन्होंने पूरा-पूरा रखा था। मैंने सोच रखा था कि
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मैं धन्य बना!
५८ परमात्मा के समक्ष अपने सारे प्रश्न रख दूंगा कि "मेरे जीवन में यह सब कुछ क्या हुआ जा रहा है।' __ हम जा पहुँचे समवसरण में, मुझे अपनी हथेली में रखकर वे दोनों बच्चे समवसरण में एक जगह पर बैठ गये। मैंने भगवन्त को देखा 'अहा। कितना सुन्दर रूप! कितनी विशाल काया? कितनी प्यारी और मधुर वाणी! समवसरण में देव-देवियाँ! देवेन्द्र और नरेन्द्र! स्त्री और पुरुष | सभी परमात्मा की वाणी सुनने में लीन बने थे। मुझे ले जाने वाले उन दोनों बच्चों ने कानाफूसी की 'अभी तो प्रश्न करना उचित नहीं होगा। अभी इस कीड़े को बताना उचित नहीं होगा। फिर जब गणधर भगवन्त प्रश्न करेंगे तब देखा जायेगा।' ऐसा कहकर वे दोनों परमात्मा की वाणी सुनने में दत्तचित बन गये। __परमात्मा ने आत्मा और कर्म का संबंध समझाया। कर्मों के बंध, उदय, क्षय, क्षयोपशम वगैरह समझाया। सभी मुग्ध बनकर सुन रहे थे। सभी ने परमात्मा के वचनों को स्वीकार किया। उस समय अवसर जानकर उन बच्चों ने मुझे सीमंधर स्वामी के पास रख दिया। सभी की निगाहें मेरे ऊपर लग गयी। देव-देवी, स्त्री-पुरूष सभी को आश्चर्य होने लगा। मैंने सीमंधर स्वामी को तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दना की और भगवन्त के सामने खड़े होकर स्तुति की।
'हे जीवमात्र के बन्धु! संसार-समुद्र में नौका समान आप जयशील बनो। जन्म-जरा मृत्यु से मुक्त भगवन्त आप जयवंत बनो। हे पुरुषसिंह त्रिलोकव्यापी यशस्वी परमात्मन्! सर्वज्ञ सर्वदर्शी! आप विजयशील बनो! मोह को नष्ट करके सिद्धगति को प्राप्त करने वाले ओ जिनेन्द्र। आप जयशील बनो। हे प्रभो, मैं आपकी शरण अंगीकार करता हूँ।' इस तरह प्रार्थना करके मैं प्रभु के चरणों में झुक गया और बाद में अपने स्थान पर जा बैठा।
देवी! उस समय वहाँ बैठे हुए एक राजा ने नतमस्तक होकर भगवान से प्रश्न किया : हे प्रभो! यह मनुष्य है या दूसरा कोई? यह यहाँ पर आया कैसे? क्यों आया और इसे यहाँ कौन ले आया है? यह सब जानने की मुझे तीव्र उत्कंठा है, तो आप सारा रहस्य उद्घाटित करने की कृपा करें ।' यों कहकर वह राजा भगवंत के चरणों में झुका।
भगवंत ने करुणा करके मधुर सुरों में कहा : 'राजन्! इस जम्बूद्वीप में 'भरत' नाम का एक खंड है, वहाँ मध्य खंड में अरुणाभ नाम के नगर का यह कामगजेन्द्र नाम का राजकुमार है। इसके पूर्व जन्म के मित्र जो कि अभी देव
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मैं धन्य बना!
____५९ बने हुए हैं, उन्होंने कामगजेन्द्र की आत्मा को प्रतिबुद्ध करने के लिये एक मायाजाल की रचना की । 'कामगजेन्द्र स्त्रीमुग्ध है, वह सौन्दर्य का चाहक है, यों जानकर उन दोनों मित्र देवों ने विद्याधर कुमारिकाओं का रूप किया और कामगजेन्द्र को वैताढ्य पर्वत की घाटी में ले आये। वहाँ बिन्दुमति नाम की राजकुमारी दिखायी : 'यह तेरे विरह से मर गयी है, ऐसा बताकर अग्निसंस्कार किया और उस चिता में वे दो कुमारियों का रूप धारण करने वाले देवों ने भी प्रवेश किया। यह देखकर कामगजेन्द्र भी जल मरने को तैयार हो गया पर मित्र देवों ने विद्याधर युगल का रूप बनाकर उसे जल मरने से रोका। फिर जब कामगजेन्द्र कुंड में उतरा तो उस कुंड को ही विमान बनाकर उसे यहाँ ले आये। उन्हीं दोनों मित्र देवों ने बालकों का रूप बनाकर 'यह किसी जंगली जानवर का बच्चा है, ऐसा मजाक किया और इसको यहाँ समवसरण में ले आये । 'सर्वज्ञ वीतराग के दर्शन करके यह सम्यकत्व पायेगा,' ऐसा समझ कर उसे मेरे सामने रखा।' ___ 'प्रभो, मित्र देवों ने ऐसा क्यों किया?' राजा ने प्रश्न किया । 'राजन्! गत जन्म में ये पाँच मित्र थे। उन पाँचों ने परस्पर निर्णय किया था एक दूसरे को प्रतिबुद्ध करने का । यह कामगजेन्द्र उन पाँचों में से एक मोहदत्त की आत्मा
___ मैं तो यह सब सुनकर भावविभोर हो उठा। भगवन्त की करुणामयी दृष्टि मेरे ऊपर गिरी। ___ 'कामगजेन्द्र! तू प्रतिबुद्ध बन । कर्मों की कुटिलता को समझ! कर्मों की जंग लगी जंजीरों को काटने के लिये कड़ा पुरुषार्थ करना होगा। तब ही मोक्षदशा प्राप्त होगी। संसार तो भीषण सागर है। उसको तैरना-पार करना आसान नहीं है। मन और इन्द्रियों की चंचलता की और कषायों की दुर्शयता को समझ | विषयोपभोग अन्ततोगत्वा दुःखदायी है। जिनवचन प्राप्त होना महा मुश्किल है। अतः सम्यगदर्शन को अंगीकार कर | यथाशक्ति विरतिधर्म को भी अंगीकार कर।' ___ 'प्रियंगु! परमात्मा की पावन वाणी मेरे अन्तस्तल को छू गयी। मेरी आँखों में खुशी के आँसू छलक उठे। मेरे रोम-रोम उल्लसित हो गये। हृदय में असीम आनन्द का उदधि उछलने लगा।' मैंने कहा।
'हे करुणानिधान । आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। आपके वचन मैं स्वीकार करता हूँ।'
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सही दिशा की ओर
६० कामगजेन्द्र प्रियंगु के सामने यह बोलते-बोलते गद्गद हो उठा। प्रियंगु की भी आँखें आँसुओं से चमक रही थी। उसका स्वर भर्रा गया...। 'फिर क्या हुआ स्वामिन्?'
फिर उस राजा ने पूछा : 'भगवंत यह कामगजेन्द्र मनुष्य है तो यह सात हाथ ही ऊँचा क्यों है? हम तो पाँच सौ मनुष्य की ऊँचाई वाले हैं।' ___ 'महानुभाव, यह महाविदेह क्षेत्र का है और कामगजेन्द्र तो भरत क्षेत्र का है। यहाँ हमेशा सुखमय काल होता है, वहाँ अब दुःखमय समय शुरू होगा। यहाँ शाश्वत् समय है, जबकि वहाँ समय की अवधि है | यहाँ दीर्घायुष्य है, वहाँ अल्पायुष्य है। यहाँ अधिक पुण्यशील प्राणी हैं, वहाँ अल्प पुण्यशाली लोग हैं। यहाँ सत्वशील आत्माएँ हैं, वहाँ सत्वहीन पुरुष हैं। यहाँ ज्यादा सज्जन और कम दुर्जन हैं, वहाँ कम सज्जन और ज्यादा दुर्जन हैं। वहाँ के लोग जड़मति
और वक्र स्वभाव वाले हैं। यहाँ शाश्वत् मोक्षमार्ग है, वहाँ अशाश्वत् मुक्तिमार्ग है। यहाँ शुभ परिणामयुक्त और मनोहर पदार्थ हैं, वहाँ शुभ परिणाम वाले पदार्थो का ह्रास होता जा रहा है।' ___ 'देवी, जब मैंने यह सब सुना तो मुझे लगा कि अपना क्षेत्र कितने गुणों से रहित है। वह महाविदेह क्षेत्र धन्य है जहाँ सर्वज्ञ सर्वदर्शी, जगतबंधु देवेन्द्रपूजित, मुनिपूजित, सर्वजीवप्रतिबोधक, सर्वोत्तम, सर्वांग सुन्दर, सभी संशयों को दूर करने वाले जिनेश्वर भगवन्त विचरते हैं। मैंने मन ही मन परमात्मा की भावपूर्ण स्तुति की। स्तवना करते-करते मैं प्रभु के चरणों मे झुका | मेरी आँखें मूंद गयी। जब मैंने सिर उठाया आँखें खोली तो मैं उन दोनों विद्याधर कुमारिकाओं के साथ विमान की सीढ़ियाँ उतर रहा था।' ___ कामगजेन्द्र प्रियंगुमति को प्रेमपूर्ण नजरों से देख रहा था, इतने में परिचारिका ने आकर निवेदन किया : 'दुग्धपान का समय हो चुका है।
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सही दिशा की ओर
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६१
११. सही दिशा की ओर
कामगजेन्द्र की बात सुनकर प्रियंगुमति विचारों की गहराई में डूब गई। उसके चेहरे पर ग्लानि और आश्चर्य की मिश्रित रेखाएँ उभर आई। उसने कामगजेन्द्र की ओर देखा ... कामगजेन्द्र आँखें मूँदकर पलंग पर लेटा था । प्रियंगुमति के मन में अनेक विचारों के आवर्त फैलने लगे। क्या ये सारी बातें सही होंगी? उनके जाने और लौटने में मात्र एक प्रहर का समय बीता है। एक प्रहर में क्या इतनी घटनाएँ हो सकती है ? इतनी सारी घटनाओं में तो तीनचार प्रहर निकल जाना आसान है । तो क्या यह इन्द्रजाल है ? स्वप्नलीला है ? प्रियंगुमति का मन भारी भारी हो गया। उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ फैलती देखकर कामगजेन्द्र ने उठकर अपने हाथों में उसकी हथेलियों को बाँधते हुए कहा :
‘देवी! अभी भी मेरे मनोपट पर हूबहू सीमंधर स्वामी की आकृति उभर रही है। जैसे कि मैं उनके चरणों में नतमस्तक खड़ा हूँ और उनके करुणापूर्ण नयनों से करुणा बरस रही हो ! सच, यह दृश्य मुझे अभी-अभी दिखाई दिया ।'
' पर मुझे तो यह सब समझ में नहीं आता। एक प्रहर के अल्प समय में आपकी कही हुई सारी घटनाएँ हो कैसे सकती है? आप जब से गये तब से मैं जाग रही हूँ। एक प्रहर भी मुश्किल से बीता है। क्या यह स्वप्न या इन्द्रजाल नहीं हो सकता ?'
'देवी, मैंने जो कुछ भी कहा वह सब मेरा अपना अनुभूत सत्य है, अतः स्वप्न या इन्द्रजाल का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। अलबत्त, मेरे ये सारे अनुभव दैवी दुनिया के हैं, मुझे यहाँ से ले जाने वाले मेरे पूर्वजन्म के मित्रदेव हैं। मुझे वापस लौटाने वाले भी वही हैं। इसलिए जाने-आने में तो ज्यादा समय गया ही नहीं। वैताढ्य पर्वत की गुफा में कुण्ड में भी और फिर महाविदेह क्षेत्र में एक प्रहर बीत जाना स्वाभाविक है । पर देवी, सच कहूँ तो वह सब देशकाल के बंधनों से परे था । अपूर्व और अद्भुत था ।'
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कामगजेन्द्र के चेहरे पर एक दिव्य आभा दमक उठी। उसके कमल से अर्धनिमीलित नयनों में दिव्य अनुभूति की संवेदना नृत्य करने लगी । परमात्मा सीमंधर स्वामी के मुखारविन्द से उसने 'बिन्दुमति' और उसकी दोनों विद्याधर
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सही दिशा की ओर
६२ कुमारिकाओं की कहानी की काल्पनिकता और हेतुता समझ ली थी। मित्रदेवों द्वारा उसकी स्त्री-आसक्ति को तोड़ने के लिए रची हुई इन्द्रजाल की तो उसे प्रतीति हो गयी थी, पर सीमंधर स्वामी के दर्शन में यथार्थता की उसे श्रद्धा थी। मित्रदेव उसे महाविदेह में ले गये थे, यह बात सम्पूर्ण सत्य और तथ्यपूर्ण थी। इन्हीं विचारों में खोया-खोया वह अपनी कल्पनासृष्टि को 'महाविदेह का रूप दे बैठा। सीमंधर स्वामी के समवसरणमय उसकी दृष्टि बन गई। उस सृष्टि में उसने कभी जिसका अनुभव न किया हो ऐसी प्रसन्नता प्राप्त की। ऐन्द्रिक भूमिका से उठकर उसने दिव्य सुखानुभूति की। उसने मन ही मन अपनी समग्रता से परमात्मा को चाहा। इस चाह में उसने परमतृप्ति का अनुभव किया।
कामगजेन्द्र के समूचे जीवन पर एक प्रहर के इस अनुभव ने गहरा प्रभाव डाला | उसकी इन्द्रियाँ शान्त हो गयी। उनका मन प्रशांत बन गया।
'स्वामिन्! प्रियंगुमति के शब्दों ने कामगजेन्द्र को विचार भूमि से वास्तविकता की वेदी पर खींचा। 'क्या?' 'मुझे एक विचार आया!' 'बोलो!' कामगजेन्द्र की आँखें प्रियंगुमति पर ठहरी । 'समीप की धरती पर चरमतीर्थंकर परमात्मा महावीरस्वामी विराजमान हैं, अपन परमात्मा के दर्शनार्थ चलें और वहाँ आपका रात्रि-अनुभव उनसे निवेदन करें तो?'
'सुन्दर विचार है देवी! भगवन्त के दर्शन का लाभ मिलेगा और अनुभूति की यथार्थता भी सिद्ध हो जायेगी। रथ तैयार करने की सूचना दे दो।'
'जैसी आपकी आज्ञा', प्रियंगुमति ने प्रतिहारी को बुलाकर रथ तैयार करने की सूचना दे दी। कामगजेन्द्र ने शुद्ध कपड़े पहने। प्रियंगुमति ने भी श्वेत रेशमी वस्त्रों से अपने को सजाया।
कामगजेन्द्र का सुशोभित रथ श्रमणभगवान महावीर स्वामी के समवसरण की ओर दौड़ रहा था। प्रकृति ने अपना नया शृंगार किया था, पर उसे देखने की उत्कंठा न तो कामगजेन्द्र को थी न ही प्रियंगुमति को थी। दोनों गहरे विचारों में डूबे थे। जब मनुष्य के हृदय में कोई प्रश्न पैदा होता है, जब-तक उसका सुखद निराकरण नहीं आता तब-तक उसे बाहर की दुनिया का सौन्दर्य भाता नहीं है।
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सही दिशा की ओर
दूर से देवदुंदुभि की ध्वनि सुनाई देने लगी। उतुंग अशोक वृक्ष की डालियाँ झूल रही थी। कामगजेन्द्र की आत्मा पुलकित बन उठी। उसका रोम-रोम विकस्वर होने लगा। रथ समवसरण के समीप जा रहा था। समवसरण में आसीन परमात्मा महावीर स्वामी के दर्शन हुए | कामगजेन्द्र और प्रियंगुमति के मन झूम उठे। समवसरण के द्वार पर रथ में से उतरकर दम्पति समवसरण के सोपान चढ़ने लगे| परमात्मा के सामने आते ही दोनों ने मस्तक पर अंजलि रचाकर, प्रणाम किया, तीन प्रदक्षिणा देकर भगवन्त के सामने सविनय बैठ गये। कामगजेन्द्र की निगाहें परमात्मा के सौम्य एवं शीतल आनन पर टिकी थी। करुणा से भरे वीतराग के नयनों की आभा से कामगजेन्द्र की आत्मा प्रसन्न बन गई। उसने परमात्मा से विनयपूर्वक प्रश्न किया।
'हे भगवन्त, गत रात्रि में मैनें जो अनुभव किये, क्या वे अनुभव सच हैं या फिर मेरी चेतना ऐन्द्रजालिक व्यामोह में फँसी रही? इसका प्रत्युत्तर देने की कृपा करें। ___ 'हे महानुभाव तेरे सारे अनुभव सच हैं।' सर्वज्ञ की मीठी मधुर वाणी ने कामगजेन्द्र एवं प्रियंगुमति के चेहरे पर गंभीरता एवं आश्चर्य के भावों का सम्मिश्रण पैदा किया। भगवंत ने कामगजेन्द्र को कहा : ___ 'हे कामगजेन्द्र, कर्मों की गति विषम है। अनंत-अनंत जीवात्माएँ कर्मों की पराधीनता से इस दु:खमय संसार में अनंत-अनंत दुःखों को झेलती हुई भटकती हैं। पुण्यकर्मों के उदय से जब जीवों को क्षणिक सुख प्राप्त होते हैं तब जीव पाप कर्मों की भयंकरता को भूल जाता है। अशाश्वत् भोगसुखों में मूढ़ सा बन जाता है और पाप कर्मों का बंध करता है, जब वे पापकर्म उदय में आते हैं तब दारुण दुःखों की दाहकता उसे बेबश बना देती है। ऐसा दुःखमय यह संसार है। पुण्यकर्मों के उदय से जीवात्माओं को जब प्रियजनों के संयोग मिलते हैं, जीवात्मा स्नेह के बंधनों से बंधता है। पर जब उस संयोग का वियोग होता है, तब उसकी वेदना की सीमा नहीं रहती है। इसी तरह पाँच इंद्रियों के विषयोपभोग करते हुए जीव जब रोगों से घिरते हैं, विषयसुख दूर-दूर जाते हैं तब उसके दुःखी मन को कौन समझा सकता है? विषयवासनाओं के पाश में फँसी जीवात्मा नरक-तिर्यंच वगैरह दुर्गतियों में भटक जाती है। वहाँ पर असंख्य वर्षों तक शारीरिक एवं मानसिक त्रास का शिकार बन जाती है।
कामगजेन्द्र, यह विषचक्र आजकल का नहीं है, अनंत-अनंत काल से यह
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सही दिशा की ओर सब चल रहा है। यह मनुष्यजन्म तो मौका है, इस घटनाचक्र से मुक्त होने के लिये प्रचंड पुरुषार्थ करने का! मुक्तिमार्ग तेरी आँखों के सामने है। ___ एक बात अच्छी तरह से समझ लेना कि मुक्त... सारे कर्मों के बन्धनों से मुक्त आत्मा का सुख ही सदाकालीन शाश्वत्, अखंड और अविकल है। वह सुख प्राप्य है। पर इसके लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करनी होगी। वीतराग के बतलाये मार्ग की साधना करनी होगी। कठोर कर्मों के सामने धीर-वीर बनकर युद्ध छेड़ना होगा। विजय की वरमाला तेरा इन्तजार कर रही है। कामगजेन्द्र! तेरा जीवन इसलिए ही है! प्रबुद्ध बन! कब तक मानस का हंस गन्दी-घिनौनी तलैया के पानी में खेलता रहेगा? कामगजेन्द्र का हृदय हर्ष से परिपूर्ण बन गया। उसकी पारदर्शी आँखों के किनारे आँसुओं का काफिला उतर आया। उसकी अन्तरात्मा विषयसुखों से विरक्त बनने लगी। परमात्मा के चरणों में अपना जीवन समर्पित करके साधना के सफलतम शिखरों पर पहुँचने की अभीप्सा आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में जाग उठी। उसने खड़े होकर परमात्मा के चरणों में पुन:-पुनः वंदना की। प्रियंगुमति ने भी भावपूर्ण मन से वन्दना की और दोनों समवसरण से बाहर निकले। रथारूढ़ बनकर अपने पड़ाव पर जा पहुंचे।
दैनिक कृत्यों से निवृत होकर कामगजेन्द्र और प्रियंगुमति अपने आवास में जाकर बैठे | कामगजेन्द्र ने प्रियंगुमति की ओर देखकर कहा : । ___'देवी! अपन को यहीं से वापस लौटना है। अब उज्जयिनी जाने का कोई प्रयोजन नहीं है। मेरा मन वैषयिक सुखों से दूर-दूर जा रहा है। अब कोई आकर्षण नहीं रहा है! 'सच है स्वामिन्! विरक्त आत्मा को अनुरक्ति पसन्द कैसे आयेगी?'
"देवी मेरे मन में ऐसा अपूर्व भाव पैदा हुआ कि इस संसार को छोड़कर, संयम की राह को अंगीकार करके कर्मों का नाश करना है। आत्मा की स्वभावदशा को पाना है।'
'आपकी मनोकामना उत्तम है। आपका भाव पवित्र है, श्रेष्ठ है। मैं भी इन्हीं भावों में डूबी हूँ| जब से त्रिभुवनतारक परमात्मा महावीर देव की गंभीर वाणी को सुना है, मेरा मन भी विरक्ति की ओर खींचा जा रहा है। मैं भी आपके साथ संयमधर्म को स्वीकार करूँगी और आत्मा की शुद्धावस्था को पाऊँगी' प्रियंगुमति के शब्दों ने कामगजेन्द्र के प्राणों को आनंद से भर दिया।
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सही दिशा की ओर
विरक्त आत्माओं के आनंद की अनुभूति विषयाक्त आत्माओं की कल्पना के बाहर की वस्तु है। विरक्ति में शुष्कता नहीं होती। शुष्कता में विरक्ति का टिकना मुश्किल है। राग का आनन्द और विराग का आनन्द! है दोनों आनन्द, पर दोनों के बीच जहर-अमृत का अन्तर होता है। ___ 'देवी, तुम्हारा संकल्प मेरे संकल्प को मजबूत बनाता है। तुम्हारे शब्दों की सहानुभूति मेरी विरक्ति को और ज्यादा पुष्ट कर रही है। अपन अरुणाभ नगर चलें। जिनमति को भी अपनी मनोकामना बतानी होगी। फिर युवराज दिशागजेन्द्र का राज्याभिषेक भी करना होगा और बाद में अपन संयम की राह पर प्रयाण करेंगे!'
'सही है आपका कहना! जिनमति आपके संकल्प को सुनकर ताज्जुब रह जायेगी! उज्जयिनी की राजकुमारी के चित्र पर मुग्ध बने आपको जब वह एक विरक्त व्यक्ति के रूप में पायेगी, आश्चर्य होगा ही! राजकुमारी पर मुग्ध बने आपको वह भगवान महावीर पर मुग्ध बने पायेगी तो उसका आश्चर्य दुगना हो जायेगा।' ___ 'सच है देवी, मानव के आकस्मिक परिवर्तनों से दुनिया को आश्चर्य होता ही है! जिनमति भी आश्चर्यान्वित होगी ही परन्तु...' कामगजेन्द्र बोलते-बोलते रुक गया। प्रियंगुमति समझ गई।
'स्वामिन, वह प्रसन्न होगी। आपके आन्तरिक व्यक्तित्व से वह भलीभाँति परिचित है। आप बाहर से रागी हैं और भीतर से विरागी हैं, यह बात हम दोनों अच्छी तरह जानती हैं। इस विषय में हमारी काफी चर्चा भी हुई है। अपन दोनों के संकल्पों का वह स्वागत करेगी और उसका अपना भी यही संकल्प होगा।' 'तो क्या वह भी संयमजीवन पसन्द करेगी?' 'अवश्य! जो आपको पसंद वही उसका जीवन ध्येय! वह आपको इतने गहरे से प्यार करती है कि अलग पसन्दगी का तो प्रश्न ही नहीं होता।
'तब तो कितना अच्छा! अपन सभी साथ ही आत्मा के अविनाशी सुखों को पायेंगे। सदाकाल के लिए ज्योत में ज्योत मिल जायेगी। कभी वियोग नहीं, कोई दूरी नही। __पलभर के लिए कामगजेन्द्र की कल्पना में जिनमति की सौम्य स्नेहभरी छवि तैर आई। उसका मन बोल उठा : 'वह भी तेरी राह स्वीकारेगी।'
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी
'स्वामिन् सेनापति को बुलवाकर वापस लौटने की सूचना दे दें।' 'हाँ, प्रतिहारी भेजकर सेनापति को बुला लो।'
प्रियंगमति ने प्रतिहारी को सूचना दी। प्रतिहारी चला गया। प्रियंगुमति अपनी तैयारी में लग गई। सेनापति तुरन्त आ गया। कामगजेन्द्र ने उसको अरुणाभ नगर लौटने की सूचना दी। सेनापति के चेहरे पर आश्चर्य की रेखाएँ उभर आई। उसने मौन रहकर आज्ञा को स्वीकार किया। पर कामगजेन्द्र की आँखों ने उसकी जिज्ञासा को भाँप लिया। उसने कहा : __ 'हम स्वयं अपनी इच्छा से वापस लौट रहे हैं, अपने को कोई कष्ट या विध्न नहीं पहुंचा है। जो विशेष कारण है वापस लौटने का, वह अरुणाभ नगर जाने के बाद मालूम होगा।' कामगजेन्द्र के आनन पर स्मित के फूल खिल उठे। सेनापति ने शीघ्र पड़ाव उठवा लिया और सैन्य को अरुणाभ नगर की ओर लौटने का आदेश दिया।
सभी के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभरे थे। चले थे उज्जयिनी की राजकुमारी को लेने के लिए और वापस लौट रहे हैं खाली हाथ! आखिर ऐसा क्यों?
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी
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|| १२. ज्योत, जो सदा जलती रहेगी।
अरुणाभ नगर के स्त्री-पुरुष आश्चर्य, आशंका और प्रबल जिज्ञासा के भावों में डूब गये, जब कामगजेन्द्र और प्रियंगुमति अपने सैन्य के साथ रास्ते में से ही वापस लौट आये। सब यही जानते थे कि 'राजा कामगजेन्द्र उज्जयिनी की राजकुमारी के साथ शादी करने के लिये गये हैं।' जब बिना शादी किये रास्ते में से ही वापस लौटे तो आश्चर्य होना सहज था।
जिनमति भी आश्चर्य से चौंक उठी। वह तुरन्त कामगजेन्द्र के आवास में जा पहुँची। प्रियंगुमति भी वहीं पर बैठी थी। जिनमति ने कामगजेन्द्र के चरणों में नमन किया और प्रियंगुमति के पास आ बैठी। उनकी प्रश्नभरी आँखें कामगजेन्द्र के चेहरे पर जमी थी। प्रियंगुमति गौर से जिनमति के सामने देख रही थी। 'आपको कुशलता तो है न स्वामिन्?' 'बहुत प्रसन्न हूँ जिनु! कहो तुम कैसी हो?'
'आपकी कुशलता और आपकी प्रसन्नता वही मेरा सब कुछ है, आप प्रसन्न हैं तो मैं भी खुश हूँ!
'जिनु! जिन्दगी में कभी नहीं पायी ऐसी आंतरप्रसन्नता से मेरा रोम-रोम पुलकित है। वैषयिक सुखों के उपभोग में मुझे जो आनन्द न मिल सका वह आनन्द वह अपूर्व रसानुभूति मुझे श्री सीमंधर स्वामी के दर्शन एवं भगवान महावीर की देशना के श्रवण से मिली!'
‘पर सीमंधर स्वामी तो महाविदेह में हैं। उनके दर्शन? मेरी समझ में नहीं आ रहा कुछ...?' ___ कामगजेन्द्र के चेहरे पर दिव्य तेज की आभा चमक रही थी। जिनमति को उलझते देख उसके चेहरे पर स्मित की चाँदनी उतर आयी। उसने प्रियंगुमति को देखा। प्रियंगुमति ने हँसते हुए कहा : 'रात्रि की वह अद्भुत घटना आप ही जिनमति को सुनायें!'
कामगजेन्द्र ने जिनमति को अथ से इति तक सम्पूर्ण वृतांत कह सुनाया। साथ में भगवान महावीर के उपदेश से उसका हृदय विरक्त बना है और वह संयम की राह पर जाने को लालायित है, यह भी उसको बता दिया।
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी
६८ जिनमति ने धड़कते हृदय से...आश्चर्य...अनुताप...कौतूहल और विरक्ति के भिन्न-भिन्न भावों के साथ कामगजेन्द्र की बातों को सुना। __'आपकी बातें अदभुत प्रतीत हो रही हैं। आपका निर्णय भी श्रेष्ठ है। त्याग का रास्ता ही आत्मा के सुखानूभव का एक मात्र सही मार्ग है।' __'जिनु, मैंने भी स्वामी का संकल्प स्वीकारा है। मैं भी उनके साथ संयम स्वीकारूँगी।'
'दीदी, आपने अपना ही निर्णय क्यों कहा? मेरा भी निर्णय आपको कहना चाहिए था?' 'चारित्र बिन मुक्ति नहीं, यह बात तो मुझे माँ ने दूध के साथ पिलायी है | जीवन का अन्तिम आदर्श संयमजीवन ही है। मैं भी चारित्र का ही मार्ग लूंगी।' जिनमति ने प्रसन्न मन से पर दृढ़ स्वर में अपना संकल्प बता दिया। प्रियंगमति उसके प्रतिभासंपन्न चेहरे की ओर देखती ही रही। जिनमति
आँखें मूंदकर विचार में डूब गयी थी। कामगजेन्द्र आवासगृह के वातायन से नीलगगन में मुक्त मन से उड़ रहे पक्षियों को देख रहा था। 'जिनु!' 'दीदी!' जिनमति प्रियंगुमति के पास सरक आयी । 'संयममार्ग ग्रहण करने का निर्णय बड़ी समझदारी के साथ करना चाहिए | भावुकता के प्रवाह में बहकर नहीं। परिपक्व चिंतन और दीर्घ विचार करके ही निर्णय लेना चाहिए | संयम का मार्ग सरल नहीं है। भोग में डूबे जीवों के लिये त्याग का जीवन शायद कठिन हो सकता है।'
जिनमति ने प्रियंगुमति की बात सुनी। वह मौन रही। उसकी आँखें निमिलित थीं। उसकी कल्पना-सृष्टि में संयमजीवन साकार बन गया। उसने अपने आपको साध्वी के रूप में देखा। संयम की साधना में तल्लीन बने मन को देखा । चित की अपूर्व आनन्दावस्था का अनुभव किया। हर्ष और शोक के द्वन्द्वों से मुक्त, सुख और दुःख की कल्पनाओं से मुक्त चित की समावस्था का अनुभव किया। विकाररहित आत्मा-स्थिति की अनुभूति ने उसे प्रसन्न कर दी। 'दीदी! 'जिनु! 'मेरा संकल्प सुदृढ़ है। मेरा निर्णय मेरी अन्तःप्रेरणा का है। मैं अपने आपको संयममार्ग की आराधना में लीन बना सकूँगी। 'कम्मेसूरा ते धम्मेसूरा' की बात सार्थक ही होगी न?' जिनमति की आँखें चमक उठी। प्रियंगुमति ने
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी उसको अपनी ओर खींच लिया। दोनों पत्नियों का वार्तालाप मौन रहकर सुन रहे कामगजेन्द्र ने कहा :
'तुम दोनों का निर्णय मेरे साथ ही चारित्र ग्रहण करने का है तो फिर विलम्ब करना उचित नहीं होगा। राजकुमार दिशागजेन्द्र का राज्याभिषेक करके अपन श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के चरणों में पहुँच जायें ।' ___ 'आपकी बात सही है। राजकुमार के राज्याभिषेक के लिए आप महामन्त्री को बुलवाकर बातचीत करें। राजकुमार को भी तो अपना निर्णय बतलाना होगा।' प्रियंगुमति ने भद्रासन पर से खड़े होते हुए कहा। जिनमति भी प्रियंगुमति के साथ ही कामगजेन्द्र को प्रणाम करके आवश्यक कार्य हेतु बाहर निकल आयी | कामगजेन्द्र वहाँ से उठ कर मंत्रणालय में चला गया । द्वाररक्षक को बुलवाकर महामन्त्री को बुलाने भेज दिया, इतने में राजकुमार दिशागजेन्द्र वहीं पर आ पहुंचा। __ कामगजेन्द्र ने दिशागजेन्द्र को अपने पास बिठाया और अपना अभिप्राय उसे बताया। दिशागजेन्द्र की आँखें छलछला गयी। कामगजेन्द्र ने उसको प्यार से थपथपाते हुए सांत्वना दी और 'मानव जीवन की सफलता संयम से ही है, यह बात समझायी। दिशागजेन्द्र के आँसू बरबस बहे ही जा रहे थे।
महामन्त्री मंत्रणागृह में प्रवेश करके कामगजेन्द्र का अभिवादन कर, राजकुमार को प्रणाम कर आसन पर बैठे। 'मैं आपके सन्देश की राह देख ही रहा था कि आपका सन्देश मिला। आप कुशल तो हैं ना?' महामन्त्री ने बात-चीत प्रारम्भ किया।
'बड़ी प्रसन्नता है महामन्त्री! इन दिनों तो अन्तरात्मा की प्रसन्नता में डूबा जा रहा हूँ।'
'महामन्त्री जी, पिताजी ने संयम ग्रहण करने का निर्णय किया है।' दिशागजेन्द्र की आवाज भर्रा गयी। महामंत्री चौंक उठे। 'कामगजेन्द्र और संयममार्ग?' कामभोग यकायक संयम की राह पर? उनका मन कबूल नहीं करता है। वे कामगजेन्द्र की ओर देखते हैं।
'दिशागजेन्द्र की बात सही है। मैने संयम-जीवन ग्रहण करने का निर्णय किया है। परमात्मा महावीर स्वामी के आशीर्वाद मुझे मिले हैं। परमात्मा सीमंधर स्वामी की प्रेरणा मैंने पायी है।' 'महाराज, संयममार्ग श्रेष्ठ है, आत्मा की पूर्णता को पाने का यह एक ही
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी रास्ता है, पर इतनी जल्दी भी क्या है? उतरावस्था में आप संयम ले सकते
'उतरावस्था? महामन्त्री बादल की छाँव सी चंचल इस जिन्दगी का क्या भरोसा? पूर्वावस्था में जैसी संयमआराधना हो सकती है, वैसी उतरावस्था में नहीं हो सकती और जब मन ही उठ गया है भोगसुखों से, फिर देरी किस लिए?'
'आपकी बात सही है परन्तु...' वयोवृद्ध मंत्री की आँखों में आँसू भर आये! उनकी आवाज दर्द से छलक ने लगी। ___ आपके बिना यह राजमहल, यह नगर...यह राज्य...सभी कुछ सूना-सूना हो जायेगा। आपका विरह कैसे सहन होगा? आप इस कदर निष्ठुर मत बनिये।
'महामन्त्री, संयोग है वहाँ वियोग है ही 'संयोगा हि वियोगान्तः कोई मिलन शाश्वत् नहीं है। हर मिलन के पीछे विरह की कालिमा लगी हैं। संयोग सदाकालीन है ही नहीं। वैभव क्षणिक है | कामभोग दारूण विपाक वाले है!' कामगजेन्द्र अस्खलित रूप से बोल रहा था। महामन्त्री बार-बार उतरीय वस्त्र से अपनी आँखों को पोंछ रहे थे। दिशागजेन्द्र जमीन पर आँखें गड़ाए बैठा था। ___ 'महामन्त्री, दिशागजेन्द्र का राज्याभिषेक करना है। उसकी तैयारियाँ भी करनी होगी। अपने मित्र राज्यों में सूचना और निमंत्रण भी भेजना होगा। अब मैं विलम्ब करना नहीं चाहता हूँ!'
‘पर आप मेरी एक बात सुनिए, क्या महादेवी और रानी जिनमति ने सम्मति दे दी? आपके बिना वे दोनों...!'
'वे दोनों मेरे साथ संयम लेंगी। उन्होंने अपना निर्णय मुझे बता दिया है।' __ महामन्त्री स्तब्ध थे! कामगजेन्द्र के इस अचानक परिवर्तन ने उनके बरसों के अनुभव को झकझोर दिया था। उन्होंने राजा को प्रणाम किया और आज्ञा शिरोधार्य की। दिशागजेन्द्र के साथ कामगजेन्द्र भोजन के लिए राजमहल में गया और महामंत्री अपनी हवेली की ओर चल दिये।
अरुणाभ नगर ही नहीं बल्कि सारे राज्य में समाचार फैल गया। मित्र राजा और आज्ञांकित राजा अरुणाभ नगर में आने लगे | शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में दिशागजेन्द्र का राज्याभिषेक कर दिया गया।
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी
श्रमण भगवान महावीर स्वामी भी अरुणाभ के बाह्य प्रदेश में पधार गये थे। भव्य दीक्षा महोत्सव का आयोजन हुआ। नगर के अनेक स्त्री-पुरुष संयममार्ग ग्रहण करने के लिए तैयार हो गये थे।
विशाल राज्यपरिवार के साथ, लाखों नागरिक स्त्री-पुरुषों के साथ, अनेक राजा-महाराजाओं के साथ कामगजेन्द्र समवसरण की ओर चला | कामगजेन्द्र, प्रियंगुमति और जिनमति राजहाथी पर आरूढ़ थे। पीछे दूसरे राजहाथी पर दिशागजेन्द्र आरूढ़ हुआ था।
समवसरण के द्वार पर सभी आ पहुँचे। कामगजेन्द्र अपनी दोनों प्रियाओं के साथ हाथी पर से उतरा और समवसरण के सोपान चढ़ने लगा। भगवंत के समक्ष जाकर प्रणाम करके तीन प्रदक्षिणा दी। फिर मस्तक पर अंजली रचाकर भगवंत को प्रार्थना की : हे त्रिभुवन गुरु ! हमें चारित्रधर्म देकर इस भवसागर से तारने की कृपा करें। हमें आपकी शरण हो ।' ___'हे राजेन्द्र, परम आनन्द पाने का यही सच्चा रास्ता है, मुक्तिसुख को पाने का यही एक सच्चा उपाय है।'
भगवन्त ने राजा, दोनों रानियों एवं अनेक स्त्री-पुरुषों को चारित्रधर्म प्रदान किया । देवों ने फूलों की वर्षा की। दिव्यध्वनि गूंज उठी। वाजित्रों के नाद हुए |
सभी लोग अपने-अपने स्थान पर लौट गये। भगवन्त भी वहाँ से अपने शिष्य-परिवार के साथ अन्यत्र विहार कर गये।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के श्रमण संघ में कामगजेन्द्र का प्रवेश हो गया था। प्रियंगुमति और जिनमति का परमात्मा के आर्यासंघ में प्रवेश हो गया था। सभी आत्मभाव की विशुद्धि करते हुए, प्रशमभाव में निमग्न बनते हुए मोक्षमार्ग की आराधना में प्रगति कर रहे थे।
परद्रव्यों से निःसंग बनकर, स्वदेह से विरक्त बनकर कामगजेन्द्र मुनि ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या करते हुए आत्मभाव में रम रहे थे। न थी किसी परभाव की अभिलाषा। ___ महामुनि ने मन के कामविकारों पर विजय पा लिया। अभिमान की आग को नम्रता के नीर से बुझा दिया। __विषय और कषाय से मुक्त बनकर जीवनमुक्त बनने की दिशा में प्रयाण किया।
एक दिन उन्हें अन्तःस्फुरणा हुई : मेरा आयुष्य अल्प है, उन्होनें भगवंत की
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी आज्ञा लेकर 'अनशन, स्वीकार किया। अपने स्थान पर आकर दर्भ के आसन पर आसीन होकर, मस्तक पर अंजलि रचाकर, उन्होंने आत्मसाक्षी से आत्मनिवेदन किया।
'हे त्रिलोक गुरु ! हे चौबीस तीर्थंकर भगवंतों! आपको प्रणाम करके मैं सामयिक व्रत ग्रहण करता हूँ। हे, भगवंत मन-वचन-काया से मैं कोई पाप करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदन भी नहीं करूँगा | मैं राग-द्वेष से मुक्त बनकर मध्यस्थ-भाव में स्थिर बनता हूँ।'
हे भगवंत, मेरे संयम जीवन में कभी भी लोभ या मोह से मेरे द्वारा किसी सूक्ष्म या बादर जीव की हिंसा हुई हो...हास्य से, भय से, क्रोध से, लोभ से या मोह से मैंने कुछ भी असत्य बोला हो, किसी की कोई भी वस्तु बिना दिये ली हो... किसी भी तरह का मैथुन संयोग मन में भी विचारा हो...किसी भी तरह का परिग्रह इकट्ठा किया हो...तो वह मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो! मैं मनवचन-काया से उन दुष्कृत्यों का त्याग करता हूँ| संपत्ति, तरुण स्त्रियों, सोना-रुपा या रत्नों की तरफ मेरे मन में ममत्व पैदा हुआ हो... वस्त्र, पात्र, दंड, उपकरण या शिष्यों के प्रति ममत्वभाव पैदा हुआ हो...पुत्र-पुत्री, पत्नी, भाई-बहन वगैरह स्वजन या परिजनों के प्रति मेरा मन अनुरक्त बना हो, शय्या, संस्तारक वगैरह उपकरणों की तरफ यदि कोई अपनत्व जगा हो,...मेरे देह के प्रति राग पैदा हुआ हो...मेरे वे सारे दुष्कृत्य मिथ्या हो । मैं उन सबका त्याग करता हूँ। देश, नगर, गली, मुहल्ला, घर तरफ भी कभी ममत्व पैदा हुआ हो, मीठे शब्द, सुन्दर रूप, सुवासित गंध, मधुर रस और मुलायम स्पर्श की इच्छा हुई हो, किसी भी जीवात्मा पर मूढ़तावश मैंने क्रोध या रोष किया हो, मेरा वह दुष्कृत्य मिथ्या हो... सभी जीव मुझे क्षमा करें।
किसी भी जीवात्मा को मैंने पीड़ा दी हो...कष्ट दिये हों...राग से मैंने किसी की चुगली खायी हों, सत्य को असत्य किया हों, किसी को कठोर शब्द कहे हों, मर्मवचनों के द्वारा किसी के हृदय को दुखाया हों तो उन सारे जीवों से मैं क्षमा चाहता हूँ| वे सभी मुझे क्षमा प्रदान करें। ___मैंने किसी को देने का दिया न हों, किसी की आज्ञा को तोड़ा हों,...किसी को देते हुए रोका हो, दीन, दुःखी और व्याधिग्रस्त जीवों की मसखरी की हों, वे सब मुझे क्षमा करें। गत जन्मों में मैंने किसी को कटु या कर्कश वचन कहे हों, वे मुझे क्षमा दें! हे मित्रों, मुझे क्षमा दो! अमित्र और मध्यस्थ जीव भी मुझे क्षमा दें! मेरी आत्मा मैत्री और अमैत्री से मुक्त मध्यस्थ बनी है। तटस्थ बनी
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ज्योत, जो सदा जलती रहेगी
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है। मैं सब जीवों को क्षमा देता हूँ। सभी मेरी तरफ मध्यस्थ बनें रहो। इस संसार में शत्रु मित्र बनते हैं और मित्र शत्रु बनते हैं । इसलिए मित्र - अमित्र का वर्गीकरण करना उचित नहीं है।
स्वजन और परिजन सभी क्षमा दें। मैं सभी को क्षमा देता हूँ । स्वजन और परिजन, सभी मेरे लिए समान हैं । देवलोक में देवों को या तिर्यंचगति में पशुओं को मैंने दुःख दिया हो, नरक में नारक जीवों को और मनुष्यभव में मनुष्यों को मैंने दुःख दिया हो, तो उन सभी जीवों को मैं भावपूर्वक क्षमा देता हूँ। वे सारे जीव मुझे क्षमा करें। छह जीवनिकाय के जीवों को राग-द्वेष या मोह से, जाने-अनजाने में भी मैंने दुःख दिया हो तो वे सभी मुझे क्षमा देवें । मैं उनको क्षमा देता हूँ।
महामुनि कामगजेन्द्र के चेहरे पर अपूर्व सौम्यता उभर आई । वे समतायोग में स्थिर बन गये। बाद में उन्होंने विशिष्ट ध्यानसाधना 'क्षपकश्रेणि' लगायी और घाती कर्मों का क्षय करके वे सर्वज्ञ - वीतराग बन गये । उसी समय अघाती कर्मों का भी क्षय हो गया और कामगजेन्द्र महामुनि देहमुक्त बने, उनका निर्वाण हुआ। उन्होंने परम पद मोक्ष प्राप्त किया ।
कामगजेन्द्र ने परमानन्द स्वरूप प्राप्त किया, यह समाचार साध्वी प्रियंगुमति और आर्या जिनमति को मिला। वे शोकाकुल व्याकुल हो उठी। 'अब हमें कभी उन महामुनि के दर्शन नहीं होंगे!' इस विचार ने दोनों को व्यथित कर दिया । सर्वज्ञ परमात्मा महावीर देव ने उन दोनों आर्याओं को अपने पास बुलाकर उनका उद्वेग दूर किया: हे आर्ये! तुम क्यों व्याकुल हो रही हो? तुम दोनों भी चरम शरीरी हो। इसी भव में सारे कर्मों का क्षय करके तुम मोक्ष-पद को प्राप्त करोगी। कामगजेन्द्र की आत्मा की ज्योति में तुम्हारी ज्योत मिल जायेगी । तुम्हारा आत्ममिलन शाश्वत होगा ।' परमात्मा की प्रेमभरी सांत्वना ने दोनों साध्वियों को प्रसन्नता दी। दोनों ने प्रभु को पँचाँग नमस्कार किया और अपने स्थान पर चली गयी।
दोनों साध्वियों ने यथासमय अनशन किया और समूचे कर्मजाल को काटकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और निरंजन - निराकार पद प्राप्त किया ।
भगवान महावीर स्वामी के समय में खेला गया यह राग और विराग का अद्भुत जीवन - खेल इस तरह पूर्ण होता है। राग पर विराग का विजय परमपद का विराट निःसीम साम्राज्य देता है । विराग पर राग का विजय दारुण नरक की यातनाएँ देता है ।
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