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उज्जयिनी की राजकुमारी
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रही। वह कामगजेन्द्र के बहुआयामी व्यक्तित्व की गहराइयों को नापने लगी । एक ओर राग-भरपूर व्यक्तित्व तो दूसरी ओर विरागदशा के लिए अजीब सी छटपटाहट! बाहर से आसक्त और भोगी कामगजेन्द्र भीतर से अनासक्त और योगी पुरुष था ! दोनों व्यक्तित्व यथार्थ थे। वैराग्य का मुखौटा नहीं था । मन और इन्द्रियाँ जब प्रशान्त बनी रहती तब वह विरागता के सोपान चढ़ता जाता, पर जब रागदशा में वह अपने आपको बाँध लेता तो उसी आसक्ति की अगनपिपासा में उसके प्राण बँध जाते ।
जिनमति प्रियंगुमति को खोजती हुई कामगजेन्द्र के आवास में आ पहुँची। प्रियंगुमति को अकेली और विचारों में लीन बनी देखकर वह सहम सी गयी, पर प्रियंगुमति ने उसे देख लिया ।
'जिनु, आ,' जिनमति को पास में बिठाकर प्रियंगु उसकी ओर देखती रही । 'ओह दीदी! आज किस विचार में इतनी गहरी डूब गयी हो ?' प्रियंगु के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में बाँधती हुई जिनमति ने पूछा ।
'राग और विराग के विचारों में ।'
'क्यों? क्या हुआ अचानक ? जिनमति ने तीव्र जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा। प्रियंगुमति के चेहरे पर स्मित के फूल खिल उठे।
'हाँ, कुछ नया-नवीन बने तब ही तो ऐसे विचार आये ना ? इस संसार में कभी भी कुछ हो सकता है!'
'ऐसा क्या हो गया दीदी ? जिनमति की आँखों में पारदर्शी संवेदना सिहर उठी।
प्रियंगुमति ने उसको अपने पास खींच लिया ।
'उज्जयिनी की राजकुमारी का चित्र लेकर एक चित्रकार आया है। अद्भुत है वह चित्र और अद्वितीय रूप-लावण्य से भरीपूरी है वह राजकुमारी ।'
'समझ गयी दीदी ! वह चित्र अपने स्वामी को पसन्द आ गया, यही न?' ‘बिलकुल सच है तेरी कल्पना जिनु ! वह चित्र तो पसन्द आया ही, उन्हें तो राजकुमारी भी पसन्द आ गयी और सच कहूँ? मैंने तो उसे प्राप्त करने का उपाय भी उन्हें बतला दिया । '
'दीदी ! क्या कहती हो ? जिनमति की आँखें फटी-फटी सी रह गई ! अनहोनी की प्रतिक्षा में उसकी सांसें थम सी गई।
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