________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४२
उज्जयिनी की राजकुमारी 'सच, बड़ा ही सुन्दर रूप है!'
सुनेपन की सरसराहट फिर वातावरण में छा जाती है। दोनों की आँखें चित्र पर स्थिर है। प्रियंगुमति कामगजेन्द्र के चेहरे पर छायी हुई बर्फीली खामोशी की परत दर परत छीलकर उसके अन्तस्तल में पहुँच जाती है। कामगजेन्द्र झेंपता हुआ प्रियंगुमति की आँखों से अपनी बेचैनी को छिपाने का निरर्थक प्रयास करता है। प्रियंगुमति के चेहरे पर स्मित की चाँदनी छिटक रही थी। स्नेहार्द्रता में तैरता उसका बदन, निर्दोष मृगछौने से उसकी आँखें, कामगजेन्द्र की आँखें अलसा जाती है। 'देवी! 'नाथ!' 'यह राजकुमारी तुम्हें अच्छी लगती है?' 'बहुत, कितनी प्यारी है यह! 'मेरा मन उसको पाने के लिए प्यासा बन गया है।'
कामगजेन्द्र के शब्दों में आखिर उसकी मनोकामना की हल्की सी छाया आ बैठी।
राजकुमारी को पाने का मुझे एक रास्ता सूझता है। प्रियंगुमति ने कहा : 'क्या? जल्दी बताओ।' 'जिसने यह चित्र बनाया, उसी चित्रकार के पास आपका एक चित्र बनाकर अवंतिपति के पास भेजा जाय। राजकुमारी आपका चित्र देखकर अवश्यमेव आपका ही वरण करने का निश्चय करेगी।' ___ 'योजना अच्छी है। चित्रकार को मैंने रोक रखा है। उसे बुलवाकर मेरा चित्र बनाने के लिए कह देता हूँ।' कामगजेन्द्र का रोयाँ-रोयाँ खिल उठा। वह प्रियंगुमति पर खुश हो गया। ___ कैसी राग दशा है कामगजेन्द्र की!! रंभा और उर्वशी सी दो रानियों के होते हुए भी वह चित्र की राजकुमारी पर मुग्ध बन गया है।
कितना अदभुत समर्पण है प्रियंगुमति का!! कोई ईर्ष्या या डाह नहीं, कोई स्वार्थ की चाहना नहीं! अपने प्रियतम की प्रसन्नता में ही अपने आनन्द को पाने वाली यह नारी थी!
कामगजेन्द्र राजकुमारी का चित्र लेकर चला गया। प्रियंगुमति वहीं बैठी
For Private And Personal Use Only